गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. 1884 ई. में बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद वे 18 वर्ष की आयु में अध्यापक बने. आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले फरग्यूसन कॉलेज पूना के अध्यापक एवं प्राचार्य भी नियुक्त हुए. गोपाल कृष्ण गोखले के गुरु महादेव गोविन्द रानाडे थे. रानाडे द्वारा स्थापित दक्कन शिक्षा सभा (Deccan Educational Society) के वे सदस्य थे. दक्कन शिक्षा सभा के साथ उनका सम्बन्ध बीस वर्षों तक रहा और इस सभा के महत्त्वपूर्ण पदों पर उन्हें काम करने का अवसर मिला.
गोपाल कृष्ण गोखले
1888 ई० में गोखले पूना सार्वजनिक सभा के सचिव नियुक्त हुए. इस सभा के प्रमुख पत्र ‘क्वार्टरली रिव्यु’ (Quarterly Review) को गोखले सम्पादन भी करते थे. गोखले ने 1889 ई० में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में पहली बार प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था. 1895 ई० में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सचिव बनाया गया. वे कई वर्षों तक बम्बई कांग्रेस के भी सचिव रहे थे. 1892 ई० के ऐक्ट की खामियों को प्रकाश में लाकर गोखले ने उसे असन्तोषजनक बतलाया था. 1897 ई० में दक्षिण शिक्षा सभा के प्रतिनिधि के रूप में बेल्वी आयोग के समक्ष गवाही देने के लिए श्री वाचा के साथ गोखले को इंगलैंड भेजा गया. गोखले ने भारत सरकार का बजट इम्पीरियल काउन्सिल द्वारा पास करने के बाद लागू करने का सुझाव दिया था. 1899 ई० में गोखले को बम्बई विधान परिषद् का सदस्य बनाया गया. विधान परिषद् में सरकार के भूमि-सम्बन्धी कानून की उन्होंने निन्दा की थी. 1902 ई० में गोखले केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य बने. सरकार की आर्थिक नीति के आलोचक के रूप में गोखले ने ख्याति प्राप्त कर ली. वे मधुर शब्दों में सरकार की कटु आलोचना करते थे. नमक-कर का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि एक नमक की टोकरी पाँच आने में बिकती है जो बीस गुना अधिक है. केन्द्रीय विधान परिषद् में उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने, सरकारी सेवाओं में भारतीयों को समान स्थान दिलाने, सरकारी व्यय में कटौती तथा भारत की अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश नियंत्रण को दूर करने का सुझाव दिया था.
गोपाल कृष्ण गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संयुक्त सचिव थे. 1905 ई० में बनारस अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उन्होंने बंग-विभाजन की आलोचना की. विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को न्यायोचित माना तथा जनता और नौकरशाही के बीच सहयोग की समाप्ति के सम्बन्ध में आशंका व्यक्त की. 1906 ई० में भारतीय जनता की विचारधारा से इंगलैण्ड की जनता को अवगत कराने के लिए उन्हें इंगलैण्ड भेजा गया. गोखले के भाषण का असर प्रभावकारी थे. इंगलैण्ड के पत्र “नेशन” ने यह लिखा था कि “गोखले के समकक्षी इंगलैण्ड में कोई राजनीतिज्ञ नहीं है और वे एस्क्विथ से भी महान हैं.”
गोखले ने 1905 ई० में भारत सेवक समिति (Servants of India Society) की स्थापना की. देशभक्तों की टोली तैयार करने में इस संस्था का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था. आगे चलकर भारत सेवक समिति ने कई नेताओं को पैदा किया जो सच्चे राष्ट्रभक्त थे. उनमें श्रीनिवास शास्त्री, जी० के० देवधर, हृदयनाथ कुँजरू आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. 1909 ई० के मॉर्ले-मिण्टो सुधार को तैयार करने में गोखले की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है. 1910 ई० में वे पुनः इम्पीरियल काउन्सिल के सदस्य निर्वाचित हुए. 1912-15 ई० तक उन्होंने भारतीय लोकसेवा आयोग के सदस्य के रूप में काम किया. 1913 ई० में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा भारत में लागू करने का प्रयास गोखले के द्वारा किया गया था. 1915 ई० में गांधीजी दक्षिण अफ्रिका से लौटने के बाद गोखले के आग्रह पर कांग्रेस में सम्मिलित हुए थे. गोखले ने भारत में सुधार लाने के लिए एक योजना तैयार की थी जिसे “भारत का राजनीतिक वसीयत” कहा जाता है. 19 फरवरी, 1915 ई० को गोखले स्वर्ग सिधार गये. तिलक के अनुसार गोखले भारत का हीरा, महाराष्ट्र के रतन और देशसेवकों के राजा थे. वे कांग्रेस के एक सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्त्ता थे और उनकी राष्ट्रभक्ति अद्वितीय थी.
गोखले के विचार
गोपाल कृष्ण गोखले सच्चे उदारवादी थे. अपने गुरु महादेव गोविन्द रानाडे से उन्होंने मध्य्वृत्ति और तर्कसम्मता की शिक्षा ग्रहण की थी. गोखले के विचार दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता से मिलते-जुलते थे. वे सांविधानिक आन्दोलन के पक्षधर थे और क्रमिक ढंग से संविधान में परिवर्तन लाना चाहते थे. ब्रिटिश न्यायप्रियता में गोखले की भी आस्था थी. राष्ट्र का कल्याण राजनीतिक उत्तेजना के बवण्डरों से नहीं हो सकता है. अतः साधन और साध्य की पवित्रता में गोखले विश्वास करते थे. सम्मभवतः साधन और साध्य की पवित्रता का आदर्श ने ही महात्मा गांधी को गोखले की ओर आकृष्ट किया था और उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना गुरु माना था.
