लॉर्ड रिपन (1880-1884 ई०) की नीतियाँ एवं सुधार

Dr. SajivaModern History

कम्पनी के शासन समाप्त होने के बाद भारत में जितने भी वायसराय आये, उनमें लॉर्ड रिपन का विशिष्ट स्थान है. वह उदार विचारों का था. वह शान्ति, अहस्तक्षेप तथा स्वायत्त शासन के गुणों में विश्वास रखता था और ग्लैडस्टनयुग का सच्चा उदारपंथी थी.

लॉर्ड विलियम बेन्टिंक की भाँति उसने राजनीतिक और सामाजिक सुधार करने में अधिक अभिरुचि दिखलाई.

यद्यपि अंगरेज इतिहासकारों ने उसकी प्रशंसा नहीं की है, क्योंकि वह भारत का हित चाहनेवाला था और स्वतंत्रता एवं स्वशासन की भावना का पोषक था, परन्तु फिर भी कुछ इतिहासकारों ने उसके शासन को अच्छा माना है. उसके जीवन-गाथाकार लूसियन वुल्फ ने ठीक ही कहा है कि “रिपन का शासनकाल भारत के इतिहास में युग-प्रवर्तक कहा जाता है……. किसी भी अन्य गवर्नर-जनरल ने (डलहौजी से कर्जन तक) इतना कार्य नहीं किया। रिपन का शासनकाल सदैव स्मरणीय रहेगा, किसी विशेष कानून के कारण नहीं, भारत के लोगों के प्रेम पर अधिकार प्राप्त करने के कारण तथा उन भक्तिपूर्ण आशाओं के कारण, जिससे उनका राजनीतिक क्षितिज भर गया.”

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Lord Ripon – Image Source: Wikipedia

आर्थिक सुधार

लॉर्ड रिपन ने लॉर्ड मेयो द्वारा प्रचलित वित्तीय विकेन्द्रीकरण की नीति को जारी रखा और इस दिशा में प्रगति के लिए कुछ और कदम भी उठाए. लॉर्ड रिपन ने प्रान्तीय सरकारों को निश्चित अनुदान देने की प्रणाली को समाप्त कर दिया. उसके स्थान पर उसके एक नवीन योजना बनाई. राजस्व के साधनों को तीन विभागों में बांटा गया – साम्राज्यवादी, प्रान्तीय और वित्त.

  1. साम्राज्यवादी विभाग : चुंगी, डाक-तार, रेल, अफीम, नमक, उपहार, टकसाल, गृह-सरकार, सैनिक आय और भूमिकर से प्राप्त होनेवाली आय केन्द्रीय सरकार को दी गई और केन्द्रीय सरकार का व्यय इसी आय से करने का निश्चय किया गया.
  2. प्रान्तीय विभाग : शिक्षा, पुलिस, पल चिकित्सा विभाग, सड़कों और सामान्य प्रशासन से प्राप्त होने वाली आय प्रान्तीय सरकारों को दे दी गई. प्रान्तीय सरकारों के घाटे को पूरा करने फे लिए केन्द्रीय सरकार ने भूमि-कर में से कुछ प्रतिशत राशि प्रान्तीय सरकारों के लिए निश्चित कर दी.
  3. वित्त विभाग : आवकारी कर (मादक द्रव्यों पर लगने वाला कर), स्टैम्प कर, जंगल विभाग और रजिस्ट्रेशन आदि से प्राप्त होने वाली आय को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकार में आधा-आधा बाँट दिया गया.

1882 ई० के इस वित्तीय प्रस्ताव की पाँच वर्ष के लिए व्यवस्था की गई. प्रान्तीय सरकार के बजटों (आय-व्यय के अनुमानपत्रों) में होने वाले घाटे की पूर्ति केन्द्रीय सरकार को करनी थी तथा उसके लिए उसे भूमि-कर की आय का निश्चित अंश देना होता था. 1882 ई० के प्रस्ताव ने युद्धों तथा अकालों पर होने वाले असाधारण व्यय के सम्बन्ध में भी केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों का आर्थिक सम्बन्ध निश्चित कर दिया. असाधारण एवं विनाशक परिस्थितियों को छोड़कर अन्य किसी भी परिस्थिति में केन्द्रीय सरकार को प्रान्तीय सरकारों से युद्ध के लिए कोई मांग नहीं करनी थी. अकालों का सामना करने के लिए प्रान्तीय सरकारों को आवश्यक सहायता देने का वचन दिया गया. पूर्व प्रचलित प्रणाली की अपेक्षा इस नई व्यवस्था से यह फायदा हुआ कि प्रान्तीय सरकारों ने न केवल, प्रान्तीय राजस्व की प्राप्ति में दिलचस्पी दिखानी आरम्भ कर दी, वरन्‌ अपने-अपने प्रान्तों में केन्द्रीय सरकार के राजस्व की महत्त्वपूर्ण मदों की प्राप्ति में दिलचस्पी लेनी आरम्भ कर दी.”

