बंग-भंग आन्दोलन – स्वदेशी आन्दोलन तथा उग्रवाद में वृद्धि

Sansar Lochan#AdhunikIndia

संभवतः कर्जन का सबसे घृणित कार्य बंगाल का दो भागों में विभाजन करना था. यह कार्य बंगाल और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के कड़े विरोध की उपेक्षा करके किया गया. इसने यह सिद्ध कर दिया कि भारत सरकार तथा लन्दन स्थित गृह सरकार भारत के लोकमत की उपेक्षा ही नहीं करते, बल्कि धर्म के नाम पर कलह फैलाने से भी नहीं चूकते हैं. इस कार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि याचना तथा प्रतिरोध प्रकट करने से कुछ नहीं होने वाला.

बंग-भंग आन्दोलन

लार्ड कर्जन ने एक आज्ञा जारी करके बंगाल को दो भागों में बांट दिया. उस समय बंगाल प्रांत में आधुनिक बंगाल देश, प. बंगाल, बिहार और उड़ीसा सम्मिलित थे. इसका क्षेत्रफल 1,89,000 वर्ग मील और जनसंख्या 8 करोड़ थी, जिसमें बिहार और उड़ीसा की जनसंख्या 2 करोड़ 10 लाख थी. बंटवारे के बाद पूर्वी बंगाल और असम का एक नया प्रांत बनाया गया जिसमें राजशाही, चटगांव और ढाका के तीन डिवीजन सम्मिलित थे. इसका क्षेत्रफल 1,06,540 वर्ग मील और जनसंख्या 3 करोड़ 10 थी, जिसमें से 1 करोड़ 80 लाख मुसलमान थे और 1 करोड़ 20 लाख हिन्दू. इस प्रांत का मुख्य कार्यालय ढाका में था और यह एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन था. दूसरी ओर पश्चिम बंगाल, बिहार आरै उड़ीसा थे जिनका क्षेत्रफल 1,41,580 वर्गमील था और जिनकी जनसंख्या 5 करोड़ 40 लाख थी, जिसमें 4 करोड़ 20 लाख हिन्दू और केवल 90 लाख मुसलमान थे. इसमें बंगाली अल्पसंख्यक थे.

कारण

बंगाल के विभाजन के पीछे स्थित कारणों को लेकर व्यापक विवाद रहा है. इतिहासकारों ने इसके अलग-अलग कारण बताये हैं –

प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से

सरकारी तौर पर यह दावा किया गया था कि बंगाल का विभाजन प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया. कुछ हद तक इस दावे में दम था. बंगाल का प्रांत काफी बड़ा था और समय-समय पर इसे छोटा करने के सुझाव दिए जाते रहे थे. 1874 में असम और सिलहट को अलग किया गया था. यह दावा किया गया था कि विभाजन से असम को विकास में सहायता मिलेगी, साथ ही इससे बंगाल का बोझ भी कम हागेा. कजर्न ने इसके स्पष्टीकरण में बताया कि मैमनसिंह और बाकरगंज डिवीजनों के व्यक्ति प्रायः अव्यवस्था और अपराधों के लिए कुख्यात थे और पुलिस इन लोगों से निपटने में असमर्थ थी. एक उप-गवर्नर इन विस्तृत प्रदेशों की देखभाल करने में असमर्थ था. इसके अतिरिक्त पहले भी इस प्रकार के प्रदेश विभाजन हो चुके थे, जैसे 1865 में आधुनिक उत्तर प्रदेश को उत्तर पश्चिमी प्रांत बनाकर तथा 1874 में असम का प्रदेश अलग किया जाना.

लेकिन आंतरिक रूप से सरकार या ब्रिटिश शासन के उद्देश्य कुछ और ही थे. अगर सिर्फ प्रशासनिक सुविधा की बात होती तो बंगाल से गैर-बंगालीभाषी बिहार और उड़ीसा को भी अलग किया जा सकता था, लेकिन इस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था. कर्जन ने कहा था कि, “बंगाल से बाह्य घटकों को अलग करने से तो बंगाली तत्वों की स्थिति और सृदृढ़ हो जायेगी और ठीक वही स्थिति पैदा हो जायेगी जिससे हम बचना चाहते हैं. हमारा प्रस्ताव राजनीतिक रूप से लाभदायक है जिसका प्रमाण है – “कांग्रेस का इसे नापसंद करना.” वस्ततु: विभाजन का कारण राजनीतिक था.

