20वीं शताब्दी के पूर्वाह्न में भारत में उग्रवाद के साथ-साथ उग्र क्रांतिवाद का भी विकास हुआ. क्रांतिकारी आन्दोलन के उत्थान के मुख्यतः वही कारण थे, जिनसे राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवाद का उदय हुआ. उग्र राष्ट्रवादियों का ही एक दल क्रांतिकारी के रूप में उभरा. भेद केवल यह था कि उग्र क्रान्तिकारी अधिक शीघ्र परिणाम चाहते थे. यद्यपि भारत के भिन्न-भिन्न भागों में क्रांतिकारियों के राजनैतिक दर्शन को निश्चित रूप से वर्णन करना संभव नहीं, परन्तु उन सबका एक ही उद्देश्य मातृभूमि को विदेशी शासन से मुक्त कराना था. साधनों के विषय में उनका विश्वास था कि पाश्चात्य साम्राज्यवाद को केवल पश्चिमी हिंसक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है. इसलिए इन लोगों ने बन्दूक तथा पिस्तौल का प्रयोग किया. उन्होंने आयरलैंड से प्रेरणा प्राप्त की. यह आन्दोलन दो चरणों में हुआ- प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व और फिर उसके बाद. क्रांतिकारियों ने अपने गुप्त संगठन बनाये, हथियार एकत्र किये, सरकारी खजानों को लूटा तथा बदनाम अंग्रेज अफसरों और देशद्रोहियों की हत्याएं की. इनकी गतिविधियां सबसे अधिक तेज महाराष्ट्र, बंगाल और पंजाब में थी. देश के अन्य भागों एवं विदेशों में भी क्रांतिकारी संगठन बनाये गये थे.
क्रान्तिकारियों की कार्य-प्रणाली
क्रांतिकारियों का मानना था कि ‘अंग्रेजी शासन पाशविक बल पर स्थित है और यदि हम अपने आपको स्वतंत्रा करने के लिए पाशविक बल का प्रयोग करते हैं तो यह उचित ही है. उनका संदेश थाः ‘तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो.’
उनकी कार्य-प्रणाली के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल थीं:
- पत्रों की सहायता से प्रचार द्वारा शिक्षित लोगों के मष्तिष्क में दासता के प्रति घृणा उत्पन्न करना.
- संगीत, नाटक एवं साहित्य के द्वारा बेकारी और भूख से त्रस्त लोगों को निडर बनाकर उनमें मातृभूमि और स्वतंत्रता का प्रेम भरना.
- बम बनाना, बंदूक आदि चोरी से उपलब्ध करना तथा विदेशों से शस्त्र प्राप्त करना.
- चन्दा, दान तथा क्रांतिकारी डकैतियों द्वारा व्यय के लिए धन का प्रबंध करना.
महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी अभियान
क्रांति की लहर सबसे पहले महाराष्ट्र से चली और शीघ्र ही इसने समूचे भारत को अपनी गिरफ्त में ले लिया. प्रथम क्रांतिकारी संगठन 1896-97 में पूना में दामोदर हरि चापेकर और बालकृष्ण हरि चापेकर द्वारा स्थापित किया गया. इसका नाम ‘व्यायाम मंडल’ था. इस गुट के द्वारा रैण्ड और एमहर्स्ट नामक दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की गयी. यह यूरोपीयों की प्रथम राजनीतिक हत्या थी. इस हत्या का निशाना तो पूना में प्लेग समिति के प्रधान श्री रैण्ड थे, परन्तु एमहर्स्ट भी अकस्मात् मारे गये. चापेकर बन्धु पकड़े गये तथाप फांसी पर लटका दिये गये. शासक वर्ग ने अंग्रजों के विरुद्ध टिप्पणी लिखने के लिए तिलक को उत्तरदायी ठहराकर 18 मास की सजा दी. 1918 की विद्रोह समिति की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन का प्रथम आभास महाराष्ट्र में मिलता है, विशेषकर पूना जिले के चितपावन ब्राह्मणों में. ये ब्राह्मण महाराष्ट्र के शासक पेशवाओं के वंशज थे. उल्लेखनीय है कि चापेकर बन्धु तथा तिलक चितपावन ब्राह्मण ही थे.