लॉर्ड रिपन के आने के बीस वर्ष पहले से भारत के सम्मुख यह प्रस्ताव था कि समस्त भारतवर्ष में भूमि-कर को स्थायी आधार पर व्यवस्थित करना चाहिए. लॉर्ड रिपन ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया. 1793 ई० में लॉर्ड कॉर्नवालिस ने बंगाल में स्थायी भूमि-व्यवस्था की थी और भूमि-कर एकत्र करनेवालों को भूमिस्वामी बनाकर कृषकों की उनकी दया पर छोड़ दिया था और भविष्य में उसकी अनर्जित सम्पत्ति पर भी लगने वाले कर के विरुद्ध भी किसी प्रकार की अपील आदि के लिए न्याय के द्वार बन्द कर दिये थे. रिपन ने बंगाल की स्थायी व्यवस्था को भंग करने का प्रयत्न किया और अंगरेजी सरकार के सामने यह प्रस्ताव रखा कि जिन जिलों की पैमाईश हो चुकी है तथा जिनके लिए भूमि-कर की दर निश्चित की जा चुकी है, उनके सम्बन्ध में सरकार कर नहीं बढ़ाएगी, जबतक कि कीमतों में बढ़ोत्तरी न होगी. परन्तु भारत-मंत्री ने इस सुझाव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

स्थानीय स्वशासन- सम्बन्धी सुधार

1882 ई० के प्रस्ताव से ही भारत में स्थानीय स्वराज्य का भी आरम्भ हुआ. लॉर्ड रिपन देश में म्युनिसिपल संस्थाओं को विकसित करना चाहता था, क्योंकि जनता की राजनीतिक शिक्षा का प्रारम्भ वस्तुतः यहीं से होता है.  स्थानीय स्वराज्य का मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक सुधार नहीं था, वरन्‌ लोगों को राजनीतिक क्षेत्र में स्वशासन की शिक्षा देना था. न केवल बड़े-बड़े नगरों और शहरों में ही, वरन्‌ समस्त देश में लोकल बोर्ड (नगरपालिकाएँ) बनाये गये. उनके जिम्मे निश्चित कार्य लगाये गये और उनके लिए फंड निश्चित किये गये. देहातों में डिस्ट्रिक्ट बोर्डों की अधीनता में ताल्लुका अथवा तहसील बोर्ड बनाए गए. नगरपालिकाओं तथा डिस्ट्रक्ट बोर्डों को अपने-अपने सम्बन्धित विषयों तथा क्षेत्रों में यथासम्भव स्वतंत्रता प्रदान की गई. इन नगरपालिकाओं तथा डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के लिए गैर-सरकारी सदस्य चुने जाते थे. गवर्नर-जनरल की काउन्सिल ने इस बात की सिफारिश की कि जहाँ तक हो सके इन लोकल बोर्डों (स्थानीय समितियों) के सदस्य जनता द्वारा ही चुने जाएँ. स्थानीय समितियों की आन्तरिक व्यवस्था में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता था. सरकारी अफसर असाधारण परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप कर सकते थे. हाँ, कुछ मामलों में सरकारी स्वीकृति आवश्यक थी, जैसे ऋण लेने में, स्वीकृत करों के अतिरिक्त अन्य नये कर लगाने में, म्युन्सिपल सम्पत्ति को बेचने आदि में. प्रान्तीय सरकारों को यह अतिरिक्त आदेश दिया गया कि वे अपने राजस्व की पर्याप्त आय स्थानीय समितियों को हस्तान्तरित करें तथा प्रांतीय, स्थानीय तथा नगरपालिकाओं के अधिनियमों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें.

इस प्रस्तावित योजना के अनुसार, अनेक प्रान्तों में स्थानीय स्वराज अधिनियम (Local Self-Government Act) स्वीकृत किये गये ताकि केन्द्रीय सरकार की नीति को लागू किया जा सके. 1884 ई० में मद्रास में लोकल बोर्ड ऐक्ट स्वीकार किया गया जिसके अनुसार गलियों में लैम्प जलाने उन्हें साफ रखने, शिक्षा, पानी पहुँचाने और चिकित्सा सम्बन्धी सहायता आदि कार्य लोकल बोर्डों (स्थानीय समितियों) को सुपुर्द किये गये. उस वर्ष पंजाब में तथा उससे अगले वर्ष (1885 ई०) बंगाल में भी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड तथा म्युन्सिपल कमिटी एक्ट स्वीकृत किये गये.

