आज इस पोस्ट में हम अरबिंदो घोष के जीवन परिचय, राजनीतिक विचार और उनकी कुछ रचनाओं के विषय में चर्चा करेंगे.
जीवन परिचय
अरबिंदो घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में हुआ. वे लगभग 13 वर्ष इंग्लैंड में रहे और वहीँ ICS बनने की तैयारी की और ICS लिखित परीक्षा पास की किन्तु घुड़सवारी में असफल होने के कारण ICS नहीं बन सके. कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय में उन्होंने भारतीय राजनीति का अध्ययन किया तथा सन् 1893 में भारत लौट आये. उनके जीवन को मुख्यतः दो भागों में बांटा जाता है-
- उग्र-राष्ट्रवादी
- अमूल परिवर्तनवादी
उनके जीवन के प्रथम चरण में वे एक क्रांतिकारी थे जिसमें उन्होंने कांग्रेस अर्थात् उदारवादियो को कमज़ोर कहा. उनके अनुसार वे याचिकाओं तथा प्रार्थना-पत्रों के बलबूते देश की आज़ादी का सपना सजा रहे थे. इस चरण में उन्होंने उदारवादियो तथा कांग्रेस की भरपूर आलोचना की और इस विषय में उन्होंने New Lamp for Olds जैसे लेख प्रकाशित किये. उनके जीवन का दूसरे चरण का प्रारंभ तब हुआ जब उन्हें और उनके भाई वीरेन्द्र को मानिकटोला बम हत्याकांड में फँसाकर तथा राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और उनके बड़े भाई को फाँसी की सजा दी गयी. उसी समय जेल में रहकर उन्होंने आत्म-अध्ययन किया तथा अपने जीवन में अध्यात्म को अपनाया. पोंडिचेरी में रहते हुए उन्होंने औरोविल नामक आश्रम की स्थापना की. 5 दिसम्बर 1950 को उनका देहांत हो गया.
अरबिंदो घोष के राजनीतिक विचार
उनके राजनीतिक विचारों का निम्नलिखित श्रेणियों में वर्णन किया जा सकता है-
निष्क्रिय प्रतिरोध
अरबिंदो ने निष्क्रिय प्रतिरोध का विचार आयरलैंड के निष्क्रिय प्रतिरोध से लिया. उनका निष्क्रिय प्रतिरोध गाँधी जी के निष्क्रिय प्रतिरोध से बिल्कुल भिन्न है. उनके अनुसार निष्क्रिय प्रतिरोध अहिंसात्मक होना चाहिए लेकिन अगर सरकार निर्दयी हो जाये तो हिंसा का प्रयोग करने से भी नहीं चूकना चाहिए क्योंकि अत्याचारों को सहना कायरता है. लेकिन उनका मानना था कि हिंसा प्रयोग अंतिम मार्ग है और हिंसा का रूप ऐसा न हो जिससे किसी को हानि हो बल्कि आत्मरक्षा के रूप में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए. उनके अनुसार निष्क्रिय प्रतिरोध निम्नलिखित आधार पर होना चाहिए-
- स्वदेशी का प्रसार व विदेशी का बहिष्कार
- सरकारी शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार कर राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार
- सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार
- ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित सभी संस्थाओं का बहिष्कार
- जनता द्वारा सरकार का बहिष्कार.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
उनके अनुसार किसी भी समाज या देश में तीन प्रकार की स्वतंत्रताओं का होना ज़रूरी है –
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता(विदेशी नियंत्रण से मुक्ति)
- आन्तरिक स्वतंत्रता(किसी वर्ग या समूह विशेष के सामूहिक नियंत्रण से मुक्त स्वशासन) व
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता(राष्ट्रीय चेतना की जाग्रति का मार्ग).
उनके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता सभी प्रकार की स्वतंत्रता की पूर्व शर्त है लेकिन विदेशी शासन की मौजूदगी में इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता और चूँकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से ही व्यक्ति में राष्ट्रीय चेतना का विकास होता है इसलिए इसके बिना अन्य दोनों स्वतंत्रताओं को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता.
अधिकार
अरबिंदो घोष ने तीन प्रकार के अधिकारों का समर्थन किया है –
- स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति का अधिकार प्राप्त होना जरूरी है क्योकि कोई भी विचार अभिव्यक्त होकर मूर्त रूप धारण करता है तथा किसी भी संस्था, प्रशासन या सरकार को चलाने में विचार ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. स्वतंत्र प्रेस विचारों का प्रसार जन-जन तक करता है.
- स्वतंत्र सार्वजानिक सभा करने का अधिकार-यह अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का पूरक है.
- संगठन निर्माण का अधिकार व्यक्ति अकेला विकास नहीं कर सकता बल्कि समूह में रहकर ही उसे अपना विकास करना होता है. इसलिए एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए यह अधिकार आवश्यक है.
राष्ट्रवाद
उन्होंने राष्ट्रवाद को अध्यात्म तथा मानवता से जोड़ा है. अरबिंदो को उस समय का सबसे सफल राष्ट्रवादी भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने उदारवादियों की आलोचना कर अपने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के द्वारा देशभर में एक नए उत्साह को उत्त्पन्न किया. उनके अनुसार मनुष्य चाहे कितने भी तरह से भिन्न न हो परन्तु राष्ट्र प्रेम उसे एकता के सूत्र में बाँध देता है. वे कहते हैं कि “राष्ट्रवाद ही राष्ट्र की दैवीय एकता है”. उनके राष्ट्रवादी विचार उनके लेख “वन्देमातरम्” में मिलते हैं.
मानव एकता अथवा विश्व एकता
वे सर्वधर्म सम्मान व एकता में विश्वास करते थे तथा विश्व संघ निर्माण का समर्थन करते थे. उनके अनुसार मानव एकता प्रकृति की देन है, तभी तो मनुष्य निरंतर सामाजिक संस्थाओं का विकास करके एकता के सूत्र में बँँधा रहा है, जैसे परिवार, कबीला व राज्य.
राज्य
अरबिंदो राज्य को किसी समझौते या दैवीय आधार पर निर्मित नहीं बल्कि निरंतर विकसित संस्था मानते हैं. वे राज्य को सीमित शक्तियाँ देने की बात करते हैं. उनके अनुसार राज्य को केवल बाधाओं व अन्यायों को रोकने का काम करना चाहिए. उनके अनुसार राज्य मनुष्य के सम्पूर्ण विकास का साधन नहीं है.
समाजवाद
अरबिंदो घोष समाजवाद को लोककल्याणकारी राज्य का आधार मानते हैं. परन्तु वे समाजवाद के राज्य शक्तियों के केन्द्रीकरण के सिद्धांत व सर्वाधिकारवाद के समर्थक नहीं थे.
लोकतंत्र
अरबिंदो घोष ने प्रतिनिधि लोकतंत्र की आलोचना की हैं उनका मानना है कि इसमें जनता के शासन के नाम पर कुछ कुलीन व धनी व्यक्तियों का ही शासन होता है तथा यहाँ जनता को राजनीतिक व आर्थिक अधिकार तो प्राप्त होते हैं परन्तु व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त नहीं होते. उनके अनुसार इस लोकतंत्र में केन्द्रीकरण का बोलबाला है, परन्तु विकेंद्रीकरण द्वारा इसके सभी दोषों को ख़त्म किया जा सकता है.
रचनाएँ
a)The Life Divine
b)Essays on the Gita
c) The Synthesis of Yoga
d)The Ideal of Human Unity
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