#AdhunikIndia के तीसरे series में आपका स्वागत है. आज हम फ्रांसीसियों के भारत आगमन की चर्चा करने वाले हैं. व्यापारिक लाभ के लिए फ्रांसीसियों के मैदान में उतरने के पहले तीन सामुद्रिक शक्तियों ने भारत में अपना दबदबा बना रखा था. हेनरी चतुर्थ के शांतिपूर्ण राज्यकाल में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी बनाने की चेष्टाएँ की गईं. 1616 ई. में दो जहाज तैयार किये गए और पूरब की तरफ रवाना किया गया. परन्तु फ्रांसीसी नाविकों की इन चेष्टाओं में डचों ने काफी बाधा पहुँचाई. डच नहीं चाहते थे कि पूर्वीय व्यापार पर उनका एकाधिकार ख़त्म हो जाए. इसके बाद लगभग 20 वर्ष तक फ्रांसीसियों ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया. फ्रांसीसियों ने अपनी सारी शक्ति और साधन मेडागास्कर में अपना उपनिवेश बसाने में लगाया.
फ्रांसीसियों का भारत आगमन
1667 ई. में फ्रांसिस कैरो के नेतृत्व में फ्रांस से नाविकों जा जत्था रवाना हुआ. 1668 ई. में फ्रांसिस कैरो ने सूरत में पहली फ्रांसीसी फैक्ट्री स्थापित की. गोलकुंडा के राजा की सनद के बल पर मछलीपट्टनम में दूसरी फैक्ट्री स्थापित की गई. 1672 में फ्रांसीसियों ने सैन्थोम (मद्रास) पर अधिकार कर लिया. परन्तु कालांतर में गोलकुंडा के राजा और डचों की संयुक्त सेना ने फ्रांसीसियों से सैन्थोम छीन लिया.
इसी बीच एक फ्रांसीसी एडमिरल ने कर्नाटक के गवर्नर शेरखां लोदी से मद्रास से 95 मील दक्षिण, फैक्ट्री के लिए एक स्थान प्राप्त किया. इस तरह पॉण्डिचेरी की नींव डाली गई (1674) और फ्रांसिस मार्टिन ने अपने उत्कट साहस से इसे फ्रांसीसियों का एक मुख्य शासन-केंद्र बना दिया. फ्रांसिस मार्टिन ने पॉण्डिचेरी को एक समृद्ध बंदरगाह शहर में बदल दिया.
दूसरी तरफ बंगाल में फ्रांसीसियों ने चन्द्रनगर में एक फैक्ट्री (1690-92, जिस समय जब अंग्रेजी कंपनी ने कलकत्ते की स्थापना की) की स्थापना की. यह स्थान उन्हें नवाब शाइस्ता खां ने दी थी.
[no_toc]पॉण्डिचेरी – फ्रांसीसियों का अड्डा
यूरोप में डचों (जिनकी सहायता इंग्लैंड कर रहा था) और फ्रांसीसियों के बीच लड़ाई छिड़ने से भारतवर्ष में फ्रांसीसियों की अवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा. 1693 में डचों ने पॉण्डिचेरी पर अधिकार कर लिया. यह छः वर्षों तक उनके अधिकार में रहा और उन्होंने कई प्रकार से उसकी किलेबंदी की; परन्तु 1697 में रिजविक की संधि के अनुसार किलेबंदियों के साथ यह फ्रांसीसियों को लौटा दिया गया. मार्टिन को फिर से इस जगह का सेनापतित्व दिया गया और उसने अपने बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यों से फ्रांसीसियों की पकड़ उस क्षेत्र में और भी मजबूत बनाई. 1706 में उसकी मृत्यु के समय पॉण्डिचेरी में 40,000 निवासी थे जबकि कलकत्ता में उस समय 22 हजार निवासी थे. परन्तु दूसरे स्थानों में फ्रांसीसी प्रभाव घटने लगा और 1720 तक बंटम, सूरत और मछलीपट्टनम की फैक्ट्रियाँ उन्होंने छोड़ दीं.
17वीं शताब्दी का अंत होते-होते तक फ्रांसीसी कंपनी के संसाधन लगभग ख़त्म हो गये. 1719 में एक राजकीय आज्ञा निकली, जिसके अनुसार फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करनेवाली दूसरी फ्रांसीसी कंपनियों, जैसे कैनेडा कम्पनी, मिसीसिपी कम्पनी, कम्पनी ऑफ़ द वेस्ट, सेनगिल कम्पनी, चाइना कम्पनी और कम्पनीज ऑफ़ डोमिनगो एंड गिनी के साथ मिला दिया गया. इस बड़ी कंपनी का नाम पड़ा “कंपनी ऑफ़ द इंडीज“.
डूप्ले
1741 तक फ्रांस का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों की तरह व्यापार करना ही था. 1723 में फ्रांसीसियों ने पोंडिचेरी से 840 किमी. दूर स्थित यनम, मालाबार तट पर कब्ज़ा कर लिया. 1725 में माहे (मालाबार) और 1739 में कराईतल (पोंडिचेरी से 150 किमी. दूर) को हथिया लिया. 1741 में फ़्रांस सरकार की ओर से जोसेफ़ फ़्रैक्वाय डूप्ले भारत आया. डूप्ले के मन में भारत में फ़्रांस का एक साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा थी. उसके समय फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच सैनिक लड़ाइयाँ शुरू हो गईं. इसमें उसे सफलता भी मिली. उसने हैदराबाद और कन्याकुमारी के बीच के क्षेत्र को जीत लिया. परन्तु 1744 में रॉबर्ट क्लाइव के आने से डूप्ले की महत्त्वाकांक्षा धरी की धरी रह गई. एक युद्ध फ्रांसीसियों की अंग्रेजों के हाथों हार हुई जिसके बाद 1754 में डूप्ले को फ़्रांस वापस बुला लिया गया.
डूप्ले के जाने के बाद भी फ्रांसीसी अपना प्रभाव फैलाने में लगे रहे. उन्होंने बंगाल के नवाब (सिराजुद्दौला) के दरबार में अपना सिक्का जमाया और उसे कलकत्ता के फोर्ट विलियम किले को अंग्रेजों से छीनने के लिए उकसाया. इसका परिणाम अंत में प्लासी के युद्ध (1757) के रूप में हुआ. इस युद्ध में नवाब के साथ-साथ फ्रांस की सेनाएँ भी पराजित हुईं.
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