अंग्रेजों का बंगाल पर पूर्ण अधिकार – Step by Step Story

Sansar Lochan#AdhunikIndia

#AdhunikIndia की चौथी series में आपका स्वागत है. यह पोस्ट कुछ बड़ा होने वाला है. क्योंकि यहाँ बात होने जा रही है अंग्रेजों की. अंग्रेज़ भारत में मात्र व्यापार के लिए नहीं आये थे. उनकी मंशा कुछ और थी. पिछले पोस्ट में हमने पढ़ा कि किस प्रकार फ्रांसीसी डूप्ले को असफलता का मुँह देखना पड़ा और उसे फ्रांस वापस बुला लिया गया. यदि आपने हमारा पिछला पोस्ट नहीं पढ़ा है तो नीचे क्लिक कर पढ़ लें.

वैसे डूप्ले की सभी योजनाएँ साहसपूर्ण थीं और यदि वह सफल हो जाता तो भारत में अंग्रेजों का स्थान फ्रांसीसियों को मिला होता. डूप्ले के विरोधी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि वह प्रतिभाशाली पुरुष था. फ्रांसीसियों की शक्ति को जिस प्रकार उसने बढ़ाया और अंग्रेज लोग उससे जितने भयभीत हो गये थे, उससे ही हम उसकी राजनीतिक प्रतिभा का अंदाज़ लगा सकते हैं.

मैंने पिछले पोस्ट के अंत में ही कह दिया था कि – “डूप्ले के जाने के बाद भी फ्रांसीसी अपना प्रभाव फैलाने में लगे रहे.”

डूप्ले के जाने के बाद का भारत

चार वर्ष की शांति के बाद भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच लड़ाई शरू हो गई. इसका कारण यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध का शुरू होना था. फ्रांसीसियों के लिए यह बड़ा अच्छा अवसर था क्योंकि अंग्रेज़ लोग उस समय बंगाल में बड़े संकट में पड़ गये थे और क्लाइव उनकी रक्षा के लिए अपनी विजयी सेना को लेकर वहाँ चला गया था. एक फ्रांसीसी सेनापति का नाम लैली (Lally) था. जब तक लैली इस मौके का फायदा उठाता तब तक बंगाल में अंग्रेजों की स्थिति काफी सुधर गई थी. प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों को जीत प्राप्त हो चुकी थी. (प्लासी के बारे में नीचे पढेंगे विस्तार से…)

अंग्रेजों की अपेक्षा फ्रांसीसियों का जहाजी बड़ा अधिक शक्तिशाली था तो भी वह शत्रु के सामने ठहर नहीं सका. 1760 ई. में वाडवाश की लड़ाई में सर आयरकट (Sir Eyre Coote) ने लैली को हरा दिया. दूसरे वर्ष पौण्डिचेरी भी अंग्रेजों के हाथ आ गया. लैली कैद करके इंग्लैंड भेज दिया गया. वहाँ वह छोड़ दिया गया और उसे वापस फ़्रांस जाने की आज्ञा दी गई.

1760 ई. में पेरिस की संधि से सप्तवर्षीय युद्ध का अंत हो गया. संधि की शर्तों के अनुसार फ्रांसीसियों की शक्ति बहुत कम हो गयी. उनकी सैनिकों की संख्या नियत कर दी गई. उन्हें बंगाल में जाने का अधिकार नहीं रहा. केवल व्यापारी की हैसियत से वे उस सूबे में जा सकते थे. हैदराबाद में फ्रांसीसियों का प्रभाव मिट गया. उत्तरी सरकार के जिले अंग्रेजों के हाथ आ गए. 1765 ई. में मुग़ल-सम्राट से फरमान प्राप्त कर उन्होंने इस अधिकार को कानूनी दृष्टि से और भी मजबूत बना लिया.

अंग्रेजों की सफलता का कारण

राजनीतिक युद्ध में अंग्रेजों की सफलता के कई कारण थे. फ्रांसीसी कम्पनी की अपेक्षा अंग्रेज़ी कम्पनी की आर्थिक और व्यापारिक स्थिति बहुत अच्छी थी. फ्रांसीसी कम्पनी राज्य की कम्पनी थी. उसके मालिक उसके कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेते थे. अंग्रेजी कम्पनी का प्रबंध बहुत अच्छा था. सरकार को उसने बहुत-सा कर्ज दिया था. उधर फ्रांस का राजा यूरोप के युद्धों पर अधिक ध्यान देता था. अपने उपनिवेशों तथा व्यापारिक हितों पर उसका कम ध्यान था. युद्ध के समय में भी अंग्रेज़ लोग व्यापार पर पूरा ध्यान देते थे. उन्होंने बंगाल को जीतकर अपनी सम्पत्ति और भी बढ़ा ली थी.