शिक्षा सम्बन्धी सुधार  

लॉर्ड रिपन ने शिक्षा सम्बन्धी सुधार पर भी ध्यान दिया. उसने 1882 ई० में “हण्टर कमीशन” की नियुक्ति की. इसमें बीस सदस्य थे. इस कमीशन को यह आदेश दिया गया कि वह वर्त्तमान शिक्षा-प्रणाली के दोषों का पता लगाये और उसके भावी सुधार के कार्यक्रम प्रस्तुत करे. “हण्टर कमीशन” ने अपनी रिपोर्ट में यह बतलाया कि देश में प्राइमरी और माध्यमिक स्कोलों की सर्वथा उपेक्षा की गई है, किन्तु विश्वविद्यालयों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया है. रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि उच्चकोटि की शिक्षा का प्रबंध सीधे सरकार के हाथ में नहीं होना चाहिए. प्राइमरी तथा माध्यमिक शिक्षा संस्थाओं के निरीक्षण पर जोर दिया गया. प्रांतीय सरकार की आय का एक निश्चित अंश शिक्षा के लिए अलग रखा जाने लगा. कॉलेजों के प्राध्यापकों को लोगों तथा नागरिकों के कर्तव्यों पर व्याख्यान मालाएं देने को कहा गया. मुसलमानों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भी आदम उठाये गये.

प्रेस की स्वतंत्रता

लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर ऐक्ट के द्वारा प्रेस पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिया था. उसके काल में विचार-अभिव्यक्ति का अपहरण कर लिया गया था. लॉर्ड रिपन विचार-स्वतंत्रता का बड़ा समर्थक था. अतः उसने प्रेस पर लगे इस प्रतिबन्ध को हटा दिया.  इससे भारतीय भाषाओं के समाचारपत्रों स्वतंत्रता प्राप्त हो गई और वे अनेक सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर टीका-टिप्पणी करने लगे. परन्तु हमें यहाँ एल्फिन्स्टन के इस कथन को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “स्वतंत्र प्रेस तथा विदेशी शासन कभी साथ-साथ नहीं चलते.”  भारत में समाचारपत्रों को पूर्ण स्वतंत्रता राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद ही मिली है.

कारखाने के नियम

लॉर्ड रिपन ने भारतीय कारखानों में कार्य करने वाले श्रमजीवियों की दयनीय स्थिति पर भी ध्यान दिया. 1881 ई० में सबसे पहले कारखाना नियम (Factory Act) पारित किया गया. इसके द्वारा यह व्यवस्था की गई कि सात से बारह वर्ष की अवस्था तक के बालकों से प्रतिदिन 9 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाय, खतरनाक मशीनों से सुरक्षा के लिए उनके चारों ओर तार लगा दिया जाय एवं निरीक्षण के लिए इन्सपेक्टर नियुक्त किये जायेँ.

स्वतंत्र व्यापार को प्रोत्साहन

स्वतंत्र व्यापार की स्थापना के लिए नॉर्थब्रुक एवं लिटन ने प्रयास किया था. किन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली थी. लॉर्ड रिपन स्वतंत्र व्यापार का बड़ा समर्थक था. उन दिनों मूल्य पर पाँच प्रतिशत आयात-कर देना पड़ता था। 1882 ई० में रिपन ने इस कर को हटा दिया. नमक पर भी कर कम कर दिया गया. मदिरा, स्पिरिट आदि पर कर नहीं हटाये गये. इन करों के जारी रखने के कारण पूर्ण रूप से लॉर्ड रिपन ने स्वतंत्र व्यापार को बड़ा प्रोत्साहन दिया.

जनगणना का प्रारम्भ

लॉर्ड रिपन ने 1881 ई० में नियमित रूप से जनगणना का प्रारम्भ किया.  जनगणना के रजिस्टर में व्यक्ति की जाति, धर्म, भाषा एवं शिक्षा सम्बन्धी सूचनायें अंकित की जाती थीं. तब से प्रत्येक दस वर्ष पश्चातू भारत में जनगणना की जाती है.

भारत कि प्रथम जनगणना 1872 ई० में लार्ड मेंयो के काल में हुई थी जो भारत के गर्वनर जनरल थे. परन्तु नियमित रूप से प्रत्येक दस वर्ष में जनगणना 1881 ई० से लार्ड रिपन जो भारत के गर्वनर जनरल थे उनके समय से प्रारम्भ हुआ.

