भारत छोड़ो आन्दोलन – भूमिका
भारत के इतिहास में 1942 की अगस्त क्रान्ति (August Revolution) एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है. इस क्रांति का नारा था “अंग्रेजों भारत छोड़ो (Quit India)“ और सचमुच ही एक क्षण तो ऐसा लगने लगा कि अब अंग्रेजों को भारत से जाना ही पड़ेगा. द्वितीय विश्वयुद्ध (Second Word War) में जगह-जगह मित्रराष्ट्रों की पराजय से अंग्रेजों के हौसले पहले से ही चूर हो गए थे और उस पर यह 1942 की क्रांति. ऐसा लगने लगा कि अंग्रेजी साम्राज्य अब टूट कर बिखरने ही वाला है. अंग्रेजों ने भारतीयों से सहायता पाने के लिए यह प्रचार किया कि भारतीय स्वयं ही अपने देश के मालिक हैं और उन्हें आगे बढ़कर अपने देश की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि भारत पर भी जापानी आक्रमण का खतरा बढ़ गया था. 1942 ई. में जब जापान प्रशांत महासागर को पार करता हुआ मलाया और बर्मा तक आ गया तो ब्रिटेन ने भारत के साथ समझौता कर लेने की बात पर विचार किया. अंग्रेजों को डर था कि कहीं जापान भारत पर भी आक्रमण न कर दे.
लेकिन गाँधीजी का विचार था कि अंग्रेजों की उपस्थिति के कारण ही जापान भारत पर आक्रमण करना चाहता है, इसलिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने तथा भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंपने की माँग की. यदि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंपने के लिए तैयार हो जाती तो भारत युद्ध में सहायता दे सकता था.
अंग्रेज इसके लिए तैयार नहीं थे. अतः आन्दोलनकारियों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने की धमकी दी. कई कांग्रेसी नेताओं का विचार था कि जापानी खतरे को देखते हुए इस आन्दोलन का यह सही समय नहीं था. मौलाना आजाद भी गाँधीजी से सहमत नहीं थे. 1942 ई. में वर्धा में कांग्रेस की बैठक हुई और गांधीजी तथा सरदार पटेल के प्रयास से “अहिंसक विद्रोह (Nonviolent protest)” का कार्यक्रम पारित हुआ. पुनः 8 अगस्त, 1942 ई. को अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में बम्बई कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई जिसमें भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई.
गाँधीजी गिरफ्तार
बहुत बड़े पैमाने पर सामूहिक संघर्ष शुरू करने की बात प्रस्ताव में घोषित की गई थी. सरकार ने जन-संघर्ष के शुरू होने की प्रतीक्षा नहीं की. रातों-रात गाँधीजी और देश के अन्य नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया. गाँधीजी को पूना के आगा खां महल में भेज दिया गया. महादेव भाई, कस्तूरबा, श्रीमती नायडू और मीराबेन को भी बंद कर दिया गया. लेकिन नेताओं के जेल चले जाने से भारत चुप नहीं हो गया. “करो या मरो (Do or Die)” का नारा लोगों ने अपना लिया था. हर जगह प्रदर्शन किये जा रहे थे. सारे देश में हिंसक कार्यवाही फूट पड़ी थी. लोगों ने सरकारी इमारतें जला दीं. सारे देश में हड़तालें हो रही थीं और उपद्रव फ़ैल गए थे. वायसराय लिनलिथगो (Viceroy Linlithgow) ने इसका सारा दोष गाँधीजी पर मढ़ दिया. उसने कहा कि गाँधीजी ने हिंसा को निमंत्रण दिया है.
इसी दौरान कस्तूरबा की मौत हो गयी और गाँधीजी को भी मलेरिया हो गया. वह गंभीर रूप से बीमार हो गए. भारतीय जनता ने कहा कि उन्हें तत्काल रिहा कर दिया जाए. अधिकारियों ने यह सोचकर कि वह मृत्यु-शैया पर हैं, उन्हें और उनके साथियों को रिहा कर दिया.
असफल प्रयास
हालाँकि अगस्त आन्दोलन/Quit India Movement सफल नहीं हो सका और भारत को स्वतंत्रता नहीं दिला सका. लेकिन फिर भी भारत के अन्य आन्दोलनों की तुलना में यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हुआ. इस आन्दोलन ने जन-अन्सतोष को चरम बिंदु पर पहुँचा दिया. यह क्रान्ति अत्याचार और दमन के विरुद्ध भारतीय जनता का विद्रोह था जिसकी तुलना हम वास्तिल के पतन (fall of Bastille) या रूस की अक्टूबर क्रान्ति से कर सकते हैं. अब औपनिवेशिक स्वराज्य की बात बिल्कुल ख़त्म हो गई तथा अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना निश्चित हो गया और हमें पाँच वर्षों के अन्दर ही आजादी मिल गई.