फ्रांसीसी लोग व्यापार की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते थे. वे उन लड़ाइयों में बहुत-सा धन नष्ट कर देते थे, जिनसे उनको कुछ लाभ नहीं होता था. युद्ध की दृष्टि से जहाँ अंग्रेजों के पास क्लाइव और लॉरेंस की भाँति योग्य एवं कार्यशील व्यक्ति थे, वहीं फ्रांसीसी अफसर आपस में ही लड़ते रहते थे. वे एकमत होकर काम करना नहीं जानते थे.

बंगाल को जीत लेने से अंग्रेजों को युद्ध करने का एक अच्छा आधार मिल गया. फ्रांसीसियों का अड्डा मॉरिशस भारत से बहुत दूर था. फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेजों की स्थिति एक और बात में अधिक दृढ थी. समुद्र पर उनकी प्रभुता स्थापित थी. जब तक समुद्र पर उनका अधिकार कायम था, तब तक और कोई देश भारत में विजय नहीं प्राप्त कर सकता था.

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मेरा संक्षिप्त परिचय

मेरा नाम डॉ. सजीव लोचन है. मैंने सिविल सेवा परीक्षा, 1976 में सफलता हासिल की थी. 2011 में झारखंड राज्य से मैं सेवा-निवृत्त हुआ. फिर मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने का सौभाग्य मिला. चूँकि मेरा विषय इतिहास रहा है और इसी विषय से मैंने Ph.D. भी की है तो आप लोगों को इतिहास के शोर्ट नोट्स जो सिविल सेवा में काम आ सकें, उपलब्ध करवाता हूँ. मुझे UPSC के इंटरव्यू बोर्ड में दो बार बाहरी सदस्य के रूप में बुलाया गया है. इसलिए मैं भली-भाँति परिचित हूँ कि इतिहास को लेकर छात्रों की कमजोर कड़ी क्या होती है.[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row][vc_row][vc_column][vc_column_text]


बंगाल में नवाबों का पतन और उसके बाद की दशा

अलीवर्दी खां

जिस समय अंग्रेज़ और फ्रांसीसी, अपनी प्रभुता के लिए, दक्षिण में लड़ रहे थे उस समय बंगाल में बड़ा राज्य-विप्लव हो रहा था. नवाबी का पतन हो रहा था और अंग्रेज़ अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे. बंगाल का सूबा मुग़ल साम्राज्य का एक भाग था. मुग़ल सम्राट ही सूबेदार की नियुक्ति करते थे. 1701 ई. में मुर्शिद कुली खां बंगाल का दीवान था. वह अंग्रेजों को देखकर जलता था. अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को सुरक्षित बनाने के लिए, 1717 ई. में दिल्ली के सम्राट से एक नया फरमान हासिल कर लिया. 1741 ई. में अलीवर्दी खां बंगाल का सूबेदार हो गया. वह एक योग्य शासक था. औरंगजेब से एक फरमान हासिल कर अंग्रेजों ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम नाम का किला बनवा लिया था. कलकत्ता एक बड़ा नगर हो गया था. अलीवर्दी खां समझदार इंसान था. उसे अंग्रेजों की नीयत पर संदेह हो गया. वह कहा करता था, “तुम लोग व्यापारी हो, तुम्हें किलों से क्या काम? जब तुम मेरे संरक्षण में हो ही तो तुम्हें शत्रु से बचने के लिए ये सब करने की क्या जरुरत है?”

वह जानता था कि ये लोग किसी समय खतरनाक हो सकते हैं. वह अंग्रेजों की उपमा शहद की मक्खियों के छत्तों से देता था और कहता था कि “तुम उनसे शहद निकाल सकते हो परन्तु यदि उनके छत्तों को छेड़ोगे तो मक्खियाँ काटकर तुम्हारी जान ले लेंगी.” अलीवर्दी खां 1756 में मर गया और उसका पोता मिर्जा मुहम्मद – जो इतिहास में सिराजुद्दौला के नाम से प्रसिद्ध है – गद्दी पर बैठा. उस समय वह मात्र 23 साल का था.