फूट डालो और राज करो की नीति

राष्ट्रवादी इतिहासकारों की धारणा है कि बंगाल विभाजन का कदम जान-बूझकर, ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अंतर्गत उठाया गया था. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ में भारत में राष्ट्रीय चेतना तेजी से विकसित हो रही थी और जुझारू रूख अख्तियार कर रही थी. भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र था- बंगाल. अंग्रेजों ने इसी राष्ट्रीय चेतना पर आघात करने के उद्देश्य से ही बंगाल के बंटवारे का निर्णय लिया. लॉर्ड कर्जन के अनुसार- “अंग्रेजी हुकूमत का यह प्रयास कलकत्ता से राजधानी हटाना, बंगाली आबादी का बंटवारा करना, एक ऐसे केन्द्र को समाप्त करना था जहाँ से सारे देश में व बंगाल में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था तथा साजिशें रची जाती थीं.” यह एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक चाल थी जिसका उद्देश्य था पश्चिमी और पूर्वी बंगाल के हिन्दू राजनीतिज्ञों के बीच दरार डालना. रिजले ने कहा था, “अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है. विभाजित हाने से यह कमजार हो जायेगी आरै हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बटंवारा करना है जिससे हमारे दुश्मन बटं जाएँ, कमजोर पड़ जाएँ.”

सांप्रदायिक भेद का बढ़ावा देना

विभाजन का एक और उद्देश्य जान-बूझकर हिन्दू-मुस्लिम तनावों को बढ़ावा देना था. राष्ट्रवादियों ने यह आरोप लगाया कि बंगाल विभाजन का उद्देश्य बंगाल को धार्मिक तौर पर बांटना था, क्योंकि पूर्वी बंगाल में मुसलमानों और पश्चिमी बंगाल में हिन्दुओं का बहुमत था. इस आक्षेप को कजर्न की उस टिप्पणी से बल मिलता है, जो उसने ढाका में भाषण करते हुए की थी- “बंगाली मुसलमानों को एकता का ऐसा अवसर दिया जा रहा है जो मुसलमान सूबेदारों और बादशाहों के समय से उन्हें नसीब नहीं हुआ था.”

बंगालियों को अल्पसंख्यक बनाना

बंगाल विभाजन का सिर्फ यह उद्देश्य नहीं था कि बंगालवासियों को दो प्रशासनिक हिस्सों में बांटकर उनके प्रभाव को कम किया जाये. अंग्रेजी हुकूमत का मूल मकसद बंगाल में बंगालियों की आबादी कम करके उन्हें अल्पसंख्यक बना देना था. मूल बंगाल में 1 करोड़ 70 लाख बंगाली और 3 करोड़ 70 लाख उड़िया व हिन्दीभाषी लोगों को रखने की योजना थी. इस प्रकार बंगाल विभाजन की योजना भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक सुनियोजित हमला थी. भारतीय राष्ट्रवादियों ने इसका कड़ा विरोध किया और अंततः 1911 में वे इसे वापस करवाने में सपफल हुए.

परिणाम

बंगाल के विभाजन और उससे उपजी राष्ट्रीय प्रतिक्रिया के कई दूरगामी परिणाम हुए:

तीव्र राष्ट्रीय प्रतिरोध का जन्म

बंगाल के विभाजन का राष्ट्रीय अपमान के तौर पर लिया गया और विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आ गयी. शुरुआती दौर में विरोध प्रदर्शन का सहारा लिया गया. विभाजन के दिन को शोक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गयी. कलकत्ता में एक व्यापक विरोध प्रदर्शन का आयोजन हुआ और प्रतिनिधि आन्दोलन को फैलाने के लिए पूरे देश में फैल गये. हिन्दू-मुस्लिम एकता को दर्शाने के लिए हिन्दू-मुसलमानों ने एक-दूसरे की कलाइयों पर राखियां बांधीं.