इलबर्ट बिल

1883 ई० में यद्यपि है भारतीयों को सेशन जज, मैज़िस्ट्रेट आदि के स्थान प्राप्त हो गये थे, किन्तु उनको यूरोपियन लोगों के मुकदमों के फैसले का अधिकार नहीं था. एक भारतीय आई० सी० एस० के प्रतिनिधित्व करने पर लॉर्ड रिपन की सरकार ने इसपर विचार किया और तत्कालीन कानून मंत्री कोर्टनी इलबर्ट ने 1885 ई० में केन्द्रीय व्यवस्थापिका में एक बिल पेश किया, जिसमें भारतीय मैजिस्ट्रेटों को यूरोपियनों के मुकदमे सुनने का अधिकार दिया गया. सरकारी तथा गैर-सरकारी यूरोपियनों ने इस बिल का तीव्र विरोध किया. उन्होंने जगह-जगह पर संघ बनाये और व्यय के लिए डेढ़ लाख रुपये भी एकत्र किये. लॉर्ड रिपन का तीव्र विरोध हुआ और उसको एक विशेष जहाज में इंगलैण्ड वापस भेजने का भी उपक्रम किया गया. अन्त में सरकार को बाध्य होकर बिल को वापस लेना पड़ा. लेकिन इलबर्ट बिल के वाद-विवाद ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीयता को दृढ़ होने का अच्छा सुयोग प्रदान किया. यूरोपियनों का संगठन एवं उनकी भारत विरोधी मनोवृत्ति देखकर भारत की सुप्त आत्मा जाग उठी. लोगों को अपनी दयनीय स्थिति का भान हुआ और विभिन्‍न दलों के बीच एकता का सूत्रपात हुआ. भारतीयों ने समझा कि बिना संगठित हुए कम नहीं चलेगा.

लॉर्ड रिपन की विदेश नीति

लॉर्ड रिपन ने अफगानिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया. उसने दोस्त मुहम्मद के भतीजे अब्दुरहमान को अफगानिस्तान का अमीर मानकर सन्धि कर ली. अमीर ने भी गंडमक की सन्धि को स्वीकृति प्रदान की. लेकिन शेरअली के पुत्र अयूब खाँ ने नये अमीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया; किन्तु अंगरेजों और अब्दुर्रहमान की संयुक्त सेनाओं ने उसको परास्त कर दिया और अब्दुर्रहमान को सारे अफगानिस्तान का अमीर घोषित कर दिया गया. लॉर्ड रिपन ने संरक्षित राज्यों के प्रति भी उदार नीति अपनाई/ उसने मैसूर के शासक के गोद लिये पुत्र को 1881 ई० में पुनः मैसूर के सिंहासन पर आसीन किया. 1882 ई० में कोल्हापुर के शासक की मृत्यु के उपरान्त उसकी विधवा रानी द्वारा गोद लिए एक बालक को गद्दी पर बैठा दिया गया. इसी प्रकार निजाम के वयस्क हो जाने पर उसे 1884 ई० में हैदराबाद की गद्दी पर बैठाया गया.

रिपन का मूल्यांकन

लॉर्ड रिपन उदार विचारों वाला सुधारवादी वायसराय था. वह भारतीयों का हितचिन्तक था तथा उसका विचार था कि ब्रिटिश सरकार का भी ध्येय भारतीय प्रजा के कष्ट का निवारण करना होना चाहिए. भारत की आय से इंगलैण्ड को लाभ पहुँचाना वह अनुचित समझता था. उसका विचार था कि यदि अंगरेज भारत पर दीर्घकाल तक राज्य करना चाहते हैं तो देश को समृद्ध बनाना चाहिए. भारतीयों की घृणा के स्थान पर प्रेम एवं सहानुभूति प्राप्त करके ही यहाँ पर अधिक समय तक राज्य रख सकना सम्भव हो सकता है. भारतीयों के हितों को ध्यान में रखकर ही उसने वर्नाक्यूलर ऐक्ट को रद्द कराया, स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को जन्म दिया, फैक्ट्री ऐक्ट पास करवाया तथा शिक्षा-सम्बन्धी सुधार किये. इन सुधारों और भारतीयों हितचिन्तक के नाते रिपन को अपने देशवासियों का कोपभाजन बनना पड़ा; परन्तु वह भारतीयों का सच्चा मित्र था तथा भारतीयों ने अपनी पूर्ण कृतज्ञता उसके प्रति प्रकट की.

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