सिराजुद्दौला

नए नवाब को शुरू से ही अंग्रेजों पर अविश्वास था. नवाब का खयाल था कि अंग्रेजों को बंगाल से बाहर निकाल देना ही उसके हित के लिए आवश्यक है. प्रांत की राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के कारण अंग्रेज़ का रुख खराब हो गया था. हिन्दू, विशेषकर सेठ लोग, नवाब से अंसतुष्ट थे. उसके दुर्व्यवहार से तंग आकर उन्होंने अंग्रेज़ व्यापारियों का साथ दिया और इस बात की कोशिश की कि सिराजुद्दौला से नवाबी छीन ली जाए.

ब्लैक होल – काल कोठरी की घटना

अंग्रेजों के लगातार उद्दंडतापूर्वक व्यवहार पर नवाब को क्रोध आने लगा. उसने कासिमबाजार की कोठी पर अधिकार करके कलकत्ते पर धावा बोल दिया. गवर्नर, सेनापति तथा और बहुत-से अंग्रेज़ भाग निकले. किले में कुछ सैनिक ही रह गये. हॉलवेल (Holwell) नाम का एक रिटायर्ड सर्जन सेनानायक चुना गया. उसने दो दिन तक किले की रक्षा की किन्तु अंत में किला नवाब को सौंप दिया. कहा जाता है कि नवाब के सिपाहियों ने 146 अँगरेज़ कैदियों को एक छोटी-सी कोठारी में बंद कर दिया था. जून का महिना था. गर्मी से तड़प-तड़प कर बहुत-से कैदी रात में मर गये. दूसरे दिन सबेरे जब वह कोठारी खोली गई तो उसमें केवल 23 अँगरेज़ जीते निकले.

इस बात पर यूरोपीय लेखक भी मानते हैं कि नवाब को इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी. कुछ विद्वानों का कहना है कि ब्लैक होल की घटना कपोल-कल्पित है. ब्लैक होल की घटना का वर्णन हॉलवेल ने इस उद्देश्य से बहुत नमक-मिर्च मिलाकर किया है कि अंग्रेज़ उत्तेजित होकर नवाब से बदला लेने का प्रयत्न करें.

बंगाल में क्लाइव

जब ब्लैक होल का समाचार मद्रास पहुँचा तब गवर्नर ने तुरंत क्लाइव और वाटसन की अध्यक्षता में एक सेना भेजी. उस सेना में 900 गोर और 1,500 हिन्दुस्तानी सिपाही थे. बंगाल पहुँचते ही उन्होंने कलकत्ता वापस ले लिया. इसके बाद वे हुगली की ओर रवाना हुए. नवाब की सेना के साथ उनकी मुठभेड़ हुई लेकिन हार-जीत का फैसला होने के पहले ही एक संधि हो गई. इस संधि के शर्तों के अनुसार कम्पनी ने सब अधिकार वापस ले लिए. क्लाइव ने बड़ी समझदारी और सावधानी से काम किया. फ्रांसीसियों के भय से उसने कालकोठारी की घटना के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा. वह जानता था कि फ्रांसीसी लोग नवाब के साथ संधि करने के लिए तैयार हैं. इसलिए नवाब को वह अपनी ओर से असंतुष्ट करना नहीं चाहता था.

नवाब के विरुद्ध षड्यंत्र

नवाबी को नष्ट करने का निश्चय क्लाइव ने पहले ही कर लिया था. वह इसके लिए एक अच्छे अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था. सिराजुद्दौला के विरुद्ध उसके बड़े-बड़े अफसरों ने मिलकर एक षड्यंत्र रचा. नवाब की फ़ौज में बख्शी मीर जाफर भी उसमें शामिल था. वह अलीवर्दी खां का बहनोई था.

क्लाइव ने सिराजुद्दौला के पास एक पत्र लिखा. इस पत्र में उस पर फ्रांसीसियों के साथ लिखा-पढ़ी करने और संधि की शर्तों को भंग करने का दोष लगाया गया. जब उसे नवाब से कोई उत्तर न मिला तब वह प्लासी की ओर रवाना हुआ. यह स्थान मुर्शिदाबाद के दक्षिण 23 मील की दूरी पर था. सिराजुद्दौला वहाँ पहले ही से 50 हजार आदमी इकट्ठे कर चुका था. 23 जनवरी को, दोपहर के समय, प्लासी की प्रसिद्ध लड़ाई हुई. प्लासी के युद्ध के विषय में पहले ही लिखा जा चुका है -> प्लासी का युद्ध

प्लासी के युद्ध में नवाब के सेना के पैर उखड़ गये और वह मैदान छोड़कर भाग निकली. सिराजुद्दौला कैद कर लिया गया और मीर जाफर के बेटे मीरन ने उसे मार डाला. मीर जाफर अब बंगाल का नवाब हो गया.

