डचों का भारत में आगमन – Advent of the Dutch in India

Dr. Sajiva#AdhunikIndia

#AdhunikIndia के दूसरी series में आपका स्वागत है. आज हम डचों के भारत आगमन की चर्चा करने वाले हैं क्योंकि पुर्तगालियों के बाद डच ही भारत में आये थे. सभी यूरोपीय व्यापारी कंपनियों का एक ही उद्देश्य व्यापार करके लाभ कमाना था और वे अपने-अपने राजाओं से एक सनद लेकर एक ही मैदान में उतरे. इसलिए उनके बीच जोरों का संघर्ष स्वाभाविक था. इन व्यापारी कंपनियों ने स्वयं को केवल व्यापारिक कार्यों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि ये प्रदेशों पर अधिकार जमाने की योजना बनाने लगे जिससे संघर्ष की कटुता और भी बढ़ गयी. सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, पुर्तगालियों और डचों के बीच, पुर्गालियों और अंग्रेजों के बीच तथा डचों और अंग्रेजों के बीच त्रिदलीय संघर्ष चल रहा था. बाद में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच प्रतिद्वंद्विता प्रारम्भ हुई. विदित हो की हॉलैंड (वर्तमान में नीदरलैंड) के निवासी डच कहलाते हैं.

डचों का आगमन

पहला डच जहाजी बेड़ा, जो Cape of Good Hope अंतरीप पार कर मलय द्वीप समूह पहुँचा, हौलेंड से अप्रैल 1596 ई. में रवाना हुआ और 1597 में लौट गया. इस सफल समुद्र-यात्रा से डचों को बड़ा उत्साह मिला. “हौलेंड और जोलैंड के कई शहरों में भारतीय व्यापार के लिए नई कंपनियाँ स्थापित की गईं परन्तु 20 मार्च, 1602 को सनद के अनुसार इन सारी कंपनियों को मिलाकर “यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कम्पनी ऑफ़ द नीदरलैंड्स” का निर्माण किया गया. इस सनद द्वारा डच स्टेट्स जनरल (व्यवस्थापिका सभा) ने युद्ध चलाने, संधि करने, प्रदेशों पर अधिकार रखने और किलेबंदी करने का अधिकार इस कम्पनी को प्रदान किया और इस प्रकार उसने “यूनाइटेड कंपनी को युद्ध एवं विजय का एक प्रबल अस्त्र बना दिया.”

1605 में डचों ने पुर्तगालियों से अम्बोयना (इंडोनेशिया का एक द्वीप) छीन लिया और धीरे-धीरे स्पाइस द्वीपसमूह में उनका स्थान ले लिया. 1609 में पूर्वी द्वीपसमूह का गवर्नर-जनरल पायटरबोथ को बनाया गया और कौंसिल स्थापित किया गया. उसके उत्तराधिकारी जैन पायटरसुन गोयां ने जकट्रा जीता और इसके भग्नावेश पर 1619 में बटाविया की स्थापना की. 1639 में उन्होंने गोवा को घेर लिया, 1641 में मलक्का पर अधिकार किया और 1658 में अंतिम पुर्तगाली अड्डा लंका पर दखल जमा लिया. 1664 आते-आते मालाबार-तट स्थित पुर्तगाली अपने अधिकांश प्रारम्भिक उपनिवेशों से निकाल-बाहर किये गये. 1739 तक लंका में डचों की नीति थी “लंका के सम्राट” के साथ, जो कैंडी में रहता था, मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखे. पुर्तगाली कुशासन के चलते जो लोग प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए थे, उन्हें डचों ने अनेक सुविधाएँ देकर अपनी तरफ आकर्षित किया. उन्होंने सिंचाई तथा खेती-बाड़ी के लिए दक्षिण भारत से दास मँगवाकर और कपास तथा नील के जैसे नई पैदावार को प्रोत्साहित किया.

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मेरा संक्षिप्त परिचय

मेरा नाम डॉ. सजीव लोचन है. मैंने सिविल सेवा परीक्षा, 1976 में सफलता हासिल की थी. 2011 में झारखंड राज्य से मैं सेवा-निवृत्त हुआ. फिर मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने का सौभाग्य मिला. चूँकि मेरा विषय इतिहास रहा है और इसी विषय से मैंने Ph.D. भी की है तो आप लोगों को इतिहास के शोर्ट नोट्स जो सिविल सेवा में काम आ सकें, उपलब्ध करवाता हूँ. मुझे UPSC के इंटरव्यू बोर्ड में दो बार बाहरी सदस्य के रूप में बुलाया गया है. इसलिए मैं भली-भाँति परिचित हूँ कि इतिहास को लेकर छात्रों की कमजोर कड़ी क्या होती है.