सावरकर ने 1904 में नासिक में ‘मित्रमेला’ नाम से एक संस्था आरंभ की थी जो शीघ्र ही मेजनी के ‘तरुण इटली’ की तर्ज पर एक गुप्त सभा ‘अभिनव भारत’ में परिवर्तित हो गयी. बंगाल के क्रांतिकारियों से भी इस संस्था का संबंध था. इस संस्था ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए विदेशों से अस्त्र-शस्त्र मंगवाया और बम बनाने का काम रूसियों के सहायता से किया. अनेक गुप्त संस्थाएं बम्बई, पूना, नासिक, नागपुर, कोल्हापुर आदि जगहों में सक्रिय थीं. शीघ्र ही सरकार इनकी कार्यवाहियों से पराजित हो गयी. गणेश दामोदर सावरकर को भारत से निर्वासित कर दिया गया. जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या के आरोप में दामोदर सावरकर सहित अनेक व्यक्तियों पर ‘नासिक षड्यंत्र’ केस चलाया गया. उन्हें भारत से आजीवन निर्वासित कर ‘कालापानी’ की सजा दी गयी. बाद में सरकार की दमनात्मक नीति एवं धन की कमी के कारण महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आन्दोलन ठंडा हो गया.
बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन
बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन का सूत्रापात भद्रलोक समाज से हुआ. पी. मित्रा ने एक गुप्त क्रांतिकारी सभा ‘अनुशीलन समिति’ का गठन किया. बंग-विभाजन की याजेना, इसके विरुद्ध जन आक्रोश की भावना एवं सरकारी दमनात्मक कार्रवाइयों ने क्रांतिकारी कार्रवाइयों का प्रसार किया. 1905 में बारीन्द्र वुफमार घोष ने ‘भवानी मंदिर’ नामक की पुस्तिका प्रकाशित कर क्रांतिकारी आन्दोलन को बढ़ावा दिया. इसके पश्चात् ‘वर्तमान रणनीति’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की. ‘युगान्तर’ और ‘सांध्य’ नामक पत्रिकाओं द्वारा भी अंग्रेज विरोधी विचार फैलाये गये. इसी प्रकार एक अन्य पुस्तिका ‘मुक्ति कौन पथे’ में भारतीय सैनिकों से क्रांतिकारियों को हथियार देने को आग्रह किया गया.
पूर्व बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर बैमफिल्ड फुलर की हत्या का काम प्रफुल्ल चाकी को सौंपा गया, किन्तु यह काम पूरा नहीं हो सका. 1907 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गर्वनर की ट्रेन को मेदनीपुर के पास उड़ा देने का षड्यंत्र हुआ तथा 1908 ई. में चन्द्रनगर के मेयर को मारने की योजना बनायी गयी. 30 अप्रैल को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने मुजफ्फरपुर के जिला जज किंग्सपफोर्ड की हत्या करने का प्रयास किया, परन्तु गलती से बम श्री केनेडी की गाड़ी पर गिरा जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गयी. खुदीराम बोस पकड़े गये. जबकि प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली. बोस पर अभियोग चलकार उन्हें फाँसी दे दी गयी.
सरकार ने अवैध हथियारों की तलाशी के संबंध में मानिकतला उद्यान तथा कलकत्ता में तलाशियां लीं और 34 व्यक्तियों को बन्दी बनाया, जिसमें दो घोष बन्धु – अरविंद घोष और बारीन्द्र घोष सम्मिलित थे. इन पर अलीपुर षड्यंत्र का मुकदमा बना. मुकदमे के दिनों में सरकारी गवाह नरेन्द्र गोसाईं की जेल में हत्या कर दी गयी. फरवरी 1909 में सरकारी वकील की हत्या कर दी गयी तथा 24 फरवरी, 1910 को उप-पुलिस अधीक्षक की कलकत्ता उच्च न्यायालय से बाहर आते समय हत्या कर दी गयी. इस षड्यंत्र में अनेक व्यक्तियों को फाँसी की सजा दी गयी. 1910 में हावड़ा षड्यंत्र एवं ढाका षड्यंत्र हुए. बारिसाल में भी क्रांतिकारी कार्य हुए. रॉलेट कमेटी की रिपोर्ट में 1906 से 1917 के बीच मध्य बंगाल में 110 डाकें तथा हत्या के 60 प्रयत्नों का उल्लेख है.
इन क्रांतिकारी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार ने विस्फोट पदार्थ अधिनियम, 1908 और समाचार पत्र (अपराध प्रेरक) अधिनियम, 1908 पास किये. इसके अलावा व्यापक दमन चक्र चलाया गया. अनेक क्रांतिकारी फाँसी पर चढ़ा दिये गये. कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया और अनेक को निर्वासित कर दिया गया. इन दमनात्मक कार्यों से क्रांतिकारी संगठन टूटने लगे.
