डॉ. अम्बेडकर की जीवनी, विचार और रचनाएँ

Sansar LochanBiography, Modern History

आज हम डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जयंती, 2021 (birth anniversary of Baba Saheb) के अवसर पर उनकी जीवनी, विचार और रचनाओं के बारे में जानेंगे. चलिए पढ़ते हैं – Ambedkar Biography को हिंदी में. आप चाहें तो इसका PDF भी डाउनलोड कर सकते हैं.

Biography of B.R. Ambedkar

दलितों के मसीहा, सामाजिक समानता के लिए संघर्षशील, समाज सुधारक एवं भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्यप्रदेश में इंदौर के पास महू छावनी में हुआ. इनके बचपन का नाम भीम सकपाल था. हाईस्कूल पास करने के बाद बड़ौदा के महाराज की सहायता से उच्च शिक्षा प्राप्त की एवं गायकवाड़ छात्रवृत्ति पर ही कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला एवं कोलंबिया विश्वविद्यालय से ही पी.एच.डी. की उपाधि ग्रहण की. वह भारत के पहले अछूत थे जो पढ़ने के लिए विदेश गये थे.

dr ambedkar

अम्बेडकर के विषय में महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • अम्बेडकर ने 1920 में “मूकनायक” (साप्ताहिक) एवं 1927 में बहिष्कृत भारत (मासिक) पत्र का प्रकाशन किया.
  • अगस्त 1936 में “इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी” की स्थापना की जो दलित वर्ग, मजदूर व किसानों की समस्याओं से सम्बंधित थी.
  • इसी संस्था का नाम 1942 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ कर दिया गया.
  • अंग्रेजों द्वारा आयोजित तीनों गोलमेज सम्मेलन में अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि के रूप में अम्बेडकर ने भाग लिया.
  • स्वतंत्र भारत के केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अम्बेडकर प्रथम विधि मंत्री नियुक्त किये गये. 5 फरवरी 1951 को संसद में अम्बेडकर ने “हिन्दू कोड बिल” पेश किया जिसके असफल हो जाने पर मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया.
  • 1955 में उन्होंने भारतीय बौद्ध धर्म सभा कि स्थापना की तथा नागपुर में 5 लाख व्यक्तियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया. इनका प्रसिद्ध कथन था कि “मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ हूँ लेकिन मैं मरूँगा बौद्ध धर्म में”.
  • 1956 में इनकी मृत्यु हो गयी.

डॉ. अम्बेडकर की प्रमुख रचनाएँ

  1. Who are the Shudra?
  2. Annihilation of caste
  3. Pakistan or Partition to India
  4. State and minorities
  5. Thus spoke Ambedkar

भीमराव के सामाजिक विचार

सामाजिक क्षेत्र में अम्बेडकर को महान समाज सुधारक माना जा सकता है. इन्होंने दलितों पिछड़ों अस्पृश्यों के विरुद्ध हो रहे अन्याय का सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक धरातल पर भी विरोध किया. आन्दोलनों के माध्यम से शोषित वर्ग में आत्मबल तथा चेतना जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया. इन्होने प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विरोध किया एवं चार वर्ण व्यवस्था के नियम को पूर्णतया अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक, अन्यायपूर्ण व गरिमाहीन माना.

अम्बेडकर के अनुसार अस्पृश्यता की जड़ें वर्णव्वयस्था में है. अतः समाज के उत्थान के लिए अस्पृश्यता का निवारण अति आवश्यक माना.

अम्बेडकर जाति व्यवस्था के भी तीव्र विरोधी थे तथा कहा कि जातीय व्यवस्था में सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए कोई स्थान नहीं है एवं हिन्दू समाज की अनेक विकृतियों और अन्यायों के लिए जाती व्यवस्था उत्तरदायी है.

भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के विकास के लिए अंतर्जातीय विवाह, दलितों की शिक्षा, संघर्ष और संगठन पर बल व्यवस्थापिका कार्यपालिका तथा राजकीय सेवाओं में उनके पर्याप्त प्रतिनिधित्व का समर्थन किया.

