भारत में वामपंथी विचारधारा का उद्भव और आन्दोलन

Sansar Lochan#AdhunikIndia

बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद भारत में एक शक्तिशाली वामपक्ष का उदय हुआ. मार्क्सवाद और दूसरे समाजवादी विचार बहुत तेजी से फैले. राजनीतिक दृष्टि से इस शक्ति की अभिव्यक्ति कांग्रेस के अंदर एक वामपंथ के उदय के रूप में हुई, जिसने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की धारा को दलितों – शोषितों की सामाजिक आर्थिक मुक्ति की धारा के नजदीक लाने का कार्य किया. इस नयी प्रवृत्ति के नेता जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस थे. इस वामपंथ ने अपना ध्यान साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि पूंजीपतियों और जमींदारों के आंतरिक वर्गीय शोषण का सवाल भी उठाया. धीरे-धीरे वामपक्ष में दो ताकतवर दल उभरे —भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई) और कांग्रेस समाजवादी पार्टी (सी.एस.पी).

भारत में वामपंथी विचारधारा

भारत में वामपंथी विचारधारा प्रथम, विश्व युद्ध के पश्चात् राजनैतिक तथा आथिर्क परिस्थितियों के कारण उभरी और यह अनिवार्य रूप से राष्ट्रवादी आन्दोलन के साथ संलग्न हो गयी. भारत में वामपंथी आन्दालेन के उदय के प्रमुख कारक निम्न थे –

  1. रूसी क्रान्ति का प्रभाव इसके पीछे मुख्य प्रेरक शक्ति थी. 1917 के 7 नवम्बर को लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी (कम्युनिष्ट पार्टी) ने जार के राजशाही शासन को उखाड़ फेंका और पहले समाजवादी राज्य की स्थापना की घोषणा की. रूस के नये समाजवादी शासकों ने चीन और एशिया के अन्य भागों में अपने उपनिवेशवादी अधिकारों को छोड़ने की घोषणा की. लोगों को प्रेरणा मिली कि यदि आम जनता यानी मजदूर, किसान और बुद्धिजीवी वर्ग संगठित होकर जार के शक्तिशाली साम्राज्य का तख्ता पलट सकते हैं और ऐसी सामाजिक व्यवस्था कायम कर सकते है, जिसमें एक आदमी दूसरे का शोषण नहीं करता, तब ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष करने वाली भारतीय जनता भी ऐसा कर सकती है. इस प्रकार लोग मार्क्स के क्रान्तिकारी विचारों से रोमांचित हो गये.
  2. प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश की आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय हो गयी. दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं के मूल्य बहुत बढ़ गये. व्यापारियों की कालाबाजारी तथा अफसरों की बेईमानियों के कारण देश में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी. इस प्रकार लोगों के सामने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का घिनौना रूप प्रकट हो गया.
  3. गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने वाले बहुत सारे नौजवान इसके नतीजों से खुश नहीं थे और गांधीवादी नीतियों, विचारों और यहाँ तक कि वैकल्पिक स्वराजवादी कार्यक्रमों से भी संतुष्ट नहीं थे. इसलिए मार्गदर्शन के लिए उन लोगों ने अपना रूख समाजवादी विचारों की ओर मोड़ा. शिक्षित मध्यम वर्ग का वह अंग जो अंग्रेजों की उदारवादी नीति में विश्वास खो बैठा था और जिसे बेकारी स्पष्ट सामने दिखती थी, वह भी अब इस ओर खींच गया.
  4. आगे चलकर 1929 की विश्वव्यापी मन्दी ने भी यह स्पष्ट कर दिया कि इस दौड़ में भी समाजवादी देशों में निरंतर प्रगति हो सकती है. उल्लेखनीय है कि रूस इस मन्दी की चपेट से न सिर्फ अलग था, बल्कि उसकी प्रगति दर भी ऊँची थी.
  5. परन्तु इन सबके ऊपर जवाहर लाल नहेरू एसे व्यक्ति थे, जिन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को समाजवादी दृष्टि प्रदान की और 1929 के बाद भारत में वे समाजवाद और समाजवादी विचारों के प्रतीक बन गये और घोषणा की कि यदि आम आदमी को आर्थिक मुक्ति हासिल होती है, तभी राजनैतिक मुक्ति सार्थक हो सकती है. इस प्रकार नेहरू ने युवा राष्ट्रवादियों की एक समूची पीढ़ी को मोड़ा और समाजवादी विचारों को आत्मसात् करने में उनकी मदद की.