अगस्त-आन्दोलन – कारण
अगस्त-आन्दोलन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी. आन्दोलन प्रारम्भ करने के पीछे कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख करना आवश्यक है.
- सर्वप्रथम क्रिप्स योजना से ब्रिटिश सरकार का रवैया स्पष्ट हो गया था. इंग्लैंड भारत में सही ढंग से संवैधानिक गतिरोध को दूर करना नहीं चाहता था. क्रिप्स-प्रस्ताव के माध्यम से सरकार यह सिद्ध करना चाहती थी कि कांग्रेस भारत की आम जनता की प्रतिनिधि संस्था नहीं है. भारत में एकता का अभाव है. अतः सत्ता का हस्तान्तरण संभव नहीं है.
- भारत पर जापानी आक्रमण की आशंका बढ़ गई थी. सिंगापुर, मलाया और बर्मा को छोड़ने के लिए अंग्रेजों को विवश हो जाना पड़ा. बंगाल छोड़ने के पहले सत्ता भारतीयों के हाथ में हस्तांतरित करने के लिए अगस्त-आन्दोलन प्रारम्भ किया गया था.
- बर्मा पर जापानी आक्रमण के समय शरणार्थियों के साथ अंग्रेजी सरकार ने भेदभाव की नीति अपनाई थी. भारतीयों को कष्टदायक स्थिति में रखा जा रहा था और भारतीय सैनिकों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था. भारतीयों के साथ ब्रिटिश सरकार के व्यवहार से क्षुब्ध होकर गाँधी ने अगस्त-आन्दोलन की घोषणा की.
- पूर्वी बंगाल में सरकार ने आतंक का राज्य कायम कर रखा था. सैनिकों को रखने के लिए बलपूर्वक घर खाली करवा लिया गया था. बिना मुआवजा दिए भूमि अर्जित कर ली गई थी. सरकार की तानाशाही के विरोध में आन्दोलन प्रारम्भ करना आवश्यक हो गया था.
- युद्धकाल में भारत की स्थिति संकटपूर्ण बन गई थी. मूल्य में बहुत अधिक वृद्धि हुई. कागजी मुद्रा का प्रचार हुआ. जन-साधारण को जीवनयापन में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था. अतः आर्थिक असंतोष हिंसक क्रान्ति का रूप ले सकता था. ऐसी अवस्था में गांधीजी ने भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा की और भारत को स्वतंत्र बनाने के लिए “करो या मरो” का मन्त्र दिया.
Quit India Movement - In Brief in Hindi
भारत आन्दोलन के बारे में संक्षेप में पढ़ेंक्रिप्स शिष्टमडंल की असफलता से सभी को निराशा हुई. अभी तक कांग्रेस ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया था (सिवाय संविधान सभा की मांग के) जिससे अंग्रेजों को परेशानी हो. इसी बीच मित्र राष्ट्रों की स्थिति और खराब होने लगी. जापान की प्रगति देखकर वे सशंकित थे. इसलिए अंग्रेजों ने भी बंगाल में ‘पीछे हटने की नीति’ का पालन करने की याजेना बना ली. इन सभी कारणों से भारत में आतंक और बेचैनी व्याप्त हो गयी. अतः अब जबकि जापान भारत के द्वार पर खड़ा था, कांग्रेस चुप नहीं रह सकती थी. ‘हरिजन’ में गांधीजी ने लिखा कि “भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति जापानियों को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण है.” इसलिए गांधीजी ने सरकार से भारत छोड़ने और सत्ता भारतीयों को सौंपने की मांग की. कांग्रेस के अनेक नेता गांधी के इस कार्य से प्रसन्न नहीं थे. वे समझते थे कि जिस समय भारत और ब्रिटेन पर विपत्ति के बादल मंडरा रहे थे, उस समय आन्दोलन की बात अव्यावहारिक थी एवं इसकी सफलता संदिग्ध थी. सरदार पटेल और गाँधीजी के प्रयासों से अंततः जुलाई 1942 में वर्धा में कांग्रेस कार्यकारिणी ने गांधी के अहिसंक विद्रोह के कार्यक्रम को स्वीकृति प्रदान कर दी. 8 अगस्त, 1942 को बम्बई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में ‘अगस्त प्रस्ताव’ पेश किया गया. प्रस्ताव में कहा गया कि भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति यथाशीघ्र हो. स्वतत्रंता प्राप्ति के बाद भारत में एक अस्थायी सरकार बनायी जायेगी. भारत अपने सभी साधनों का इस्तमेाल स्वतत्रंता के लिए तथा नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद के आक्रमण के खिलाफ करेगा. इसी अवसर पर गाँधीजी ने देशवासियों से ‘करो या मरो’ का नारा दिया अर्थात् हम भारत को स्वतंत्र करेंगे या इसी प्रयास में मर मिटेंगे.
