आज हम ल्हासा की संधि (Treaty of Lhasa) के बारे में जानेंगे. यह कब हुआ, किनके बीच और किन परिस्थतियों (causes) में हुआ, इन सब के विषय में चर्चा करेंगे.
भूमिका
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति उसके वायसराय काल की एक महत्त्वपूर्ण घटना है. गवर्नर जनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स के समय में ब्रिटिश सरकार तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने का यत्न कर रही थी और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अनेक दूत वहाँ भेजे थे पर उनसे कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई थी. 1886 ई. में चीन की सरकार ने ब्रिटिश व्यापार मंडल को तिब्बत आने की आज्ञा दी और कुछ समय के बाद अंग्रेजों को यातुंग (Yatung, Tibet) नामक जगह में व्यापार करने की अनुमति मिल गई. परन्तु तिब्बत के लोग सामान्य रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध थे और इसलिए चीन की सरकार से आज्ञा मिल जाने पर भी ब्रिटिश सरकार को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ.
चीन से स्वतंत्र होने की माँग
जब कर्जन भारत पहुँचा तो उस समय तिब्बत में कुछ नए राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे जिन्होंने वायसराय के ध्यान को भी आकृष्ट किया. तिब्बत के लोगों में चीन से स्वतंत्र होने की दृढ़ भावना उत्पन्न हो रही थी और उन्होंने दलाई लामा को अपना नेता बनाया. दलाई लामा ने स्वयं को शक्तिशाली स्वतंत्र शासक के रूप में प्रमाणित किया. उन्होंने व्यस्क होते ही चीन के रीजेंसी सरकार (regency government) का तख्ता उलट दिया और उसपर शक्तिपूर्ण अधिकार करके दृढ़ धारणा और योग्यता से शासन-भार को संभाल लिया. उन्होंने रूस में जन्मे एक monk, जिनका नाम डोरजीफ (Dorjieff) था, से रूस में रहने वाले बौद्धों से धार्मिक कार्यों के लिए धन इकठ्ठा करने के लिए कहा. डोरजीफ रूसी सम्राट से भी मिला. रूसी समाचारपत्रों ने डोरजीफ के प्रयासों को बहुत महत्त्व दिया और तिब्बत में बढ़ते हुए रूसी प्रभाव का स्वागत किया.
तिब्बत में रूसी प्रभाव
भारत सरकार इन सूचनाओं से चिंतित हो उठी और उसने समझा कि रूसी सरकार डोरजीफ के द्वारा उसके पड़ोसी प्रदेश तिब्बत में राजनीतिक प्रभाव बढ़ा रही है. लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में रूसियों के मामले को गंभीरतापूर्वक लिया क्योंकि इससे एशिया में अंग्रेजों के सम्मान को धक्का लगने की संभावना थी. लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में एक मिशन भेजने के लिए इंग्लैंड की सरकार पर जोर डाला. उसने तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी जोर दिया, पर इंग्लैंड की सरकार मिशन भेजने के पक्ष में नहीं थी. इसपर लॉर्ड कर्जन ने यह सुझाव रखा कि सिक्किम की सीमा से पन्द्रह मील उत्तर में खाम्बाजोंग (Khamba Dzong) नामक स्थान पर तिब्बत और चीन से बातचीत की जाए और दोनों सरकारों पर संधि-दायित्वों को पूरा करने की आवश्यकता पर जोर डाला जाए. यदि दूत वहाँ न पहुँचे तो खुद ब्रिटिश कमिश्नर ही वहाँ पहुँचे. इंग्लैंड सरकार ने अनिच्छा से कर्जन की बात को स्वीकार लिया और कर्नल फ्रांसिस यंगहसबैंड (Francis Younghusband) के नेतृत्व में एक मिशन खाम्बाजोंग भेज दिया.
कर्नल यंगहसबैंड जुलाई, 1903 ई. खाम्बाजोंग पहुँचा, परन्तु तिब्बतियों ने तब तक बातचीत में आने से इनकार कर दिया. फलस्वरूप बातचीत में अवरोध उत्पन्न हो गया. इसी बीच तिब्बतियों ने खाम्बाजोंग के निकट अपनी सेनाओं को एकत्रित करना शुरू कर दिया. कर्जन इस बात को सहन न कर सका और उसने इंग्लैंड सरकार से गयान्त्से तक सेनाओं को भेजने की स्वीकृति माँगी. विदेश मंत्री लॉर्ड लैंसडाउन ने इस शर्त पर स्वीकृति दे दी कि क्षति-पूर्ति हो जाने पर सेनाएँ वापस लौट आएँगी.
