पल्लव वंश के नरेश कला प्रेमी थे. उन्होंने 7वीं सदी से 10वीं सदी तक राज किया. उनकी वास्तुकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण कांची तथा महाबलिपुरम में पाए जाते हैं. कुछ उदाहरण तंजौर प्रदेश तथा पुडुकोट्टई में भी मिलते हैं. मंदिर और मूर्तिकला के क्षेत्र में उनकी अपनी एक विशेष देन है. उन्होंने चट्टानों को काटकर और पत्थर ईंट के भी बड़े विशाल तथा सुन्दर मंदिर बनवाये जो आज तक भी विद्यमान हैं और अपनी श्रेष्ठ शैली एवं शिल्पकला के लिए विश्व-विख्यात हैं.
पल्लव कलाकारों ने वास्तुकला को धीरे-धीरे काष्ठकला ओर कन्दरा कला के प्रभाव से मुक्त करना प्रारम्भ किया. इस काल की प्रारम्भिक कृतियों में चाहे उन्हीं प्रणालियों का अवलम्बन किया गया है जिन्हें काष्टकार और कन्दरा-कलाकार अपनाते थे. परन्तु धीरे-धीरे उन प्रणालियों का परित्याग होने लगा.
श्री नीलकंठ शास्त्री ने उनकी वास्तुकला तथा शिल्पकला की कोष्ठता की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, “उनकी वास्तुकला तथा शिल्प- कला दक्षिण भारत की कला के इतिहास का सबसे अधिक गौरवपूर्ण अध्याय निर्मित करती है.”
पल्लव काल में भिन्न-भिन्न शैलियाँ और कला का स्थान
पल्लव काल में भिन्न-भिन्न शैलियों के मन्दिरों का निर्माण हुआ जिन्हें परस्पर पृथक् करने की दृष्टि से चार वर्गों में विभकत किया जा सकता है तथा जिनका नामकरण चार विभिन्न पल्लव नरेशों के नाम पर किया गया है. ये शैलियां हैं—-
महेन्द्रवर्मन प्रथम शैली
इस शैली का विकास 600-640 ई. तक हुआ. इस शैली में मन्दिरों को मंडप कहा गया है क्योंकि इसके अंतर्गत स्तम्भ मंडप बने थे. ये ठोस चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं. ये मंदिर अपनी सादगी से पहचाने जा सकते हैं. इस शैली में बने प्रमुख मंडपों में उन्दवल्लि (गुन्टूर जिला का आनन्तशयन का मंडप तथा भखकोंड़ (उत्तरी अर्काट जिला) के मंडप विशेष उल्लेखनीय हैं .
मामल्ल शैली
मामल्ल शैली को नरसिंहवर्मन (मामल्ल) ने चलाया था. उसने मामल्लपुर (महाबलिपुरम) नगर बसाया था तथा मामल्ल की उपाधि धारण की थी, इसलिए उस द्वारा चलाई शैली मामल्ल शैली कहलाती है. इस शैली के अन्तगंत दो प्रकार के मन्दिर बनाए गए हैं– मंडप तथा रथ. मंडपों की संख्या दस है. इस शैली के मंडप महेन्द्र वर्मन शैली से अधिक विकसित और अलंकृत हैं.
इनमें से विशेष रूप से उल्लेखनीय है बारह मंडप, पंच पांडव तथा महर्षि मंडप. ये अपनी श्रेष्ठ स्थापत्य के लिए भी प्रसिद्ध है. इनमें देवताओं आदि को तथा पशुओं की मूर्तियां सर्वश्रेष्ठ रूपों में बनाई गयी हैं. इसी शैली के दूसरे प्रकार के रथ मन्दिर हैं. ये एक प्रस्तरीय मन्दिर (Monolithic temples) हैं. इन्हें सामान्यतया सप्त पगोड़ा (Seven pogodas) के नाम से जाना जाता है. यद्यपि इनकी संख्या आठ है, ये हैं – (1) द्रौपदी रथ (2) अर्जुन रथ (3) भीम रथ (4) धर्मराज रथ (5) सहदेव रथ (6) गणेश रथ (7) पिडारी रथ तथा (8) वलैयान कुट्टइ रथ.