स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन का जन्म

बंग-भंग के विरोध में ‘स्वदेशी’ और ‘बहिष्कार’ आन्दालेन का जन्म हुआ. बंगाल के नेताओं को लगा कि केवल प्रदर्शनों, सार्वजनिक सभाओं और प्रस्तावों से शासकों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ने वाला नहीं है. इसके लिए और सकारात्मक उपाय करने होंगे, जिनसे जनता की भावनाओं की तीव्रता का अच्छी तरह पता चले. इसका परिणाम था ‘स्वदेशी’ और ‘बहिष्कार’. पूरे बंगाल में जनसभाएं की गयीं, जिनमें स्वदेशी अर्थात् भारतीय वस्तुओं के उपयोग तथा ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के निर्णय किये गये. अनेक जगहों पर विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी और विदेशी कपड़े बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए गये. स्वदेशी आन्दोलन पर्याप्त सपफल रहा. इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष था आत्मनिर्भरता पर दिया जाने वाला जोर. आत्मनिर्भरता का मतलब था राष्ट्र की गरिमा, सम्मान और आत्म-विश्वास की घोषणा. आर्थिक क्षेत्र में इसका अर्थ देशी उद्योग एवं अन्य उद्यमों को बढ़ावा देना था. अनेक कपड़ा मिलें, साबुन और दियासलाई के कारखाने, हैण्डलूम, राष्ट्रीय बैंक और बीमा कंपनियां खुलीं. आचार्य पी.सी. राय ने (बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर्स) की स्थापना की.

सांस्कृतिक प्रगति

बंगाल विभाजन और उससे उभरे स्वदेशी आन्दोलन का एक परिणाम सांस्कृतिक प्रगति के रूप में सामने आया. राष्ट्रवादी काव्य, गद्य आरै पत्राकारिता का विकास हुआ.

राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार

साहित्यिक, तकनीकी आरै शारीरिक शिक्षा देने के लिए राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की. उनका मानना था कि तत्कालीन शिक्षा प्रणाली अपर्याप्त और राष्ट्रवाद से विमुख करने वाली है. 15 अगस्त, 1906 को एक राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् की स्थापना की गयी. कलकत्ता में एक राष्ट्रीय कॉलेज आरंभ हुआ, जिसके प्रधानाचार्य अरविंद घोष थे.

राष्ट्रीय आन्दोलन में छात्रों और स्त्रिायों का बड़े पैमाने पर प्रवेश

स्वदेशी आन्दोलन में एक प्रमुख भूमिका बंगाल के युवकों ने निभायी. उन्होंने स्वदेशी का प्रचार और प्रसार किया. विदेशी वस्त्रों की होली जलायी. छात्रों का व्यापक दमन भी किया गया, परंतु उन्होंने झुकने से मना कर दिया. स्वदेशी आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता थी स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी. शहरी मध्यम वर्ग की सदियों से घरों में कैद महिलाएं जुलूसों और धरनों में शामिल हुईं. इसके बाद से राष्ट्रवादी आन्दोलन में वे बराबर सक्रिय रहीं.

उग्र राष्ट्रवाद का विकास

बंग विभाजन और उससे उपजे विरोध आन्दोलन का स्वाभाविक परिणाम उग्र राष्ट्रवाद के विकास के तौर पर सामने आया. नरमपंथी आन्दोलन का कोई परिणाम सामने नहीं आया था, अतः आन्दोलन धीरे-धीरे उग्रपंथी नेताओं के हाथ में आ गया. इन्होंने स्वदेशी और बहिष्कार के अलावा ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ का आह्नान भी किया. उन्होंने जनता से आग्रह किया कि वे सरकार के साथ सहयोग न करें और सरकारी सेवाओं, अदालतों, विद्यालयों, विधानमंडलों को बहिष्कार करें. उन्होंने आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाना चाहा और विदेशी शासन से मुक्ति का नारा दिया. अरविंद घोष ने खुलकर यह घोषणा की कि, ‘राजनैतिक स्वतंत्राता किसी भी राष्ट्र की प्राणवायु है.’ इस तरह बंगाल विभाजन का प्रश्न गौण हो गया और भारत की स्वतंत्रता का प्रश्न भारतीय राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बन गया. उग्र राष्ट्रवादियों ने आत्म बलिदान का आह्वान किया और घोषणा की कि इसके बिना कोई भी महान् उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता था. फिर भी उग्र-राष्ट्रवादी जनता को सकारात्मक नेतृत्व देने में विफल रहे.