सरकार पहले से ही कांग्रेस की गतिविधियों पर नजर रखे हुई थी. 9 अगस्त, 1942 में महात्मा गाँधी, वर्किंग कमिटी के सदस्य तथा अन्य अनेक नेता बम्बई तथा देश के अन्य भागों में गिरफ्तार कर लिए गये. अंग्रेजों ने इस कार्य को ‘आपरेशन जीरो ऑवर’ की संज्ञा दी थी. गांधीजी को पूना के आगा खाँ पैलेस में सरोजिनी नायडू के साथ रखा गया. राजेन्द्र प्रसाद पटना में नजरबंद किये गये. जय प्रकाश नारायण को हजारीबाग के केन्द्रीय कारावास में रखा गया. इन घटनाओं ने जनता को क्रोधित कर दिया. सारे नेता जेल में थे, अतः उनको रोकने वाला कोई नहीं था. फलतः गुस्से में जनता ने हिंसा और विरोध का सहारा लिया. जगह-जगह हडत़ाल और प्रदर्शन किये गये. इस आन्दोलन में छात्रों, मजदूरों, किसानों, जनसाधारण सभी ने भाग लिया. सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों ने गुस्से की लहर और भी तीव्र कर दी. फलस्वरूप क्रुद्ध जनता ने कहीं-कहीं अंग्रेजों की हत्या भी कर दी. सरकारी कार्यालयों, रेलवे स्टेशनों, डाक- तार आदि को भारी क्षति पहुंचायी गयी. उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में कई स्थानों पर विद्रोहियों ने अस्थायी नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया. कई देशी रियासतों में भी लोग इस क्रांतिकारी हिंसा से प्रभावित हुए थे. बलिया, (यू. पी.), तामुलक (मिदनापुर बंगाल), सतारा (बम्बई) तथा तालचर (उड़ीसा) में क्रान्तिकारियों ने समानांतर सरकार की स्थापना कर ली थी. तालचर जातीय सरकार ने बहुत दिनों तक विभिन्न विभागों जैसे कानून और व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, डाक विभाग तथा न्यायालयों के साथ कार्य किया.
भारत छोड़ो आन्दोलन में विभिन्न क्रान्तिकारी गतिविधियों के माध्यम से व्यापक जन-प्रतिक्रिया दिखाई दी. श्रमिक वर्ग बम्बई, कानपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर तथा पूना आदि जगहों पर हड़ताल पर चला गया. व्यापक जन प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप पटना का अन्य जगहों से सम्पर्क टूट गया. भूमिगत क्रान्तिकारी गतिविधियों की प्रवृत्ति को जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया तथा अरुणा आसफ अली ने एक नयी दिशा प्रदान की. जय प्रकाश नारायण तथा रामानन्द मिश्र हजारीबाग सेंट्रल जेल भाग गये एवं नेपाल में रहकर भूमिगत आन्दालेन को सगंठित किया. अरुणा आसफ अली बम्बई में सक्रिय रहीं. भूमिगत क्रान्तिकारियों का सबसे अधिक साहसिक कदम था- कांग्रेस रेडियो की स्थापना, जिसका प्रसारण लम्बे समय तक होते रहा. सरकार ने भी अपना दमन चक्र चलाया और लगभग 10,000 व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया. मुस्लिम लीग इस आन्दोलन से अलग रही. जिन्ना ने 23 मार्च, 1943 को ‘पाकिस्तान दिवस’ मनाने का आह्नान किया और समस्त भारत के मुसलमानों से कहा कि पाकिस्तान ही मुसलमानों का राष्ट्रीय उद्देश्य है. जिन्ना ने अंग्रेजों के विरुद्ध ‘बांटो और भागो’ का नारा भी दिया. लीग ने भी इसका समर्थन किया. रूसी प्रभाव में आकर कम्युनिष्ट पार्टी भी आन्दोलन विरोधी बन गयी. उसने अपने आपको आन्दालेन से अलग रखा और सरकार की हिमायती बन गयी.
फलतः पूर्ण समर्थन के अभाव में और सरकारी दमन के कारण 1942 की क्रांति असफल हो गयी. सरकार ने आन्दोलन को बर्बर ढंग से कुचल दिया. इस आन्दोलन का महत्त्व यही है कि इससे ब्रितानी शासकों के दिमाग में यह बात अच्छी तरह आ गयी कि भारत में उनके साम्राज्यवादी शासन के दिन गिने-चुने रह गये हैं. शेष रह गयी स्वतंत्रता अब सौदे की बात नहीं थी, बल्कि अब भविष्य में होने वाला कोई भी समझौता सिर्फ सत्ता हस्तांतरण के तरीके के बारे में होना था. भारत छोड़ो आन्दोलन इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि इसने विदेशों में भारत पक्षीय जनमत को प्रबल बनाया. उदाहरणस्वरूप चीन के प्रधान च्यांग काइ शेक ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को लिखा कि “अंग्रेजों के लिए सबसे श्रेष्ठ नीति यही है कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दे दें.” रूजवेल्ट ने यही बात चर्चिल से कही.
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