सरदार पटेल और रियासतों का एकीकरण और विलय

Sansar Lochan#AdhunikIndia

भारतीय रियासतें क्या थीं?

औपनिवेशिक भारत में, करीब-करीब इसका 40% भूभाग छोटे या बड़े ऐसे 56 रियासतों द्वारा घिरा था, जिस पर शासन करने वाले राजाओं को ब्रिटिश पारामाउंटसी (सर्वोच्चता) के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की स्वायत्तता प्राप्त थी. अंग्रेजी शासन उन्हें अपनी जनता से बचाने के साथ-साथ बाहरी आक्रमणों से तब तक बचाती थी, जब तक कि वे अंग्रेजों की बात मानते रहते थे. 1947 में प्रश्न यह था कि अंग्रेजों के जाने के बाद इन देशी रियासतों का क्या होगा. लेकिन बहुत कुशलता और दक्षतापूर्ण राजनयिकता के साथ प्रलोभन और दबाव का प्रयोग करते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल, सैकड़ों रजवाड़ों और रियासतों को भारतीय संघ में दो चरणों में विलय करने में सफल हुए. कुछ रियासतों ने अप्रैल 1947 की संविधान सभा में शामिल होकर समझदारी और यथार्थता के साथ प्रायः कुछ हद तक देशभक्ति दिखाई. परन्तु अधिकांश राजा इससे अलग रहे और कुछ राजाओं ने, जैसे- ट्रावणकोर, भोपाल और हैदराबाद के राजाओं ने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि वे स्वतंत्र दर्जा का दावा पेश करना चाहते हैं.

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भारतीय रियासतों के एकीकरण का प्रथम चरण

द्वितीय विश्वयुद्ध के छिड़ने से राजनीतिक माहौल में जबरदस्त बदलाव आया. कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफ़ा दे दिया. अंग्रेजी हुकुमत ने भारतीय प्रतिरक्षा कानून पास किया और रियासतों में भी राजनीतिक गतिविधियाँ थम सी गईं. लेकिन 1942 में फिर राजनीतिक संघर्ष ने जोर पकड़ा. भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया गया. इस बार कांग्रेस ने पहले की तरह ब्रिटिश इंडिया और देशी रियासतों बीच पहले की तरह कोई भेद नहीं किया. रियासतों में भी संघर्ष का शंखनाद हुआ और देसी रियासतों की जनता भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में शमिल हो गई. अब रियासतों की जनता का भी नारा था ‘भारत छोड़ो’.

रियासतों को भारत राष्ट्र का अभिन्न अंग मानने की भी मांग उठाई गई. द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद जब सत्ता हस्तांतरण पर बातचीत होने लगी, तो रियासतों की समस्या उठ खड़ी हुई. क्रिप्स योजना 1972, वेवल योजना 1945, कैबिनेट मिशन योजना 1946 और अंत में 28 फरवरी, 1947 को प्रधानमन्त्री एटली की घोषणा में भारतीय रियासतों के भविष्य पर विचार किया गया. क्रिप्स योजना में रियासतों की सर्वश्रेष्ठता किसी और को दे देने का कोई विचार नहीं था. रियासतों ने पूर्ण प्रभुसत्तापूर्ण संघ,  जो कि देश में एक तीसरी शक्ति के रूप में कार्य कर सके, बनाने की भिन्न-भिन्न याजेनाओं के बारे में विचार किया. पर 20 फरवरी, 1947 की एटली की घोषणा और 3 जून, 1947 की माउंटबेटन योजना ने यह स्पष्ट कर दिया कि सर्वश्रेष्ठता समाप्त हो जायेगी और रियासतों को अधिकार होगा कि वे पाकिस्तान अथवा भारत, किसी में भी सम्मिलित हो सकती हैं. लार्ड माउंटबेटन ने एक रियासत अथवा अनेक रियासतों के संघ को एक तीसरी इकाई के रूप में मान्यता देने से इंकार कर दिया.

