आशा है कि इस पोस्ट को पढ़ने से पहले आपने 1857 की क्रांति वाला हमारा पोस्ट जरुर पढ़ा होगा. यदि नहीं पढ़ा तो आप अभी क्लिक करके पढ़ सकते हैं >> 1857 की क्रांति. यहाँ पर हम 1857 की क्रांति के कुछ प्रमुख नेताओं (leaders) के नाम लेने जा रहे हैं. इन्होंने किन क्षेत्र का नेतृत्व किस प्रकार किया, इस पोस्ट में हम सब कुछ जानेंगे.
बहादुरशाह
क्रांतिकारियों ने मुग़ल बादशाह बहादुरशाह के नेतृत्व में क्रांति का संचालन किया. वैसे, मुग़ल बादशाह असक्षम और बूढ़ा हो चुका और इन सब झमेले में पड़ना नहीं चाहता था फिर भी क्रांतिकारियों के निवेदन से उसे इस क्रांति का हिस्सा बनना पड़ा. सारे क्रांतिकारियों ने बहादुरशाह जफ़र को निर्विवाद रूप से विद्रोह का नेता स्वीकार कर लिया. लेकिन वही हुआ जो होना था. बहादुरशाह नेतृत्व प्रदान करने में असफल रहा. वह बंदी बना लिया गया. उसे गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
1853 ई. में गंगाधर राव की मृत्यु के बाद झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया. रानी को पेंशन दे दी गई. लक्ष्मीबाई इससे अत्यंत क्रुद्ध थीं. शुरुआत में उन्होंने विद्रोह में दिलचस्पी नहीं दिखाई, पर परिस्तिथि से बाध्य होकर उन्होंने विद्रोहियों का साथ देना शुरू कर दिया. मार्च, 1858 ई. में जब Hugh Rose ने झाँसी पर आक्रमण किया तब रानी ने दृढ़तापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला किया. झाँसी को असुरक्षित जान अप्रैल में रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ झाँसी छोड़कर कालपी चली गई. कालपी में भी रानी को हार का सामना करना पड़ा. वहां से वह ताँत्या टोपे के साथ ग्वालियर पहुँची. ग्वालियर पर विद्रोहियों ने सिंधिया, जो अंग्रेजों का मित्र था, को हराकर कब्ज़ा कर लिया. सिंधिया को आगरा भागना पड़ा. नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया परन्तु इसी बीच अंग्रेजी सेना ग्वालियर में भी टपक पड़ी. 17 जून, 1858 ई. को अंग्रेजों से युद्ध करते हुए रानी ने वीरगति प्राप्त की. ताँत्या टोपे को गिरफ्तार करके फाँसी दे दी गई. एक महिला हो कर भी बहादुरी के साथ रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों का सामना किया, यह बात भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखती है.
नाना साहब
कानपुर में विद्रोह का संचालन नाना साहब की नेतृत्व में हुआ. वह अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे. अंग्रेजों ने बाजीराव के मृत्यु के बाद उसका पेंशन बंद कर दिया था. इससे नाना साहब गुस्सा हुए और उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने का सोचा. जब मेरठ में विद्रोह आरम्भ हुआ उसके बाद नाना साहब ने कानपुर पर अधिकार कर स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया. उन्होंने मुग़ल बादशाह बहादुरशाह को भारत का सम्राट और खुद को उसका गवर्नर घोषित कर दिया. ताँत्या टोपे और अजीमुल्ला के सहयोग से नाना साहब ने अंग्रेजों से कई युद्ध किये. अंग्रेजी सेना मजबूत थी. धीरे-धीरे अंग्रेजों ने कानपुर, बिठूर और नाना साहब के अन्य ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया. हार कर नाना साहब नेपाल के जंगलों में छुप गये. आज तक कोई नहीं जानता कि उसके बाद वह कहाँ गए और उनका क्या हुआ?
बेगम हजरतमहल
अवध क्रांतिकारियों का एक प्रमुख केंद्र था. अवध की क्रांति का सञ्चालन बेगम हजरतमहल ने किया. नवाब वाजिदअली शाह को अपदस्थ किए जाने के उपरान्त बेगम ने बिरजिस कदर नामक अवयस्क पुत्र को नवाब घोषित कर दिया और प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. बेगम को अवध के जमींदारों, किसानों, सिपाहियों आदि सभी का सहयोग प्राप्त हुआ. उनकी सहायता से बेगम हजरतमहल ने अंग्रेजों को अनेक स्थानों पर हराया और अंततः अंग्रेजों को लखनऊ की रेजीडेंसी में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया. अनेक कठिनाइयों के बाद ही अंग्रेज़ पुनः लखनऊ पर अधिकार करने और अवध में विद्रोह को शांत करने में सफल हो पाए.
कुँवर सिंह
बिहार में विद्रोहियों के नेता जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुँवर थे. वैसे कहने को तो वह एक बहुत बड़े जमींदार थे पर उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. वह अपने जमींदारी का प्रबंध Board of Revenue को सौंपना चाहते थे पर इस कार्य में वह असफल रहे. कुछ दिनों बाद कुँवर सिंह आर्थिक दिवालियेपन की स्थिति में पहुँच गए. दानापुर में विद्रोह कर रहे कुछ क्रांतिकारियों ने आरा पहुँच कर कुँवर सिंह को विद्रोह का दायित्व सँभालने को कहा. कुँवर सिंह बूढ़े हो चुके थे पर फिर भी उन्होंने इस विद्रोह का सञ्चालन करने का निर्णय लिया. नाना साहब के साथ मिलकर उन्होंने अवध और मध्य भारत में भी युद्ध किया. उन्होंने जगदीशपुर, आरा आदि जगहों पर अंग्रेजों को हराया. बलिया के निकट गंगा पार करते समय वह अत्यंत घायल हो चुके थे. उनके बाँह में गोली लगी थी. उन्होंने स्वयं अपने बाँह को काट डाला. 23 अप्रैल, 1858 ई. को जगदीशपुर में उनकी मृत्यु हो गयी. उनके बाद उनके भाई अमर सिंह ने भी अंग्रेजों से संघर्ष जारी रखा पर वे उनके सामने अधिक देर तक टिक नहीं पाए और उन्हें जगदीशपुर छोड़कर भागना पड़ा.
मौलवी अहमदुल्ला
फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला ने भी 1857 के विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. वह मूल रूप से मद्रास के रहने वाले थे. मद्रास में भी उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की योजना बनायी थी. वे जनवरी, 1857 को फैजाबाद आये. अंग्रेज़ सरकार पहले से उनके आगमन से सतर्क थी. कंपनी ने उनको पकड़ने के लिए सेना भेजी. मौलवी ने डटकर मुकाबला किया. अवध क्रांति में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और एक प्रमुख नेता बन कर उभरे. जब अंग्रेजों ने लखनऊ पर कब्ज़ा किया तो मौलवी अहमदुल्ला रोहिलखंड का नेतृत्व करने लगे. यहीं पुवैन के राजा ने मौलवी की हत्या कर दी. इस कार्य के बदले में उस धोखेबाज राजा को अंग्रेजों के द्वारा 50,000 रु. पुरस्कारस्वरूप मिले.
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