प्लासी के यद्ध का महत्त्व

युद्ध कला की दृष्टि से प्लासी की लड़ाई का विशेष महत्त्व नहीं है. यह कहना ठीक नहीं है कि अंग्रेजों की विजय का कारण उनका सामाजिक संगठन था. उनकी सफलता का मुख्य कारण उनकी चालाकी और नवाब के अफसरों का विश्वासघात था. अंग्रेजों ने ही पहले संधि की शर्तों को तोड़ा और उन्होंने नवाब को पदच्युत करने के लिए छिपकर षडयंत्र किया.

राजनीतिक दृष्टि से युद्ध के परिणाम महत्त्वपूर्ण थे. इस युद्ध के बाद अंग्रेज़ बंगाल के मालिक बन गये. सारे सूबे की सम्पत्ति उनके हाथ आ गई. नवाब उनके हाथों में कठपुतली बन गया. नई-नई माँगे पेश कर वे उसे तंग करने लगे. बंगाल के धन की सहायता से ही दक्षिणी भारत में फ्रांसीसियों के विरुद्ध अंग्रेजों को सफलता मिली.

नवाब मीरजाफर

मीरजाफर बंगाल का नवाब हो गया. पर वह अंग्रेजों की कठपुतली बन कर रह गया. राज्य की असली शक्ति क्लाइव के हाथ में थी. 1759 ई. में अवध के नवाब वजीर की मदद से शाहजादा अलीगौहर ने बंगाल और बिहार पर चढ़ाई की. अलीगौहर मुग़ल-सम्राट का लड़का था, जो बाद में शाहआलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध हुआ. उसने अपनी सेना के साथ पटना को घेर लिया. फिर क्या था? एक छोटी-सी सेना लेकर क्लाइव पटना की ओर रवाना हुआ. क्लाइव के आने का सुनकर ही शाहआलम अवध को वापस लौट गया. मीरजाफर क्लाइव से बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उसने उसे एक जागीर दे दी.

पर इतना मीठापन कब तक चलता? क्लाइव मीरजाफर को नीचा दिखाने का कोई कसर नहीं छोड़ता. मीरजाफर, अंग्रेजों से तंग आकर, डच लोगों के साथ लिखा-पढ़ी शुरू कर दी. डचों ने उसकी सहायता देने का वचन दिया. जब यह खबर क्लाइव तक पहुँची, उसने अपनी सब सेनाओं को इकठ्ठा कर नवम्बर, 1759 में डचों पर ही हमला बोल कर उन्हें हरा दिया. डच लोगों ने अपनी हार और गलती मान ली और हरजाना भी दिया. अंग्रेजों का विरोध करने के लिए अब पूर्व में कोई यूरोपीय शक्ति बाकी नहीं रह गई. 1760 ई. में अस्वस्थ होकर क्लाइव इंग्लैंड लौट गया.

इधर मीरजाफर के चारों ओर कठिनाइयाँ खड़ी हो गई थी. शासन-प्रबंध का कार्य भी वह ठीक से नहीं कर पा रहा था. अंग्रेज़ लोग भी बिना जिम्मेदारी के अपने अधिकार का उपभोग करते थे और मीरजाफर के मार्ग में रोड़े अटकाते थे. नवाब की आमदनी बहुत कम हो गई थी. उसका खजाना खाली हो गया. कंपनी के अफसरों को भी वह किसी तरह भारी रकम नहीं दे सकता था. उसकी ऐसी दशा देखकर बंगाल की कौंसिल ने उसे गद्दी से उतार दिया और उसके दामाद मीरकासिम को नवाब बना दिया.