क्रान्तिकारी आतंकवाद का विकास

सरकार का दमन आरै साथ में जनता को कुशल नेतृत्व देने में नेताओं की असपफलता के कारण उपजी कुंठा जैसी बातों ने क्रान्तिकारी आतंकवाद को जन्म दिया. युवकों ने देखा कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध और राजनीतिक कार्यवाही के सारे रास्ते बन्द हैं, तो हताश होकर उन्होंने व्यक्तिगत बहादुरी के कार्यों और बम की राजनीति का सहारा लिया. अब उन्हें भरोसा नहीं रहा था कि निष्क्रिय प्रतिरोध से राष्ट्रवादी उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है. जैसा कि बारीसाल सम्मेलन के बाद समाचार पत्र युगांतर ने 1906 में लिखा कि -‘समस्या का समाधान जनता के अपने हाथों में है. उत्पीड़न के इस अभिशाप को रोकने के लिए भारत के तीस करोड़ लोगों को अपने साठ करोड़ हाथ ऊपर उठाने होंगे. ताकत का सामना ताकत से करना होगा.’ लेकिन उन्होंने कोई जन क्रान्ति लाने के बदले, अलोकप्रिय अधिकारियों की हत्या और व्यक्तिगत हिंसा का सहारा लिया. 1907 में बंगाल के लेफ्रिटनेंट गर्वनर को जान से मारने की कोशिश की गई. अप्रैल 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुज्जफ्फरपुर के बदनाम जज को मारने की कोशिश की. आंतकवादी युवकों ने कई गुप्त संगठन भी बनाये, लेकिन यह आन्दोलन धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन

बंग-भंग विरोधी आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा. नरमपंथी और गरमपंथी राष्ट्रवादियों के बीच जमकर सार्वजनिक बहसें हुईं और मतभेद उभरे. गरमपंथी स्वदेशी आरै बहिष्कार को बंगाल से बाहर पूरे देश में फैलाने तथा औपनिवेशिक सरकार के साथ किसी भी रूप में जुड़ने का बहिष्कार करना चाहते थे. नरमपंथी बहिष्कार को सिर्फ बंगाल तक और वहां भी केवल विदेशी मालों तक सीमित रखना चाहते थे. समय के साथ उनके मतभेद बढ़ते ही गये और अंत में 1907 में सूरत अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस के दो टुकडे़ हो गये. नरमपंथी नेता कांग्रेस संगठन पर कब्जा करने तथा उससे गर्मप्न्थियों को निष्कासित करने में सपफल रहे. लेकिन अंततः इस विभाजन से लाभ किसी भी दल को नहीं हुआ. नरमपंथियों का राष्ट्रवादियों की नयी पीढ़ी से सम्पर्क टूट गया. ब्रिटिश सरकार ने भी ‘बांटो और राज करो’ की नीति का खूब खेल खेला तथा गरमपंथी राष्ट्रवादियों का दमन और नरमपंथियों को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न किया.

निष्कर्ष

इस प्रकार हम देखते हैं कि बंग विभाजन और उससे उपजे संघर्ष से देश के बड़े तबके में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार हुआ, औपनिवेशिक विचारधारा को धक्का पहुंचा और सांस्कृतिक प्रगति हुई. इस आन्दोलन ने जनमत तैयार करने के कई नये तरीके ईजाद किये. यही संघर्ष भावी राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव बना तथा विभाजन ने भावी संघर्ष का बीज बो दिया. वास्तव में विभाजन विरोधी आन्दोलन के कारण भारतीय राष्ट्रवाद में एक महान् और क्रान्तिकारी परिवर्तन आया. बाद के राष्ट्रीय आन्दोलन ने इस पूँजी का खूब उपयोग किया.

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