असम समझौता क्या है? क्यों चर्चा में है Assam Accord 1985?

Sansar LochanSansar Editorial 2018

asasm accord

असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला एक बार फिर से सिर उठाने लगा है. यह मामला दरअसल देश भर में हमेशा से एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा रहा है. असम और पश्चिम बंगाल में अवैध रूप से रहे बांग्लादेशियों का मुद्दा काफी संवेदनशील है. आमतौर पर तमाम गैर-असमी आबादियों को बंगलादेशी कह दिया जाता है, हालाँकि इनमें से कई भारतीय नागरिक भी हैं. NRC का पहला ड्राफ्ट आने के बाद सवाल उठ रहे हैं कि उन लोगों का क्या होगा जिनका नाम final draft में भी नहीं होगा. पर NRC के पहले ड्राफ्ट की चर्चा करने से पहले मैं आपको असम समझौते (Assam Accord 1985) के बारे में बताना चाहती हूँ ताकि आपको पूरा का पूरा मुद्दा अच्छी तरह से समझ में आ सके.

इस पोस्ट को लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यह है कि आपको असम के राजनैतिक इतिहास का पता चले जिससे आपको असम में चल रहे current issue “NRC-National Register of Citizens (NRC) के फर्स्ट draft से मिली हलचल के पीछे कारण” अच्छी तरह से समझ में आ सके. To read about NRC Draft, link is given at the bottom of the article.

असम समझौता

असम में बाहरी बनाम असमिया के मसले पर आन्दोलनों का दौर काफी पुराना है. 50 के दशक से ही बाहरी लोगों का असम में आना एक राजनैतिक मुद्दा बनने लगा था. औपनिवेशिक काल में बिहार और बंगाल से चायबागानों में काम करने के लिए बड़ी तादाद में मजदूर असम पहुँचे. अंग्रेजों ने उन्हें यहाँ खाली पड़ी जमीनों पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया. इसके अलावा विभाजन के बाद नए बने पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के साथ, असम में भी बड़ी संख्या में बंगाली लोग आये. तब से ही वहाँ रह-रह कर बाहरी बनाम स्थानीय के मुद्दे पर चिंगारी सुलगती रही. लेकिन 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान और आज के बांग्लादेश में मुसलमान बंगालियों के खिलाफ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्रवाई शुरू हुई तो वहाँ के तकरीबन 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली. बांग्लादेश बनने के बाद इनमें से ज्यादातर लोग लौट गए, लेकिन तकरीबन 1 लाख असम में ही रह गए. 1971 के बाद भी कई बंगलादेशी असम आते रहे. जल्द ही स्थानीय लोगों को लगने लगा कि बाहर से आये लोग उनके संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेंगे और इस तरह जनसंख्या में हो रहे इन बदलावों ने असम के मूल निवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी.

इस भय ने 1978 के आस-पास वहाँ एक शक्तिशाली आन्दोलन को जन्म दिया जिसका नेतृत्व वहाँ के युवाओं और छात्रों ने किया. इसी बीच All Assam Students Union (AASU) और All Assam Gana Sangram Parishad (AAGSP) ने मांग की कि विधान सभा चुनाव कराने से पहले विदेशी घुसपैठियों की समस्या का हल निकाला जाए. बांग्लादेशियों को वापस भेजने के अलावा आन्दोलनकारियों ने 1961 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को वापस राज्य में भेजे जाने या उन्हें कई और बसाने की माँग की. आन्दोलन उग्र होता गया और राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया. 1983 के विधान सभा चुनाव में राज्य की बड़ी आबादी ने मतदान का बहिष्कार किया. इस बीच राज्य में आदिवासी, भाषाई और साम्प्रदायिक पहचानों के नाम पर बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. 1984 के आम चुनावों में राज्य के 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव ही नहीं हो पाए.

1983 के हिंसा के बाद समझौते के लिए बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई. आखिरकार अगस्त 1985 को केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और आन्दोलन के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते (Assam Accord) के नाम से जाना जाता है.

असम समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला हुआ. 1971 के बाद असम में आये लोगों को वापस भेजने पर सहमति बनी. 1961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को नागरिकता और दूसरे अधिकार जरुर दिए गए लेकिन उन्हें वोट का अधिकार नहीं दिया गया. असम के आर्थिक विकास के लिए पैकेज की भी घोषणा की गई और यहाँ oil refinery, paper-mill और तकनीकी संस्थान स्थापित करने का फैसला किया गया. केंद्र सरकार ने यह भी फैसला किया कि असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किये जायेंगे.

मामला सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुँचा?

असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया. विधान सभा को भंग करके 1985 में चुनाव कराये गए जिसमें नवगठित असम गणपरिषद् को बहुमत मिला और AASU के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत को मुख्यमंत्री बनाया गया. असम समझौते (Assam Accord) के बाद राज्य में शांति बहाली तो हुई लेकिन यह असल मायने में अमल नहीं हो पाया. इस बीच बोड़ो आन्दोलन (Bodoland movement) और अलग राष्ट्र के लिए उल्फा (United Liberation Front of Assam) की सक्रियता से कई हिंसक आन्दोलन चलते रहे. कई साल तक मामला ठन्डे बस्ते में रहने के बाद साल 2005 में एक बार फिर असम में आन्दोलन तेज हुआ. राज्य में कांग्रेस सरकार ने दबाव में आकर काम शुरू तो किया लेकिन कार्रवाई बेहद सुस्त रही.

इस बीच पूर्वी बंगाल के मूल लोगों को संदिग्ध वोटर होने के आरोप में प्रताड़ित किये जाने की खबरें आती रहीं जिनमें बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं. आखिरकार 2013 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा.

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचने के बाद क्या हुआ, इसका detail आप इस पोस्ट में पढ़ें >> NCR Draft 2017

Read them too :
[related_posts_by_tax]