पंजाब तथा दिल्ली में क्रांतिकारी कार्रवाइयाँ
बंगाल की घटनाओं का प्रभाव लगभग समूचे देश पर पड़ा. पंजाब और दिल्ली भी क्रांतिकारियों से बचे नहीं रहे. 1907 ई. के आस-पास पंजाब के किसानों में ‘औपनिवेशिक विधयेक’ था. इसका नेतृत्व अजीत सिंह कर नामक क्रांतिकारी संस्था बनायी. लाला क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त थे. सिंह को बन्दी बना लिया गया तथा से निर्वासित कर दिये गये. अजित और वे फ़्रांस चले गये.
दिल्ली अमीरचंद ने किया. 1912 में दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया, जिसमें जख्मी हो गया और उसका एक सेवक मारा गया. सरकार ने संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया. अमीरचंद और बम फेंकने वाले बसंत विश्वास को फांसी दे दी गयी. रास बिहारी बोस भागकर जापान चले गये और वहीं से क्रांतिकारी गतिविधियां संचालित करते रहे.
भारत के अन्य भागों में क्रांतिकारी गतिविधियां
देश के अन्य भागों में भी क्रांतिकारी गतिविधियां चल रही थीं. मद्रास में क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन विपिन चन्द्र पाल कर रहे थे. उनके विचारों से प्रभावित होकर अनेक लोग आन्दोलन में कूद पड़े. 1911 में तिनेवेली के जिला मजिस्ट्रेट मि. ऐश को रेलवे स्टेशन पर ही गोली मार
दी गयी. नीलंकठ अय्यर और वी.पी.एस. अय्यर ने मद्रास में आन्दोलन को आगे बढ़ाया. राजस्थान में क्रांतिकारी फैलाने में मुख्य भूमिका अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहट और राव गोपाल सिंह ने निभायी, प्रताप सिंह ने अजमेर में क्रांति को जीवित रखा. मध्य प्रदेश के प्रमुख क्रांतिकारी अमरौती के गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे थे. संयुक्त प्रांत, आगरा एवं अवध के क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र बनारस बना. बिहार में पटना तथा झारखण्ड में देवघर, दुमका आदि जगहों पर भी घटनाएं हुईं. पटना में कामाख्या नाथ मित्रा, सुधीर कुमार सिंह, पुनीतलाल, बाबू मंगला चरण आदि ने क्रांतिकारी गतिविधियों को अपना सक्रिय सहयोग दिया.
विदेशों में क्रांतिकारी संगठन एवं कार्य
अनके क्रांतिकारी सरकारी चंगुल से बचने के लिए विदेश चले गये और वहीं से अपना संघर्ष जारी रखा. विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रसार का श्रेय श्यामजी कृष्ण वर्मा को जाता है. लंदन में इन्होंने 1905 में ‘इंडिया होमरूल सोसाइटी’ की स्थापना की. उन्होंने “इंडियन सोशियोलॉजिस्ट” नामक पत्र निकालकर भारत में स्वराज्य प्राप्ति को अपना उद्देश्य बताया. उन्होंने लंदन में ‘इंडिया हाउस’ की भी स्थापना की जो क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र था. बाद में उन्हें लंदन छोड़कर पेरिस भागना पड़ा. उनकी जगह नेतृत्व विनायक दामोदर सावरकर के हाथ में आ गया. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘1857 ई. का भारतीय स्वतंत्रता का युद्ध’ लिखी. जुलाई 1909 ई. में लंदन में ही मदन लाल ढींगरा ने भारत सचिव के ए.डी.सी., कनर्ल सर विलियम कर्जन वाइली को गोली मार दी. ढ़ींगरा को फाँसी दे दी गयी और इस षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में सावरकर को गिरफ्तार कर भारत भेजा गया, जहां उन पर मुकदमा चलाकर देश निकाला की सजा दी गयी. फ़्रांस में मैडम भीकाजी कामा क्रांतिकारी कार्रवाईयों का संचालन कर रही थी. साथियों ने 1931 ई. में सैन फ्रांसिस्को में की. संस्था ने एक साप्ताहिक पत्र ‘गदर’ आन्दोलन को बढ़ावा देती रहा.