नारी गरिमा के भी वे समर्थक थे. धर्म परिवर्तन को भी भीमराव अम्बेडकर अनुसूचित नहीं मानते थे. इन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर आक्रमण किया तथा शूद्रों को निम्न स्थान दिए जाने के आधार पर भी विरोध किया.

शुद्रों की उत्पत्ति

अपनी रचना – “शुद्र कौन थे” में विचार दिए. अम्बेडकर ने शुद्रों को कोई पृथक वर्ण नहीं अपितु क्षत्रिय वर्ण का ही भाग माना. इनके अनुसार शुद्र अनार्य नहीं थे अपितु क्षत्रिय थे तथा उनका ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ. उसके बाद ब्राह्मणों ने उनका उपनयन संस्कार बंद कर दिया था.

अछूतों का उद्धार

अम्बेडकर ने अपनी कृति “एनी-हिलेषण ऑफ़ कॉस्ट” में दलित वर्गों के उत्थान के उपाय बताये हैं. इनका कहना था कि उच्च जातियों के संत/समाज सुधारक दलित वर्गों की समस्याओं से सहानुभूति तो रखते हैं, परन्तु कोई ठोस योगदान नहीं कर पाए हैं. इन्होंने यह भी कहा है कि आत्म सुधार के द्वारा दलित वर्ग का उत्थान किया जा सकता है अर्थात् तथाकथित अछूत ही अछूतों को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं. इसी संदर्भ में भीमराव अम्बेडकर ने दलितों को इसकी दशा सुधार के लिए इन्हें मदिरापान, गोभक्षण छोड़ने तथा शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान देकर संगठित, जागरूक एवं शिक्षित होने की आवश्यकता पर बल दिया.

अम्बेडकर का कहना था कि दलितों में योग्यता की कमी नहीं है. यह सामान्य और तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके शहरों में जाकर नए व्यवसाय अपना सकते हैं जिससे यह परम्परागत स्थिति से जुड़े पूर्वाग्रह से कुछ सीमा तक मुक्त हो सकते हैं.

इन्होने शासन व्यवस्था एवं संस्थाओं में दलितों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर बल दिया क्योंकि इससे दलितों को शिकायत निवारण अवसर प्राप्त होगा. अम्बेडकर ने दलितों को धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म स्वीकार करने का सुझाव दिया एवं भारत के औद्योगीकरण को दलितों के उद्धार के लिए एक प्रभावशाली उपाय माना.

गाँधी Vs अम्बेडकर

व्यवहारिक स्तर पर भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म के भीतर सवर्ण हिन्दुओं और निम्न जातियों के बीच समानता का आन्दोलन चलाया तथा इसके लिए सम्मिलित प्रतिभोज तथा पूजा पर्व का सहारा लिया. इनका गाँधी से दलितों के उद्धार के संदर्भ में विचार अलग है. जहाँ गाँधी जी यह मानते थे कि सवर्णों के हृदय परिवर्तन से छुआ-छूत मिटाया जा सकता है अर्थात् महात्मा गाँधी जाति प्रथा समाप्त करने के समर्थक थे जबकि वर्ण व्यवस्था से उनका कोई विरोध नहीं था. वहीँ अम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता की जड़ें वर्ण व्यवस्था में निहित हैं, अतः अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए वर्ण व्यवस्था का अंत जरूरी है क्योंकि वर्ण व्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है. उसे समूल नष्ट कर देना ही उपयुक्त है. अतः दलितों का उद्धार तभी होगा जब अधिकारों की रक्षा, शिकायत निवारण व्यवस्था तथा राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथों में आ जाए.

पंचायती राज के सम्बन्ध में अम्बेडकर के विचार गाँधी जी से भिन्न थे. गाँधी जी का मानना था कि पंचायती राज के माध्यम से सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा जिससे गाँव को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होगी तथा स्वच्छ प्रशासन स्थापित होगा. जबकि अम्बेडकर का मानना था कि देश की एकता और अखंडता के लिए विकेंद्रीकरण के बजाय सत्ता का केंद्रीकरण आवश्यक है. इन्होंने कहा कि गाँव को शासन की इकाई बना देने से व्यक्ति का अस्तित्व दब जाएगा तथा वह केवल स्थानीय हित की सोच रखेगा एवं गाँव सम्प्रदायवाद के अड्डे के रूप में विकसित होगा. अतः “ग्राम प्रशासन” का पुनः उत्थान विनाशकारी साबित होगा.

अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म में दलितोद्धार की संभावनाएँ वास्तविकता के धरातल पर धूमिल देखकर अपने अनुयायियों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी एवं अंतिम दिनों स्वयं उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया.

राजनीतिक विचार

राजनीतिक क्षेत्र में भीमराव अम्बेडकर व्यक्ति के अधिकार और स्वतंत्रता के पक्षधर थे. यह राज्य के उदारवादी स्वरूप के पक्षधर थे. यह राज्य के उदारवादी स्वरूप और संसदीय शासन पद्धति का समर्थक होने के साथ ही कल्याणकारी राज्य के पक्षधर थे. अम्बेडकर शासन की शक्तियों के पृथक्करण में विश्वास करते थे एवं लोकतंत्र को श्रेष्ठ शासन व्यवस्था मानते थे.

लोकतंत्र संबंधी विचार

  • भीमराव अम्बेडकर के अनुसार लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली ही नहीं है अपितु लोगों के मिलजुल कर रहने का एक तरीका भी है. इनके अनुसार लोकतंत्र में स्वतंत्र चर्चा के माध्यम से सार्वजनिक निर्णय लिए जाते हैं. डॉ. अम्बेडकर के अनुसार राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र का होना एक पूर्व शर्त है. इनके अनुसार स्वतंत्र शासन तथा लोकतंत्र तब वास्तविक होते हैं जब सीमित शासन का सिद्धांत लागू हो. इस संदर्भ में उन्होंने संवैधानिक लोकतंत्र का समर्थन किया. इन्होने लोकतंत्र की कुछ विशेषताएँ भी बताई हैं जिसमें –
  1. लोकतंत्र वंशानुगत नहीं, निर्वाचित होना चाहिए.
  2. निर्वाचितों को जनसाधारण का विश्वास व उसका नवीकरण प्राप्त होना जरुरी है.
  3. लोकतंत्र में कोई इकलौता व्यक्ति सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता.
  4. राजनीतिक लोकतंत्र के पहले सामाजिक, आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना आवश्यक है.

आर्थिक विचार

डॉ. अम्बेडकर ने भारी उद्योगों का समर्थन किया तथा आर्थिक शोषण को समाप्त करने के संदर्भ में मूल उद्योगों का प्रबंध राज्य के हाथ में सौंपने का समर्थन किया. यह मिश्रित अर्थव्यवस्था के समर्थक थे. इनका प्रस्ताव था कि कृषि राज्य का उद्योग बने अर्थात् कृषि के क्षेत्र मालिकों, कास्तकारों आदि को मुआवजा देकर राज्य भूमि का अधिग्रहण करें और उस पर सामूहिक खेती कराएँ. इस प्रकार भीमराव ने सहकारी कृषि का समर्थन किया.

अंबेडकर की संक्षिप्त जीवनी

  • भीमराव अंबेडकर प्रसिद्ध विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे. उन्हें संविधान निर्माण में उनकी अहम भूमिका और स्वतंत्र भारत में आरक्षण के जरिये दलितों, आदिवासियों को सामाजिक, राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए याद किया जाता है. विपरीत राजनीतिक विचारधारा के होते हुए भी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर ही जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में कानून मंत्री का पद दिया.
  • अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू, मध्यप्रदेश (तत्कालीन बंबई प्रान्त) में हुआ. बचपन से उन्हें अभावों और सामाजिक छुआछूत का सामना करना पड़ा. लेकिन इन सब चुनौतियों के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर कोलंबिया विश्विद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. सक्षम बनने के बाद उन्होंने दलितों के उत्थान को अपना लक्ष्य बनाया.
  • वे हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों, छुआछूत से इस क़दर नाराज़ थे कि उन्होंने कहा था कि “मैं पैदा हिंदू के रुप में जरूर हुआ हूँ लेकिन हिन्दू रहकर मरूंगा नही.” इसी के चलते उन्होंने वर्ष 1956 में बौद्ध धर्म अपना लिया.
  • 6 दिसंबर 1956 को इस महापुरुष का देहांत हो गया.

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