अकबर के काल में वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कला

Sansar LochanCulture

अकबर के काल में मुगलों द्वारा लाई गई तुर्की-ईरानी संस्कृति तथा मुगलों से पूर्व विद्यमान भारतीय संस्कृति का बड़ी तेजी से समन्वय हुआ. इस काल में भारत के सांस्कृतिक विकास में विभिन्न भागों, जातियों तथा मतों के लोगों ने विभिन्न प्रकार से योगदान दिया था. अगर यह कहा जाए कि अकबर के काल में सांस्कृतिक विकास सही अर्थों में राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में हुआ, तो अनुचित नहीं होगा. प्रसिद्ध कला पारखी फर्ग्युसन अकबर कालीन कला के विषय में लिखये हुए उसके द्वारा सांस्कृतिक समन्वय के लिए किये गये प्रयत्नों की ओर अति सुन्दर ढंग से संकेत करता है – “अकबर के काल में सभी कृतियों में तुर्की-ईरानी और भारतीय शैलियों का सामंजस्य हुआ.” आज इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में यह समन्वय अकबर के युग में कहाँ तक दृष्टिगोचर होता है. चलिए पढ़ते हैं कि अकबर के युग में वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कला का क्या स्थान रहा.

वास्तुकला के क्षेत्र में

अकबर के युग में वास्तुकला ने तीव्रता से प्रगति की क्योंकि उसे भवन बनवाने की बड़ी लालसा रहती थी. इतिहासकार अबुल फजल ने ठीक ही लिखा है—“शहंशाह (अकबर ) भव्य भवनों की योजनाएं बनाते और अपने मस्तिष्क और हृदय की रचना को पाषाण तथा मिट्टी के वस्त्र पहनाते हैं.” अकबर ने बाबर तथा हुमायूं द्वारा स्थापित ईरानी कला शैली को जारी रखा और इसके अतिरिक्त भारतीय कला शैली को अपने भवनों में पर्याप्त स्थान दिया. इसीलिए उसकी इमारतों में भारतीय और ईरानी दोनों कला शैलियों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है. अकबर युग की बनी इमारतों में जहां ईरानी और तुर्की कला के कई चिह्न दिखाई देते हैं, जैसे डाटदार छतें, गोल गुम्बद, (उल्टी कटोरी के आकार वाला), लम्बे स्तम्भ, अर्द्ध वृत्ताकार (Semi-circle) मीनार, अनेक दरवाजे तथा जालीदार खिड़कियाँ तो साथ ही भारतीय स्थापत्य कला की भी कई विशेषताएं दिखाई देती हैं जैसे समतल छत (Flat roofs), सजावटी तोड़े (ornamental brackets), सजावटी स्तम्भ (जिसका निचला भाग चोकोर तथा ऊपरी भाग गोल होता है), सजावट का भारतीय ढंग, (जिसे भारतीय स्थापत्य कला की जान कहा जाता है), नुकीले गुम्बद तथा इमारतों के चारों ओर बड़े-बड़े छज्जे. इस तरह का ईरानी और भारतीय कला का सुन्दर समन्वय हमें उसके द्वारा बनवाई अनेक इमारतों में जैसे आगरा के लाल किले में, जहांगीरी महल में, इलाहाबाद तथा लाहौर के किलों में, तथा इसी तरह अन्य इमारतों में भी दिखाई देता है. अकबर द्वारा बनवाई नवीन राजधानी फतेहपुर सीकरी की लगभग सभी इमारतों में हिन्दू और मुस्लिम कला समन्वय पूर्ण रूप से दिखाई देता है.

चित्रकला के क्षेत्र में

हम जानते हैं कि इस्लाम के अनुयायियों के लिए कुरान में चित्रकारी करना निषेध है. वास्तुकला की भांति चित्रकला के क्षेत्र में भी अकबर ने सुन्दर सांस्कृतिक समन्वय किया. उसके दरबार में अनेक महान् चित्रकार थे, लेकिन उनमें से लगभग 17 चित्रकार बहुत ही श्रेष्ठ तथा अग्रणी थे. उनमें से 13 चित्रकार हिन्दू थे . एक विद्वान इतिहासकार ने अकबरकालीन चित्रकला की विशेषताओं के बारे में लिखा है– ‘फारसी शैली के पेड़-पोधे तथा पत्तियों को चित्रकार धरातल के रूप में प्रयुक्त करता था तथा चित्र में भारतीय कला के अनुरूप व्यक्ति के हाव-भाव उसकी मुद्रा तथा गुणों आदि का दिग्दर्शन किया जाता था .” अकबर के युग में ईरानी और भारतीय चित्रकला एक-दूसरे के समीप आई ही नहीं बल्कि उनका इतना सुन्दर समन्वय हुआ कि कुछ समय बाद दोनों एक हो गईं . चित्रकला का विदेशीपन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा और अन्त में ये बिल्कुल भारतीय हो गयीं. इस तरह का समन्वय देखने के लिए अकबर के युग में बने अनेक चित्रों में देखा जा सकता है.

संगीत कला के क्षेत्र में

इस्लामी नियम संगीत की मनाही करते हैं. लेकिन अधिकांश मुगल सम्राटों ने संगीत कला को राज्याश्रय देकर प्रोत्साहित किया. बाबर एवं हुमायूं को संगीत कला से बहुत प्रेम था. अकबर ने इस कला में विशेष रुचि ली. उसके युग में दक्षिणी और हिन्दुस्तानी संगीत एक-दूसरे के समीप आ गये. उसके दरबार में अनेक हिन्दू और ईरानी संगीतकार थे. इन सबमें प्रसिद्ध ग्वालियर का तानसेन था जिसकी प्रशंसा करते हुए इतिहासकार अबुलफजल लिखता है, ‘भारत में उसके समान एक भी गायक सहस्रों वर्षों में नहीं हुआ.” तानसेन के अतिरिक्त उसके दरबार में 36 उच्चकोटि के अन्य संगीतकार थे. इस काल के गायकों ने संगीत से सम्बन्धित संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया. हिन्दू और मुसलमानों के दीर्घ सहवास तथा विचारों के विस्तृत आदान-प्रदान से संगीत कला की अभूतपूर्व प्रगति हुई और तराना, ठुमरी, गजल, कव्वाली इत्यादि नई संगीत-पद्धतियाँ आम जनों को सुनने को मिली .

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