साम्यवादी विचार का उद्भव

1920-21 के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन के समय आर्थिक मुद्दों में नेहरू की रुचि बढ़ी. 1922 में जेल में उन्होंने साम्यवादी विचारों का अध्ययन किया. 1927 में ब्रुसेल्स में “उपनिवेशवादी दमन और साम्राज्यवाद’ के विरोध में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में वे समूचे विश्व के साम्यवादियों तथा उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले योद्धाओं के सम्पर्क में आये. उन्होंने अपने विचारों को तार्किक अंजाम देने के लिए सुभाषचन्द्र बोस के साथ सहयोग का हाथ बढ़ाया. 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में नेहरू ने घोषणा की कि, ‘मैं समाजवादी और लोकतंत्रवादी हूँ और राजाओं और राजकुमारों में मेरा विश्वास नहीं है. मेरा उस व्यवस्था में भी विश्वास नहीं है जो उद्योगों में आधुनिक राजाओं को जन्म देते हैं.’ 1936 के लखनऊ कांग्रेस में उन्होंने समाजवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘मुझे पक्का विश्वास हो चला है कि विश्व की और भारत की समस्याओं के समाधान की एकमात्र कुँजी समाजवाद है. मैं जब इस शब्द का इस्तेमाल करता हूँ तो अस्पष्ट मानवतावादी अर्थ में नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और आर्थिक अर्थ में करता हूं, जिसके अंतर्गत काफी व्यापक और क्रान्तिकारी परिवर्तनों की जरूरत होती है.’ लेकिन समाजवाद के प्रति नहेरू की प्रतिबद्धता का एक विशेष ढांचा था, जिसमें राजनीतिक और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को तब तक प्रमुख स्थान दिया गया था जब तक भारत पर विदेशी शक्ति का शासन था. नेहरू ने 1936 में समाजवादियों से कहा था कि उन्हें दो बातों ने प्रभावित किया है. वे हैं राजनीतिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक स्वतंत्रता, जिनका प्रतिनिधित्व क्रमशः कांग्रेस और समाजवाद करता है तथा इन दोनों को मिलाना ही समाजवादियों की सबसे प्रमुख समस्या है. इसलिए नहेरू ने कोई ऐसा सगंठन बनाने का प्रस्ताव नहीं माना जो कांग्रेस से अलग अथवा उससे स्वतंत्र हो. मुख्य काम था कांग्रेस को प्रभावित करना अथवा पूरी तरह से उसका समाजवादी दिशा में रूपातंरण करना और इस लक्ष्य को कांग्रेस के झंडे के नीचे रहकर और किसानों तथा मजदूरों को इस सगंठन में शामिल करके ही सर्वोत्तम रूप से पाया जा सकता था.

समाजवादी और कम्युनिस्ट के दल

वास्तव में नेहरू वामपंथी विचार वाले लोगों को राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से अलग एक भिन्न संप्रदाय बनने देना नहीं चाहते थे. इस तरह बीसवीं सदी के दूसरे दशक में सारे देश में समाजवादियों और कम्युनिस्टों के दल अस्तित्व में आये. बम्बई में श्रीपाद अमृत डांगे ने ‘गांधी और लेनिन’ नाम का पर्चा प्रकाशित किया तथा पहले समाजवादी साप्ताहिक ‘दि सोशलिस्ट’ की शुरुआत की. मुजफ्फर अहमद ने बंगाल में ‘नवयुग’ निकाला और कवि काजी नजरूल इस्लाम की सहायता से ‘बंगाल’ का प्रकाशन किया. पंजाब में गुलाम हुसैन ने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘इन्कलाब’ का प्रकाशन किया. मद्रास में एम. सिंगारवेलु ने ‘लबेर किसान गजट’’ की स्थापना की. इसके अलावा जवाहर लाल नहेरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरे देश का दौरा किया. अपने दौरों में उन्होंने साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और जमींदारी प्रथा की आलोचना की और समाजवादी विचारधारा को अपनाने की शिक्षा दी. भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाले अतिवादी क्रान्तिकारी भी समाजवाद की ओर झुके. इस प्रकार भारत में वामपंथी आन्दोलन की दो मुख्य धाराएं विकसित हुई :-

प्रथम, साम्यवाद (Communism) जो कि अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन के भाग के रूप में उभरा और जिसको कामिन्टर्न, जो कि रूस का अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी संगठन था, नियंत्रित करता था और दूसरा कांग्रेस सोशलिस्ट दल, जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वामपंथी दल था और लोकतांत्रिक समाजवाद को मानता था. ये दोनों ही आन्दोलन भारत में प्रचलित साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं पर अवलम्बित थे.

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