ए.ओ. ह्यूम – कांग्रेस के जनक

Sansar LochanModern History

एलेन ओक्टेवियन ह्यूम कांग्रेस के प्रमुख संस्थापक थे. गांधीजी ने ए.ओ. ह्यूम को कांग्रेस के जनक की संज्ञा दी है.

ए.ओ. ह्यूम

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ए.ओ. ह्यूम स्कॉटलैण्डवासी थे. वे भारतीय लोकसेवा के सदस्य थे. 1870 ई० से 1879 ई० तक भारत सरकार के सचिव के पद पर काम करने के बाद 1880 ई० में उन्होंने सेवा से अवकाश ग्रहण किया था. ह्यूम ने पिपुल्स फ्रेंड (People’s Friend) नामक एक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया जिसमें भारतीय समस्याओं को उजागर किया जाता था. ह्यूम सुधार लाने के उद्देश्य से एक राष्ट्रव्यापी संस्था की स्थापना करना चाहते थे. तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन से ह्यूम ने राजनीतिक संस्था की स्थापना के सम्बन्ध में बातचीत की और पुनः भारत के अनेक प्रान्तों की यात्रा कर नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया. ह्यूम के विचार से डफरिन भी सहमत थे. अखिल भारतीय संस्था की स्थापना के लिए ह्यूम ने एक राष्ट्रीय सम्मेलन 1883 ई० में बुलाया था और उसी वर्ष मार्च महीने में कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम से एक पत्र प्रकाशित किया. ह्यूम के पत्र में स्नातकों को राष्ट्रसेवा के लिए आगे आने का आमंत्रण दिया गया था.

1884 ई० में ह्यूम के प्रयास से इंडियन नेशनल यूनियन” नामक संस्था की स्थापना की गयी. भारतीय नेताओं और अधिकारियों से विचार-विमर्श कर ए.ओ. ह्यूम इंगलैण्ड गये और वहाँ राजनीतिक संगठन की रूपरेखा के सम्बन्ध में बातें कीं. प्रारम्भ में संगठन की चर्चा गोपनीय ढंग से की गयी थी किन्तु इंगलैण्ड से लौटने के बाद ह्यूम ने इंडियन नेशनल यूनियन का नाम बदलकर “इंडियन नेशनल कांग्रेस कर दिया.

इंडियन नेशनल कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना में होनेवाला था. प्लेग की बीमारी के कारण प्रथम इंडियन नेशनल कांग्रेस की वार्षिक सभा 28 दिसम्बर, 1885 ई० को श्री उमेशचन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई के तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में ए.ओ. ह्यूम की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी. ह्यूम अवकाश प्राप्त अधिकारी थे. अतः यह कहा जाता है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति असन्तोष की जो आग सुलग रही थी, उसे शान्त करने तथा ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गयी थी. साम्राज्य के पक्ष को प्रधान महत्त्व देने तथा राष्ट्रीय पक्ष को गौण रखने का भी आरोप ह्यूम पर लगाया जाता है. भारत की राजनीतिक स्थिति 1857 ई० के बाद डांवाडोल थी. किसी राजनीतिक संस्था की स्थापना कर सरकार के विरोध में काम करने की स्थिति भारत में उस समय नहीं थी. ऐसी अवस्था में ह्यूम और विलियम वैंडरवर्न जैसे अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सरकार को प्रकोप से बचाया जा सकता था. अवकाश ग्रहण करने के बाद भी ह्यूम भारत में ही रहे. बाईस वर्षों तक वे कांग्रेस के साथ रहे और स्थापनाकाल से लेकर कई वर्षों तक इंडियन नेशनल कांग्रेस के सचिव भी रहे.

ए.ओ. ह्यूम को भारतीय प्रशासन में अनेक त्रुटियाँ नजर आ रही थीं. ऐसी अवस्था में ह्यूम ने वैधानिक मार्ग अपनाकर शासन कि त्रुटियों को दूर करने की कोशिश की थी. वस्तुतः ह्यूम के हृदय में एक ओर ब्रिटिश सरकार के प्रति मोह था तो दूसरी ओर भारत के प्रति भी वे कल्याणकारी भाव रखते थे.

ह्यूम के सम्बन्ध में लाला लाजपत राय का यह वक्तव्य उल्लेखनीय है कि “ह्यूम स्वतंत्रता के पुजारी थे और उनका हृदय भारत की निर्धनता और दुर्दशा पर रोता था. वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि कोई भी शासन चाहे देशी हो या विदेशी, बिना किसी दबाव के जनता की मांगों की पूर्ति नहीं करता है.”’

ह्यूम ब्रिटिश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति के आलोचक भी थे. सरकार ने कांग्रेस द्वारा पारित प्रस्तावों के अनुकूल जब सुधार लाने के सम्बन्ध में असहमति प्रकट की तो 1888 ई० के कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर ह्यूम ने सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने का आह्वान किया था. स्वयं ए.ओ. ह्यूम के शब्दों में, “हमारे शिक्षित भारतीयों ने अलग-अलग रूप से, हमारे अखबारों ने विस्तार से और हमारी राष्ट्रीय महासभा के सभी प्रतिनिधियों ने एक स्वर से सरकार को समझाने की चेष्टा की है, किन्तु सरकार ने, जैसा कि प्रत्येक निरंकुश सरकार का रवैया होता है, नहीं समझा है. इसलिए अब हमारा कर्त्तव्य है कि देश में अलख जगायें जिससे कि प्रत्येक भारतीय जिसने भारत माता की छाती का दूध पिया है, हमारा साथी, सहयोगी, सहायक बन जाय और आवश्यकता पड़े तो काब्डेन तथा उसके बहादुर साथियों की तरह स्वतंत्रता, न्याय एवं अपने अधिकारों के लिए, जो संघर्ष हम प्रारम्भ करने जा रहे हैं, उसका वह सैनिक बन जाय.”

1913 ई० गोपालकृष्ण गोखले ने लन्दन में “ह्यूम स्मारक सभा” में यह कहा था कि “कोई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था. यह बात भुला भी दी जाय कि इतने बड़े कार्य के लिए ए.ओ. ह्यूम जैसा प्रभावशाली व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, किसी भारतीय का यदि ऐसा व्यक्तित्व होता भी और वह इस आन्दोलन को चलाने के तक आगे आ जाता, तो सरकार उसे ऐसी संस्था नहीं बनाने देती. राजनीतिक आन्दोलन उन दिनों में ऐसी संशय की दृष्टि से देखे जाते थे कि कांग्रेस के दमन के लिए अवश्य कोई उपाय ढूँढ़ निकालती.”

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