गोखले ब्रिटिश शासन को भारत के लिए कल्याणकारी मानते थे. 1903 ई० में केन्द्रीय विधान परिषद् में उन्होंने इसे स्वीकार किया था कि “भारत का शानदार भविष्य अंगरेजी ताज की अबाध सर्वोच्चता में ही प्राप्त किया जा सकता है.” गोखले स्वराज्य के बदले राजनीतिक अधिकार और सुधार की मांग को प्राथमिकता देना चाहते थे. उनके अनुसार स्वशासन की मांग करने के पहले भारत को उसके लिए पहले अपने को योग्य बनाना पड़ेगा. गोपाल कृष्ण गोखले नरम विचार के थे. तिलक ने उन्हें ‘दुर्बल हृदय उदारवादी’ की संज्ञा दी थी. सरकार की नजर में वे एक छिपे हुए विद्रोही (A seditionist in disguise) थे. यह विरोधाभास इसलिए था कि एक तरफ वे सरकार से घनिष्ठ सम्बन्ध रखना चाहते थे और दूसरी तरफ उसकी कटु आलोचना भी मीठे-मीठे शब्दों में करते थे. गोखले पर लगाया गया दोनों आरोपों का कोई आधार नहीं है. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि “वास्तव में वे न तो दुर्बल हृदय के उदारवादी थी और न छिपे हुए राजद्रोही; वे तो जनता और सरकार के बीच एक सच्चे मध्यस्थ थे.” सरकार को जनता की समस्याओं से परिचित करवाने और सरकार की सुविधाओं की जानकारी जनता को देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले मध्यस्थता का काम करनेवाले सेतु थे. वे सरकार के द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते थे और बुरे कामों की निंदा भी करते थे.
गोखले एक निर्भीक विचारक थे. वे क्रान्तिकारी नेता नहीं थे. वे प्रार्थना-पत्रों एवं सांविधानिक आन्दोलन का रास्ता अपनाकर भारत में सुधार लाना चाहते थे. गोपाल कृष्ण गोखले न तो दुर्बल हृदय के नेता थे और न राजद्रोही थे. पंडित मोतीलाल नेहरू ने उन्हें भारतीय स्वशासन का एक महान देवदूत कहा था. नौकरशाही व्यवस्था पर कठोर प्रहार करने में वे कभी चूकते नहीं थे. वे नौकरशाही के अत्याचार का विरोध करते थे. नौकरशाही को भारत में भारतीयों को इस योग्य बनाने पर बल देते थे कि भविष्य में वे अपना शासन स्वयं चला सकें. बंग-भंग का विरोध, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार, राष्ट्रीय एकता में विश्वास रखनेवाले कमजोर हृदयवाला राष्ट्रनेता नहीं कहा जा सकता है.
गोखले मध्यममार्गी थे. जनता में जागृति लाने तथा उनके अन्दर त्याग और बलिदान की भावना को पैदा कर स्वशासन का लक्ष्य वे पूरा करना चाहते थे. बनारस अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में गोपाल कृष्ण गोखले ने कई महत्त्वपूर्ण बातों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया था. उन्होंने विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या आधा से अधिक बढ़ाने, बजट पास करने का अधिकार, कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृथक करना, जिला स्तर पर परामर्शदाता मण्डल की स्थापना, सैनिक व्यय में कमी, औद्योगिक एवं प्राविधिक शिक्षा का प्रचार, ग्राम कर्जदारी को दूर करना आवश्यक बतलाया था. वे भारत की कृषि का विकास भी चाहते थे. सूती वस्त्र पर से उत्पादन-कर उठाने का सुझाव उन्होंने सरकार को दिया था. गोखले राजनीतिज्ञ, समाजसेवी और कुशल अर्थशास्त्री थे.
गोखले एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे. वे योग्यता प्राप्त कर लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहते थे. महात्मा गांधी ने गोखले के सम्बन्ध में निम्नलिखित उदगार प्रगट किया था, “सर फिरोजशाद् मेहता मुझे हिमालय जैसा अगम्य प्रतीत हुए, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह प्रतीत हुए जिसमें कोई आसानी से गोता नहीं लगा सकता, परन्तु गोखले गंगा के समान थे जो सबको अपने पास बुलाते थे. राजनीतिक क्षेत्र में मेरे हृदय में गोखले के जीवन का जो स्थान था वह अब भी है और वह अनुपम रहा.” भारत के वायसराय कर्जन ने यह कहा था कि “ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यताएँ प्रदान की है और आपने निःसंकोच देशसेवा में लगा दिया है.” श्रीमती सरोजिनी नायडू ने गोखले को “क्रियात्मक और परिश्रमी कार्यकर्ता और एक रहस्यवादी स्व्नद्रष्टा” की संज्ञा दी थी. वस्तुतः गोपाल कृष्ण गोखले एक उच्च कोटि के देशभक्त, कुशल राजनीतिज्ञ और व्यावहारिक अर्थशास्त्री थे.