क्रांतिकारियों ने लंदन में कमाल पाशा से भेंट की. भारत और मिस्र के क्रांतिकारियों का सम्मिलित सम्मलेन ब्रुसेल्स में हुआ. बैंकोक और चीन के गुरुद्वारे क्रांतिकारी विचारों के केन्द्र बन गये.
प्रथम विश्व युद्ध के समय क्रांतिकारी गतिविधियां
1913 ई. तक भारत में सरकारी दमन चक्र, सगंठनात्मक कमजोरियों एवं धन-जन समर्थन के अभाव से क्रांतिकारी आन्दोलन की गति धीमी पड़ गयी थी, लेकिन जब प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ हुआ तो क्रांतिकारियों को अच्छा अवसर मिला. भारत में और भारत के बाहर भी क्रांतिकारी सरकार का तख्ता पलटने की तैयारी जोर-शोर से करने लगे. इस योजना में प्रवासी भारतीय तथा उनके संगठनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. बर्लिन में स्थापित ‘भारतीय स्वतंत्रता समिति’ और अमरीका की ‘गदर पार्टी’ ने भारतीयों को स्वदेश भेजने की योजना बनायी ताकि वे भारत जाकर स्थानीय क्रांतिकारियों एवं सेना की सहायता से विद्रोह कर सकें. उनके लिए खर्च की व्यवस्था की गयी और हथियारों का प्रबंध किया गया. इसके अलावा पार्टी ने सुदूर-पूर्व, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत में स्थित सैनिकों से गुप्त सम्पर्क कर उन्हें विद्रोह के लिए उकसाया. विद्रोह पंजाब में शुरू होने वाला था, इसके लिए 21 फरवरी, 1915 का दिन भी तय हुआ. दुर्भाग्यवश सरकार को इस योजना का पता चल गया और उसने स्थिति नियंत्रित कर ली. पंजाब में प्रसिद्ध ‘कामागाटा मारू काण्ड’ ने एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी. बाबा गुरुदत्त सिंह ने एक जापानी जलपोत ‘कामागाटा मारू’ को भाड़े पर लेकर पंजाबी सिखों तथा मुसलमानों को लेकर कनाडा के बैंकूवर नगर ले जाने का प्रयत्न किया. कनाडा सरकार ने इन्हें उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज को फिर से कलकत्ता लौटना पड़ा. यात्रियों का मानना था कि अंग्रेजी सरकार के दबाव के कारण ही उन्हें उतरने की अनुमति नहीं दी गयी. इसी प्रकार क्रान्तिकारियों के प्रयास से सिंगापुर में नियुक्त पांचवी लांइट इन्फैंन्ट्री बटालियन ने फरवरी 1915 को विद्रोह कर दिया, जिसे सरकार ने निर्ममतापूर्वक कुचल दिया. काबुल में राजा महेन्द्र प्रताप, बरकतुल्लाह और ओबेदुल्ला के प्रयासों से दिसम्बर 1915 में भारत की प्रथम अस्थायी सरकार बनायी गयी, जिसके अध्यक्ष राजा महेन्द्र प्रताप थे. इस सरकार ने कई विदेशी देशों से भी सहायता मांगी परन्तु सफलता नहीं मिली. 1919 तक अंतर्राष्ट्रीय और भातरीय राजनीति में तेजी से बदलाव आ रहा था. विश्व युद्ध में इंग्लैंड की विजय से क्रांतिकारी आन्दालेन को गहरी ठेस लगी. भारत सरकार ने भी स्थिति से निबटने के लिए काननू बनाए, जैसे –
- राजद्रोह सभाओं को रोकने अधिनियम 1908
- विस्फोटक पदार्थ कानून – 1908
- समाचार पत्र (अपराध प्रोत्साहन) अधिनियम – 1910
- भारत रक्षा अधिनियम – 1915
इस प्रकार 1919-20 तक सरकार ने क्रांतिकारी कार्रवाइयों को नियंत्रित कर लिया.