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डचों की फैक्ट्रियाँ

डच सुमात्रा, जावा तथा मलक्का द्वीपसमूह की पैदावार मिर्च और मसाले के कारण ही इन टापुओं में आये थे. इसलिए ये द्वीपसमूह उनकी व्यवस्था का केवल सामरिक तथा शासन-सम्बन्धी केंद्र ही नहीं थे बल्कि उनके आर्थिक केंद्र भी थे. परन्तु कई स्वार्थों के कारण वे भारत भी आये. 1605 ई. में पहली फैक्ट्री मसूलीपट्टनम में स्थापित की गई. यहाँ उन्होंने कोरोमंडल तट पर और गुजरात तथा बंगाल में कई फैक्टरियाँ स्थापित कीं. अन्य कारखाने –

  • पुलीकट (1610)
  • सूरत (1616)
  • चिन्सुरा (1653)
  • कासिमबाजार, पटना, बालासोर, बरानगर, नेगापट्टम (1659)
  • कोचीन (1663)

इन फैक्टरियों ने डच व्यापार को बढ़ाने में खूब सहायता की. 1612 में ही कोरोमंडल तट को “मल्लका तथा निकटवर्ती द्वीपों का बायाँ हाथ बतलाया जाता था, क्योंकि बिना वहाँ के कपास मिले, मलक्का में व्यापार का अंत हो जाता”. (Source: Cambridge History, Page 35). अब वे वास्तव में भारत और पूर्व में अपने समुद्र के पार उपनिवेशों के बीच पक्के माल और पैदावार के वाहक बन गये थे. सूरत के बंदरगाह से उन्हें मध्यभारत और यमुना के आस-पास विस्तारित क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में नील मिलता था. वे बंगाल, गुजरात और कोरोमंडल से बुना हुआ कपड़ा और रेशम, बिहार से शोर, चावल और विशेषतः गंगा नदी के मैदान से अफीम लाते थे. समुद्र में पुर्तगाली शक्ति की क्रमिक अवनति तथा डचों की बढ़ती शक्ति के कारण 17वीं शताब्दी भर पूर्व में मसाले के व्यापार पर डचों का एकाधिकार बना रहा.

डच ने फैक्ट्रियाँ उन्हीं स्थानों में स्थापित किया जहाँ से समुद्र के मार्ग से दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर या फिर यूरोप की तरफ जाने में सुविधा मिले.

जुलाई 1654 में हुई एक संधि के अनुसार पुर्तगाल ने पूर्व में अंग्रेजों के व्यापार करने के अधिकार को स्वीकार किया. ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन से किया गया और चार्ल्स को दहेज़ के रूप में बम्बई का द्वीप दिया गया. अंग्रेजों ने डचों के खिलाफ पुर्तगालियों को भारत में अपने अधिकार बनाए रखने में सहायता देने का वचन दिया. वस्तुतः इसके बाद भारत में पुर्तगाली अंग्रेजों के व्यापारिक प्रतिद्वन्द्वी नहीं रहे. कई पुर्तगाली सामुद्रिक लुटेरे बन गए. व्यापारी का काम छोड़कर बहुत से पुर्तगाली गुलामों को भगाने, लोगों को भगाने और सामुद्रिक लुटेरे का काम करने लगे.

डचों का पतन

17वीं शताब्दी तक पूर्व में अंग्रेजों को डचों की व्यापारिक प्रतिद्वंद्वता का सामना करना पड़ा. डचों को मसाले वाले टापुओं में स्वतंत्र छोड़कर अंग्रेजों ने अपना ध्यान हिन्दुस्तान की ओर चलाया. डच अधिकाधिक मलय द्वीपसमूह को और अंग्रेज़ हिन्दुस्तान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने लगे. पर डचों के बीच भारत में अंग्रेजी व्यापार और प्रभाव के प्रति ईर्ष्या अब भी चल रही थी. 1672-74 में डचों ने सूरत और नए अंग्रेजी उपनिवेश बम्बई के बीच आवागमन रोक दिया और बंगाल की खाड़ी में इंग्लैंड जाने वाले तीन अंग्रेजी जहाज़ों पर अधिकार कर लिया. उधर यूरोप में आंग्ल-डच युद्ध हो रहे थे. वहाँ डचों को करारी हार मिली. इसलिए वह भारत में भी कमजोर पड़ गए.  बेडारा (बंगाल) के युद्ध (also called as Battle of Chinsurah)  में अंग्रेजों ने डचों को बुरी तरह पराजित कर दिया. इससे डचों की प्रभुता की सभी सम्भावनाएँ नष्ट हो गईं और बंगाल में अंग्रेज़ों का कोई यूरोपीय प्रतिस्पर्द्धी शेष नहीं रह गया.

वैसे डच और पुर्तगाली के आगमन का परीक्षा में कोई विशेष महत्त्व नहीं है. असली तो अंग्रेज़ हैं…उनके विषय में आपको संक्षिप्त नोट्स सरल भाषा में दिया जाएगा, तैयार रहें.

आपको इस सीरीज के सभी पोस्ट रोज इस लिंक में एक साथ मिलेंगे >> #AdhunikIndia

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