मीरकासिम और अंग्रेज़

मीरकासिम बड़ा योग्य तथा अनुभवी शासक था. वह बंगाल की दशा से भली-भाँति परिचित था. बिगड़ी हुई दशा को सुधारने की उसने भरपूर चेष्टा की. उसने अपनी सेना में विदेशों के सैनिक भर्ती किये. समरू (Sombre or Sumroo) नामक एक जर्मन को उसने अपना सेनापति बनाया और मुर्शिदाबाद से अपनी राजधानी हटाकार मुँगेर ले गया. उसने अंग्रेजों के चंगुल से छुटकारा पाने की कोशिश की. मीरजाफर की तरह मीरकासिम को भी यह मालूम हो गया था कि अंग्रेज़ अफसरों की रुपये की माँग को पूरा करना कठिन है. देश के भीतर व्यापार के प्रश्न पर उसके और अंग्रेजों के बीच झगड़ा हो गया. मुग़ल बादशाहों के फरमानों से कंपनी को बिना महसूल (tax) दिए व्यापार करने का अधिकार मिला था. अंग्रेज़ लोग बिना कोई टैक्स दिए नमक, सुपारी और तम्बाकू का व्यापार करते थे. इसका नतीजा यह हुआ कि नवाब की आय धीरे-धीरे कम होती गई और उसकी प्रजा को अंग्रेजों के एकाधिकार के कारण हानि उठानी पड़ी. मीरकासिम ने अंग्रेजों के एकाधिकार को छीनना चाहा जिससे युद्ध छिड़ गया. मीरकासिम हार गया. उसे गद्दी से उतारकर मीरजाफर को एक बार फिर नवाब बनाया गया.

मीरकासिम ने पटका के अंग्रेजों को मार डालने की धमकी दी. समरु ने आज्ञा पाकर 200 अंग्रेजों के साथ कोठी के अध्यक्ष एलिस को कैद कर लिया और सबको मार डाला. यह घटना “पटना का हत्याकांड” (Massacre of Patna) के नाम से प्रसिद्ध है.

बक्सर का युद्ध

मीरकासिम ने मुगल-सम्राट तथा अवध के नवाब वजीर के साथ मेल करके अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने की तैयारी की. उनकी सब सेना में मिलाकर चालीस हजार से साठ हजार तक सैनिक थे. वे सब बक्सर पहुँचे. 23 अक्टूबर, 1764 ई. को जब लड़ाई हुई तो वे हार गए. अंग्रेजों की सेना में कुल 7,072 सिपाही (जिनमें से 857 गोर थे) और 20 तोपें थीं. मीरकासिम बड़ी वीरता के साथ लड़ा परन्तु हार गया. उसकी पराजय का प्रधान कारण यह था कि मुग़ल-सम्राट तथा अवध के नवाब ने दिल खोलकर उसकी सहायता नहीं की. शाहआलम अंग्रेजों की शरण में आ गया. मीरकासिम और नवाब वजीर लड़ाई के मैदान से भाग निकले.

बक्सर के युद्ध ने प्लासी के काम को पूरा कर दिया. इस विजय ने वास्तव में भारत में अंग्रेजों की शक्ति को जमा दिया. अंग्रेजों की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई, विशेषतः इसलिए कि मुग़ल-सम्राट और उसके वजीर भी उनसे हार गए. मीरजाफर फिर नवाब हो गया. परन्तु 1765 ई. में उसकी मृत्यु हो गई. उसके बाद उसका बेटा नजमुद्दौला गद्दी पर बैठा. वह अंग्रेजों के हाथ में कठपुतली की तरह नाचता था और उसके राज्य में अंग्रेजों ने पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया.

1764 में कम्पनी की स्थिति

कंपनी के नौकर बिल्कुल आचरण-भ्रष्ट हो रहे थे. वे अब भी निजी व्यापार करते और भेंट लेते थे. कंपनी के हित-अहित की उन्हें कुछ भी परवाह नहीं थी. वे अपनी इच्छा के अनुसार नवाबों की गद्दी पर बिठाते और उतारते थे. वे ऐसा युद्ध आरम्भ कर देते थे जिससे कंपनी को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती थी. ऐसी दशा में कंपनी के संचालकों ने क्लाइव को बंगाल का गवर्नर और प्रधान सेनापति बनाकर फिर दूसरी बार भारत भेजा. वह अबकी बार यह निश्चय करके आया कि कम्पनी के नौकरी और गुमाश्तों की सब बुराइयाँ दूर करेगा. 1765 ई. में वह हिन्दुस्तान आ पहुँचा.

अगले पोस्ट में हम लोग पढेंगे कि क्लाइव ने अपनी दूसरी बार के शासन (1765-67) में क्या-क्या काम किये? उसने क्या-क्या शासन-सुधार किये? उसका चरित्र कैसा था आदि आदि…

आपको इस सीरीज के सभी पोस्ट इस लिंक में एक साथ मिलेंगे >> #AdhunikIndia[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]

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