भारतीय सिविल सेवा अधिनियम, 1861
- 1853 में अंग्रेजी संसद ने भारतीय सिविल सेवा में भर्ती होने हेतु एक प्रतियोगी परीक्षा आरम्भ की थी. इस परीक्षा में भारतीयों को भी बैठने की अनुमति थी, पर अनेक अवरोधों के चलते भारतीय लोगों के लिए यह परीक्षा देना कठिन था. इसके निम्नलिखित कारण थे –
- एक तो परीक्षा भारत में नहीं, लन्दन जाकर देना पड़ता था.
- पाठ्यक्रम भी कुछ ऐसा था जो भारतीयों के समझ के परे था. पाठ्यक्रम में यूनानी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञान पर बल दिया जाता था.
- परीक्षा देने के लिए अधिकतम आयु-सीमा कम थी.
- सिविल सेवा अधिनियम, 1861 के अनुसार हर वर्ष लन्दन में सिविल सेवा परीक्षा आयोजित की जानी थी.
- इसमें निर्धारित किया गया था कोई भी व्यक्ति, चाहे भारतीय हो या यूरोपीय किसी भी कार्यालय के लिए नियुक्त किया जा सकता है बशर्ते वह भारत में न्यूनतम 7 साल तक रहा हो.
- अभ्यर्थी को उस जिले की स्थानीय भाषा में परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी जहाँ पर वह कार्यरत होता था.
- सत्येन्द्र नाथ टैगोर वह पहले भारतीय थे जिन्होंने यह परीक्षा में सफलता प्राप्त की.
भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861
इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे –
- इस अधिनियम के द्वारा उच्च न्यायालय और सदर न्यायालय का विलय किया गया और दोनों को मिलाकर उच्च न्यायालयों की स्थापना की.
- इस अधिनियम के द्वारा इंग्लैंड की महारानी को अधिकार दानपत्रों (लेटर्स पेंटेंट) द्वारा कलकत्ता, मद्रास, बम्बई तथा अन्य भागों में उच्च न्यायालय स्थापित करने का अधिकार दिया गया है.
- भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 में प्रावधान था कि प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश एवं 15 अवर न्यायाधीश होंगे.
- उच्च न्यायालयों को प्रेसीडेंसियों में न्यायव्यवस्था सम्बन्धी वे सभी अधिकार प्राप्त थे जो अधिकार दानपत्रों द्वारा स्वीकृति हुए थे. पूर्व न्यायालयों के अन्य अधिकार भी उच्च न्यायालयों को दिए गये. ये न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों पर अधीक्षण का अधिकार रखते थे.
रॉयल टाइटल अधिनियम, 1876
इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को “भारत की सामग्री” की उपाधि दी गई.
भारत परिषद् अधिनियम, 1861
वर्ष 1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतर सका, जिसके परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद ही 1861 ई. में ब्रिटिश ने “भारत परिषद् अधिनियम” पारित किया. यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें “विभागीय प्रणाली” और “मंत्रिमंडलीय प्रणाली” की नींव रखी गई थी. ऐसा पहली बार हुआ जब भारतीयों का सहयोग लेने की कोशिश की गई.
यह अधिनियम दो कारणों से महत्त्वपूर्ण है. पहला तो यह कि इसने गवर्नर-जनरल को अपनी विस्तारित परिषद् में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामित करके उन्हें विधायी कार्य से सम्बद्ध करने का अधिकार प्रदान किया. दूसरा यह कि इसने गवर्नर-जनरल की परिषद् की विधायी शक्तियों का विकेंद्रीकरण कर दिया, जिससे बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गई.
विशेषताएँ
- वायसराय की परिषद् में सदस्यों की संख्या 4 से 5 कर दी गई. पाँचवाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था.
- कानून निर्माण हेतु वायसराय की परिषद् में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधकार वायसराय को प्रदान किया गया. इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था.
- इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई एवं मद्रास प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान आर दिया गया, पर इनके द्वारा बनाए गये कानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था.
- वायसरायों को प्रान्तों में विधान परिषद् की स्थापना का तथा लेफ्टीनेंट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया.
अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर जाएँ > https://www.sansarlochan.in/indian-council-act-1861-hindi/
भारत परिषद् अधिनियम, 1892
- भारत परिषद् अधिनियम, 1892 को भारतीयों ने कुछ समय तक “लॉर्ड क्राउन अधिनियम” नाम दिया था. 1861 का भारत परिषद् अधिनियम वस्तुतः भारत में शासन प्रणाली में सुधार करने के लिए पास किया गया था. हालाँकि यह एक उत्तरदायी सरकार स्थापित करने में असमर्थ रहा.
- अतः अधिकांश भारतीय नेता 1861 के अधिनियम से असंतुष्ट थे. 1861 के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का विकास हुआ. फलस्वरूप, 1885 में “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस” की स्थापना हुई. इसने संवैधानिक सुधारों की माँग की, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1892 का भारत परिषद् अधिनियम पारित किया.
प्रावधान
- अतिरिक्त सदस्यों की संख्या केन्द्रीय परिषद् में बढ़ाकर कम से कम 10 और अधिकतम 16 कर दी गई. बम्बई तथा मद्रास की कौंसिल ने भी 20 अतिरिक्त उत्तर-पश्चिम प्रांत और बंगाल की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किये गये.
- परिषद् के सदस्यों को कुछ अधिक अधिकार मिले. वार्षिक बजट पर वाद-विवाद और इससे सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते थे परन्तु मत विभाजन का अधिकार नहीं दिया गया था. अतिरिक्त सदस्यों को बजट सम्बंधित विशेष अधिकार था परन्तु वे पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे.
- अतिरिक्त सदस्यों में 2/5 सदस्य गैर-सरकारी होने चाहिए. ये सदस्य भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों, या जातियों, व विशिष्ट हितों के आधार पर नियुक्त किये गये.
- विधान परिषद् के गैर-सरकारी सदस्यों के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की गयी.
इस अधिनियम द्वारा जहाँ एक ओर संसदीय प्रणाली का रास्ता खुला तथा भारतीयों को कौंसिलों में अधिक स्थान मिला, वहीं दूसरी तरफ चुनाव पद्धति और गैर-सदस्यों की संख्या में वृद्धि ने असंतोष की भावना जगा दी.
इस अधिनियम के अधीन निर्वाचन पद्धति
- इस अधिनयम का सबसे जरुरी अंग निर्वाचन पद्धति का आरम्भ करना था. यद्यपि उसमें निर्वाचन शब्द का प्रयोग जानबूझ कर नहीं किया गया था.
- केन्द्रीय विधान मंडल में अधिकारीयों के अतिरिक्त 5 गैर-सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चारों प्रान्तों के प्रांतीय विधान मंडलों के गैर-सरकारी सदस्य तथा कलकत्ता वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे. अन्य पाँच गैर-सरकारी सदस्यों को गवर्नर-जनरल मनोनीत करता था.
- प्रांतीय विधान मंडलों के सदस्यों को, नगरपालिकाओं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय और वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे. पर निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी और इन निर्वाचित सदस्यों को “मनोनीत” की संज्ञा दी जाती थी. ये सभी इकाइयाँ एकत्रित होकर अपने चुने हुए व्यक्तियों की सिफारिशें गवर्नर-जनरल तथा गवर्नरों को भेजती थीं.
- बहुमत द्वारा चुने हुए व्यक्ति निर्वाचित नहीं कहलाते थे अपितु यह कहा जाता था कि उनके नाम “मनोनीत करने के लिए सिफारिश की गई है”.