दक्षिण भारत में 300 ई० से 750 ई० तक एक अन्य वंश जिसका उल्लेख मिलता है वह था कदम्ब वंश. कदम्ब वंश के राजाओं ने चौथी शताब्दी ई० में दक्षिणी महाराष्ट्र और आधुनिक गोआ राज्य सहित कोंकण में अपना साम्राज्य स्थापित किया था.
सम्भवतः वे ब्राह्मण थे तथा मानव्य उनका गोत्र था. उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को अपने राज्य में कायम रखा था. अभिलेखों के अनुसार, आरम्भिक पल्लवों से कदम्बों का संघर्ष हुआ. अभिलेखों के आधार पर ही कहा जाता है कि इस राज्य का संस्थापक मयूर शर्मन था.
कहा जाता है कि वह शिक्षा प्राप्ति के लिए कांची में रहता था लेकिन एक बार उसे बड़े अपमान से वहां से निकाल दिया गया. उसने अपने अनादर का बदला लेने के लिए प्रतिज्ञा की तथा जंगलों में शिविर डालकर अपनी शक्ति इकट्ठी करने का प्रयास किया. उसने जंगली कबीलों की सहायता से पल्लव वंश के राजा को पराजित किया. उसने बनवासी को अपनी राजधानी बनाया. यह कर्नाटक के उत्तरी कनारा जिले में स्थिति थी.
मयूरशर्मन के बाद काकुरुध वर्मन इस वंश का एक शक्तिशाली राजा था. उसने राज्य विस्तार कर अपने वंश की गरिमा को बढ़ाया.
इस राज्य का तीसरा प्रसिद्ध शासक जिसके बारे में उल्लेख मिलते हैं वह था रविवर्मा (अथवा रविवर्मन). उसने न केवल पल्लवों से ही नहीं बल्कि गंगों से भी संघर्ष किया. सम्भवतः उसने हल्सी को नई राजधानी बनाया. बादामी के चालुक्यों के उत्थान के कारण पुलकेसिन प्रथम एवं द्वितीय ने कदम्ब राज्य के उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया. इसी तरह गंगों ने उनसे राज्य का दक्षिणी भाग छीन लिया. सम्भवत: इसके बाद उन्होंने-चालुक्यों तथा गंगों के सामंतों के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रखा तथा राष्ट्रकूटों के पतन के बाद दसवीं शताब्दी में इनकी शक्ति का पुनरुद्धार हुआ. कदम्ब वंश से सम्बन्धित विभिन्न शाखाओं ने तेरहवीं शताब्दी में स्थानीय शासकों के रूप में राज्य किया.