इन मन्दिरों की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं– बहुत ही अलंकृत मुख्य द्वार, आठ कोण वाले सिंह स्तम्भ तथा अलंकार के लिए दीवारों पर राजा और रानी की मूर्तियां लगाई गई हैं. यद्यपि ये मन्दिर पांडवों के नाम पर बनाए गए हैं लेकिन वास्तव में ये शैव मन्दिर हैं. इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यों से हुआ है. इनमें द्रौपदी रथ एक अलग शैली का है. इन रथों में से कुछ की छत पिरामिड के आकार की है और कुछ के ऊपर शिखर है. ये मन्दिर शिलाखण्डों को काट कर बनाए ग़ए हैं ओर काष्ठ निर्मित रथों की शकल पर बनाए जान पड़ते हैं. यह आश्चर्य की बात है कि इन मन्दिरों के निर्माताओं ने इन्हें अधूरा ही छोड़ दिया था.
राजसिंह शैली
राजसिंह शैली का विकास पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वितीय, जिसने राजसिंह की उपाधि धारण की थी, के काल (680-720 ई०) में विकसित हुई थी. इस शैली के अन्तर्गत गुहा मन्दिरों (Rock-out temples) के स्थान पर पाषाणों तथा ईंटों की सहायता से मन्दिर बनाए गए. इसी शैली के मन्दिरों में सबसे प्रसिद्ध कांची का कैलाश-मन्दिर तथा महाबलिपुरम का समुद्रतट का मन्दिर (शोर टेम्पल) है.
कांची के मन्दिर ईंट और पत्थर से बने हुए हैं. इनके शिखर बहुत ऊंचे ओर मंडप की छत चपटी है. श्री नीलकण्ठ शास्त्री के मतानुसार, “पल्लव शैली की सभी प्रमुख विशेषताएं इस मन्दिर में बड़े ही आकर्षक रूप में संग्रहीत मिलती हैं.”
पल्लव वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएं हैं — सिंह स्तम्भ, चाहर दीवारी, शिखर, मंडप के सुदृढ़ स्तम्भ, भीतर बने छोटे-छोटे कमरे, मूर्तियाँ तथा अन्य उपकरणों से सजावट आदि. ये सभी विशेषताएं कांची के कैलाश मन्दिर में दिखाई देती हैं. इसी शैली (राजसिंह शैली) का सबसे परिपक्व एवं प्रौढ़ उदाहरण बैकुंठपेरुमाल का मन्दिर है. यह कांची के कैलाश मन्दिर से बड़ा है ओर इसके मुख्य मार्ग – मठ द्वार मंडप तथा देवालय पृथक् भवन के रूप में नहीं है बल्कि उनको एक भली-भांति जुड़े हुए ढांचे में एक साथ मिला कर रखा गया है.
अपराजित शैली
अपराजित शैली का प्रारम्भ पल्लव नरेश अपराजित (879- 897 ई०) के काल में हुआ. यह पल्लव काल के अन्तिम चरण की शैली है. तंजौर का राज मन्दिर इसी शैली में बना है. इसके अंतर्गत स्तम्भों के शीर्ष का अधिक विकास हुआ. मन्दिरों के शिखर ऊपर की ओर पतले होते चले गए और मन्दिरों के शिखर की गर्देन पहले की अपेक्षा अधिक स्थुल है. धीरे-घीरे इस शैली का स्थान चोल शैली ने ले लिया. पल्लव कला का प्रभाव दक्षिणी-पूर्वी एशिया के मन्दिरों में भी देखा जा सकता है.
निष्कर्ष
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रायद्वीप के सभी राज्यों में मन्दिर बनाए गए. ये मन्दिर श्रेष्ठ वास्तुकला तथा उन्नत मूर्तिकला के स्पष्ट प्रमाण हैं. लेकिन अभी तक इतिहासकार हमें ठीक-ठीक यह नहीं बता सके हैं कि इन प्राचीन मन्दिरों का रख-रखाव कैसे होता था? आठवीं शताब्दी के बाद मन्दिरों को भूमि-अनुदान देने की प्रथा दक्षिण भारत में आमतौर पर प्रचलित हो गयी और सामान्यतया भूमि अनुदानों को मन्दिरों की दीवारों पर लिख दिया जाता था. परन्तु उससे पहले ऐसा लगता है कि आम लोगों से राजा द्वारा वसूल किए गए करों से ही मन्दिरों का निर्माण तथा रख-रखाव होता था. साधारण लोग मन्दिरों में चढ़ावा भी चढ़ाते थे जिससे मन्दिर के रख-रखाव के लिए बड़ी मदद मिलती होगी .
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