संविधान के मूल ढाँचे की धारणा का आशय यह है कि संविधान की कुछ व्यवस्थायें अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, वे संविधान के मूल ढाँचे के समान हैं और समस्त संवैधानिक व्यवस्था उन पर आधारित है. आइये जानते हैं – Concept of the basic structure or the basic principles of the Constitution in Hindi.
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य
सर्वप्रथम इस धारणा का प्रतिपादन सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 24 अप्रैल, 1973 को मौलिक अधिकारों से सम्बंधित एक विवाद केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य पर निर्णय देते हुए किया गया. इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित या सीमित कर सकती है, किन्तु संविधान के अनुच्छेद 368 से संसद को संविधान के मूल ढाँचे (basic structure) में परिवर्तन का अधिकार प्राप्त नहीं होता.”
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार (मई 1980) विवाद में भी सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा पुनः इस बात का प्रतिपादन किया गया. इसके अतिरिक्त 1975-76 की राजनीतिक स्थिति (Emergency के समय Indira Gandhi द्वारा संविधान से छेड़-छाड़ किए गया) के आधार पर यह अनुभव किया गया कि शासक वर्ग संसद पर अनुचित प्रभाव और नियंत्रण स्थापित कर संसद की सर्वोच्चता के नाम पर संविधान को खिलवाड़ का साधन बना सकता है, अतः शासन की इस शक्ति पर रोक लगाने के लिए “संविधान के मूल ढाँचे की धारणा” को अपनाया जाना चाहिए.
1973 और 1980 के निर्णय में यह नहीं बताया गया कि “संविधान के मूल ढाँचे (basic principles of the constitution)” या “आधारभूत ढाँचे” के अंतर्गत संविधान की कौन-कौन-सी व्यवस्थाएँ आती हैं. “मूल ढाँचे की धारणा” को कुछ स्पष्ट करने की एक चेष्टा 45वें संविधान संशोधन विधेयक में की गई थी, लेकिन राज्यसभा की असहमति के कारण उसे संविधान संशोधन विधेयक से निकाल दिया गया.
“संविधान के मूल ढाँचे” की धारणा से सहमति रखने वाले सभी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि संविधान के मूल ढाँचे में निम्नलिखित बातें अवश्य आनी चाहिए –
- संविधान का लोकतांत्रिक स्वरूप
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप
- नागरिकों के मूल अधिकार व स्वतंत्रताएँ
- लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के व्यस्क मताधिकार पर आधारित स्वतंत्र चुनाव
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
इस प्रकार संविधान के मूल ढाँचे (basic structure/principles में अंतिम रूप से परिवर्तन का अधिकार संसद या राज्य विधान सभाओं को नहीं, वरन् स्वयं जनता को ही है. इसी कारण इस विचार को “जन सर्वोच्चता” या “जन-संप्रभुता की धारणा” (concept of people’s supremacy or people’s sovereignty) का नाम भी दिया जा सकता है.
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