क्रांतिकारी आन्दोलन का दूसरा चरण
असहयोग आंदोलन के असफल होने से क्रांतिकारियों में पुनः उग्रता आयी. बंगाल में पुरानी अनुशीलन तथा युगांतर समितियां पुनः जाग उठीं तथा उत्तरी भारत के लगभग सभी प्रमुख नगरों में क्रांतिकारी संगठन बन गये. इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस समय यह समझा गया कि एक अखिल भारतीय सगंठन होने तथा अधिक उत्तम तालमेल होने से अच्छा परिणाम निकल सकता है. अतएव समस्त क्रांतिकारी दलों का अक्टूबर 1924 में कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें सचिन्द्र नाथ सान्याल, जगदीश चन्द्र चटर्जी तथा राम प्रसाद बिस्मिल जैसे पुराने क्रांतिकारी तथा भगत सिंह, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा तथा चन्द्रशेखर आजाद एवं राजगुरु जैसे नये क्रांतिकारी ने भाग लिया. इस अखिल भारतीय सम्मेलन के परिणामस्वरूप ‘भारत गणतंत्र समिति या सेना’ (Hindustan Republican Association or Amry) का जन्म हुआ. इसकी शाखाएं बिहार, यू.पी., दिल्ली, पंजाब, मद्रास आदि कई जगहों पर स्थापित की गईं. इस दल के तीन प्रमुख आदर्श निम्न हैं –
- भारतीय जनता में गांधीजी की अहिंसावाद की नीतियों की निरर्थकता के प्रति जागृति उत्पन्न करना.
- पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही तथा लोगों को क्रांति के लिए तैयार करना.
- अंग्रेजी साम्राज्यवाद के स्थान पर समाजवादी विचारधारा से प्रेरित भारत में संघीय गणतंत्रा की स्थापना करना.
अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संस्था ने हथियार बनाने और सरकारी खजाने लूटने की भी योजना बनायी. संस्था का प्रथम महत्त्वपूर्ण कार्य काकोरी की ट्रेन डकैती थी. इस ट्रेन द्वारा अंग्रेजी खजाना ले जाया जा रहा था. क्रांतिकारियों ने ट्रेन पर आक्रमण कर उसे लूट लिया, परंतु वे जल्द ही पकड़े गये. उनपर ‘काकोरी षड्यंत्र’ का मकुदमा चलाकर राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला सहित चार लोगों को 1925 में फाँसी पर चढ़ा दिया गया. 1928 ई. में चन्द्रशेखर आजाद आदि द्वारा ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिसएशन’ कर दिया गया. 1928 में ही भगत सिंह, चन्द्रशेखर और राजगुरु ने लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान सांडर्स की हत्या कर दी. उल्लेखनीय है कि साइमन विरोधी प्रदर्शन के समय सांडर्स के द्वारा ही लाठी चलवायी गयी थी जिसमें लाजपत राय को चोट लगी और उनकी मृत्यु हो गयी थी.
अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा में बम फेंका, जिसका उद्देश्य था ‘बहरी सरकार को आवाज सुनाना’. बम फेंकने के बाद दोनों ने ही अपनी गिरफ्तारी भी दी. 1930 में सूर्यसेन ने चटगांव के शस्त्रागार पर आक्रमण कर अनेक अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी. इस अभियान में महिलाओं ने भी हिस्सा लिया. सूर्यसेन ने चटगांव में ही अपने आप को प्रांतीय स्वतंत्रा भारत सरकार का प्रधान भी घोषित किया. सरकार ने भी अपना दमन-चक्र चलाया. ‘लाहौर षड्यंत्र’ में फंसाकर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को फाँसी पर लटका दिया गया.
चन्द्रशेखर आजाद भी फरवरी 1931 में ही इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गये. सूर्य सेन को 1933 ई. में फाँसी पर चढ़ा दिया गया. इसी बीच जेलों की दुर्व्यवस्था के विरोध में जतीन दास ने 63 दिनों की आमरण अनशन के पश्चात् अपने प्राण त्याग दिये. इस प्रकार 1935 के भारत सरकार अधिनियम के पारित होने पर क्रांतिकारी गतिविधियों में कुछ ढील आयी और 1939 तक शांति बनी रही. परन्तु जब अंग्रेजी सरकार ने भारतीय जनता की अनुमति के बिना भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में धकेल दिया तो पुनः अवस्था बिगड़ती चली गयी. क्रिप्स मिशन की असफलता तथा कांग्रेस द्वारा ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को पारित करने एवं गांधीजी और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी ने पुनः क्रान्तिकारियों को अपनी गतिविधियाँ आरंभ करने पर बाध्य कर दिया. इस आन्दोलन के मुख्य पात्र सुभाषचन्द्र बोस एवं जय प्रकाश नारायण थे. जयप्रकाश नारायण तथा इनके सहयोगियों ने आंतरिक तोड़-फोड़ की नीति अपनायी तथा सुभाष चन्द्र बोस ने देश के बाहर जाकर जर्मनी तथा जापान की सहायता से भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army or INA) का गठन कर भारत पर आक्रमण करने का फैसला किया.