ल्हासा की संधि (7 September 1904)
1904 ई. को ब्रिटिश सेनाओं ने गयान्त्से (Gyantse, Tibbat) की ओर बढ़ना आरम्भ किया और महीने के अंतिम दिन गुरु नामक स्थान पर उनकी तिब्बती सेनाओं से पहली टक्कर हुई. तिब्बती सेनाओं के पास न तो अच्छे शस्त्र थे और न ही उनका नेतृत्व अच्छा था, इसलिए थोड़ी ही देर में तिब्बती बुरी तरह हरा दिए गए. उनके सात सौ सैनिक मारे गए, जबकि अंग्रेजी सेना का एक भी सैनिक नहीं मारा. ग्यान्त्से पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. परन्तु इतने पर भी दलाई लामा ने संधि करना स्वीकार नहीं किया. इसपर मंत्रिमंडल ने ल्हासा पर आक्रमण करने की आज्ञा दी. यंगहसबैंड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाएँ तिब्बती सेनाओं को परास्त करती हुई तिब्बतियों के पवित्र और महत्त्वपूर्ण नगर ल्हासा में घुस गई. दलाई लामा नगर छोड़कर भाग निकले. यंगहसबैंड ने दलाई लामा के एजेंट से, जिसको दलाई लामा ने भागने से पहले संधि-विग्रह का अधिकार दे दिया था, संधि की वार्ता शुरू की. लम्बी बातचीत के बाद 7 सितम्बर को संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए. यह संधि ल्हासा की संधि (Treaty of Lhasa) के नाम से प्रसिद्ध है. इस संधि की शर्तों के अनुसार :
Conditions of Lhasa Treaty
- यातुंग, ग्यान्त्से और गुरुतोक में व्यापार केंद्र खोलने का निश्चय हुआ.
- एक ब्रिटिश व्यापार एजेंट को ग्यान्त्से में रखने का निश्चय हुआ जो आवश्यकता पड़ने पर ल्हासा भी जा सकता था.
- 75 लाख रुपये क्षति-पूर्ति के रूप में ब्रिटिश सरकार को दिया जाए जो एक लाख रुपये की वार्षिक किश्तों में भुगतान करना होगा. क्षति-पूर्ति की सारी राशि के भुगतान तक भूटान और सिक्किम के बीच की चुम्बी घाटी (Chumbi Valley) में ब्रिटिश सेनाओं का रहना निश्चित किया गया.
ल्हासा संधि (Lhasa Treaty) की दूसरी शर्तों के अनुसार ब्रिटेन को तिब्बत की विदेश नीति पर प्रभाव रखने का सीधा अधिकार प्राप्त हुआ. इसके अनुसार, तिब्बत का कोई भी भाग किसी भी विदेशी शक्ति कोई नहीं दिया जा सकता था और न ही किसी राष्ट्र का एजेंट तिब्बत में प्रविष्ट हो सकता था. किसी देश अथवा वहाँ के प्रजा को तिब्बत में रेलपथ, सड़कें, टेलीग्राफ और खानों सम्बन्ध में सुविधाएँ नहीं दी जा सकती थीं. निश्चय हुआ कि यदि ऐसी सुविधाएँ किसी भी अन्य देश को दी गईं तो वे शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार को देनी पड़ेंगी.
St John Brodrick द्वारा शर्त्तों में बदलाव
संधि की शर्त्तें कठिन थीं. इसलिए रूस की सरकार ने उनका विरोध किया. भारत मंत्री जॉन ब्राडरिक ( St John Brodrick) ने भी अनुभव किया कि यंग हसबैंड ने अपने अधिकारों का उल्लंघन करते हुए तिब्बत के साथ अधिक सख्ती की है. उसने संधि के दोहराए जाने के लिए आग्रह किया. फलतः संधि की पुनरावृत्ति हुई. नए शर्त्तों के अनुसार –
- क्षति-पूर्ति की राशि 75 लाख से घटाकर 25 लाख कर दी गई.
- निश्चय किया गया कि वार्षिक किश्तों का भुगतान हो जाने के बाद ब्रिटिश सेनाओं को चुम्बी घाटी से हटा लिया जायेगा.
- ग्यान्त्से स्थित ब्रिटिश प्रतिनिधि को ल्हासा जाने की अनुमति रद्द कर दी गई.
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत नीति की आलोचना
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति के विषय में बहुत-सा मतभेद रहा है. लॉर्ड रोजबर्री ने हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति की आलोचना करते हुए उसकी लिटन द्वारा अपनाई गई मूर्खतापूर्ण अफगान नीति से तुलना की. उसका कहना था कि दोनों अवस्थाओं में ब्रिटिश सरकार ने रूस के कल्पित भय से हस्तक्षेप किया और दोनों मामलों में ब्रिटिश सरकार को स्वतंत्र राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई राजनीतिक अथवा वैधानिक अधिकार नहीं था.
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