क्रांतिकारी आन्दोलन की असफलता
क्रान्तिकारी आन्दोलन की असफलता के कारण: क्रांतिकारी आन्दोलन की असफलता के निम्नलिखित मुख्य कारण थे :-
केन्द्रीय संगठन का अभाव
क्रांतिकारियों का कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था, जो विभिन्न प्रांतों में क्रांतिकारी कार्यों का संगठन और समन्वय कर सके. संगठन के अभाव में विभिन्न प्रांतों के क्रांतिकारी नेताओं में परस्पर सहयोग तथा समन्वय नहीं था.
मध्यम वर्ग के शिक्षित लोगों तक ही सीमित
क्रान्तिकारी आन्दोलन लोकप्रिय नहीं बन सका. यह केवल मध्यम वर्ग के शिक्षित नवयुवकों तक ही सीमित रहा.
अंग्रेजी सरकार का दमन चक्र
क्रांतिकारी आन्दोलन की विफलता का मुख्य कारण अंग्रेजी सरकार की दमन नीति थी. सरकार तरह-तरह के कानून बनाकर क्रांतिकारी आन्दोलन को निष्क्रिय करने में सफल रही. अनके लोगों को प्राणदडं, कालापानी, देश निर्वासन और कठोर शारीरिक यातनाएं दी गयीं, जिसने जनता को आतंकित और भयभीत कर दिया.
अस्त्र-शस्त्र का अभाव
यद्यपि क्रांतिकारियों में साहस और उत्साह की कमी नहीं थी, फिर भी उन्होंने जो चोरी-छिपे हथियार इकट्ठा किये वे ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए अपर्याप्त थे.
महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति तथा जनता पर प्रभाव
महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ. गांधीजी ने स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए शान्ति और असहयोग का रास्ता अपनाया जो सत्य और अंहिसा जैसे ऊँचे सिद्धांतों पर आधारित था. ये सिद्धांत भारतीयों के लिए सरलता से ग्राह्य सिद्ध हुए. इसके अतिरिक्त भारतीय जनमानस दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी की सफलता देख चुका था. अतः महात्मा गांधी के आन्दोलन के समक्ष क्रांतिकारी आन्दोलन टिक नहीं सका.
मूल्यांकन
आमतौर पर सोचा जाता है कि आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारी आन्दालेन की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि इन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई. लेकिन यदि सिर्फ सफलता से ही किसी आन्दालेन की भूमिका का निर्धारण हो तो हमें यह खेद के साथ कहना पड़ेगा कि 1920, 1930-34 और 1942 के कांग्रेस के आन्दोलनों में भी जिस उद्देश्य को लेकर आन्दोलन शुरू किये थे, उन उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हुई. अर्थात् जो माँगें गांधीजी ने आन्दोलन शुरू करते समय रखी थी, (जैसे – 1920 में एक वर्ष के अन्दर पूर्ण स्वराज, तथा 1930 में पूर्ण स्वराज एवं 1942 में भारत छोड़ो) वे मानी नहीं गयीं. आन्दोलन का आशय तुरंत उद्देश्य की प्राप्ति न होकर जनता में जागृति, स्वतंत्रता के प्रति कर्तव्य, साम्राज्यवाद पर दबाव डालने या उलटने और उसके लिए सर्वस्व न्योछावर करने की भावना तथा आत्म-त्याग होता है. यदि इसी पहलू को सामने रखकर हम क्रांतिकारियों की भूमिका के बारे में विचार करें तो यह मानना पड़ेगा कि देश के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले, हंसते-हंसते फाँसी पर चढ़ने वाले तथा जेलों में बर्बरतापूर्ण यातनाएं सहने वाले क्रांतिकारियों ने भारत के युवकों में जागृति फैलाने और साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष में जुट जाने के लिए तैयार करने में जो भूमिका निभायी, वह किसी से कम नहीं है. कांग्रेस ने तो सरकार को चिंतातुर बना दिया, पर असली समस्या तो क्रांतिकारियों ने ही खड़ी की. क्रांतिकारियों ने भारत में एक नयी चेतना तो जगायी, मगर एक नये समाज और समाजवाद की रचना का उद्देश्य की तरफ उतना ध्यान नहीं दे पाये, क्योंकि स्वराज्य उनका पहला लक्ष्य था. इसी कारण वे आज राष्ट्रवादियों के साथ याद किये जाते हैं.