सरदार पटेल और रियासतों का एकीकरण और विलय

राष्ट्रीय अस्थायी सरकार में सरदार पटेल रियासती विभाग के कार्यवाहक थे. उन्होंने भारतीय रियासतों की देशभक्ति को ललकारा और अनुरोध किया कि वे भारतीय संघ में अपनी रक्षा, विदेशी मामले और संचार व्यवस्था को भारत अधीनस्थ बनाकर, सम्मिलित हो जाएँ. इस बीच, 1946-47 में रजवाड़ों में जन-आंदोलनों की एक नई लहर उठी, जिसमें हर जगह राजनीतिक अधिकारों की तथा संविधान सभा में निर्वाचित प्रतिनिधित्व की मांग की जा रही थी. 15 अगस्त, 1947 तक 136 क्षेत्राधिकारी रियासतें भारत में सम्मिलित हो गई थीं. बहुत-सी छोटी-छोटी रियासतें जो एक अलग इकाई के रूप में आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था में नहीं रह सकती थी, संलग्न प्रांतों में विलय कर दी गई. जैसे- उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की 39 रियासतों उड़ीसा या मध्य प्रांत में विलय कर दी गई और गुजरात की रियासतें बंबई प्रांत में.

इन रियासतें के विलय का एक अन्य रूप ऐसी इकाइयों के रूप में भी गठन करना था, जो केन्द्र द्वारा प्रशासित की जाए. इस श्रेणी में हिमाचल प्रदेश, विन्ध्य प्रदेश, त्रिपुरा, मणिपुर, भोपाल, विलासपुर और कच्छ की रियासतें थीं. एक अन्य प्रकार का विलय, राज्य संघों का गठन करना था. इस प्रकार काठियावाड़ की संयुक्त रियासतें, मत्स्य की संयुक्त रियासतें, विन्ध्य प्रदेश और मध्य भारत के संघ ‘पटियाला और पूर्वी पंजाब रियासती संघ (PEPSU), राजस्थान, ट्रावणकोर और कोचीन की संयुक्त रियासतें अस्तित्व में आयीं.

मगर यह सब एक वर्ष से कुछ ही अधिक की आश्चयर्जनक रूप से अल्प अवधि में पूरा कर लिया गया. इसके लिए दिया जाने वाला मुख्य प्रलोभन था- उदारतापूर्ण प्रिवीपर्स. कुछ नरेशों को गवर्नर या राजप्रमुख बनाया गया. भारत की तीव्र एकीकरण निश्चय ही सरदार पटेल की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, यद्यपि यह भी स्मरणीय है कि जनता के दबावों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. इसे हम सशक्त प्रजामंडल आंदोलन के रूप में देख सकते हैं.

भारतीय रियासतों के एकीकरण का द्वितीय चरण

15 अगस्त, 1947 तक सिवाय जूनागढ़, जम्मू और कश्मीर तथा हैदराबाद को छोड़कर, सभी रजवाड़े भारत में शामिल हो गए. हालांकि 1948 के अंत तक आनाकानी कर रहे इन तीनों रियासतों को भी भारत में शामिल होने के लिए बाध्य होना पड़ा.

जूनागढ़ का विलय

काठियावाड़ में ‘जूनागढ़’ के मुसलमान शासक को, जो पाकिस्तान में सम्मिलित होने का प्रयास कर रहा था, जो आंदोलन और पुलिस कार्यवाही के मिले-जुले प्रयासों से रास्ते में लाया गया. नेहरू और पटेल इस बात से सहमत थे कि जूनागढ़ के संदर्भ में भी निर्णायक स्वर जनता का होना चाहिए. इसके विरूद्ध पाकिस्तान ने जूनागढ़ का विलयन स्वीकार कर लिया. जबकि दूसरी ओर राज्य की जनता, शासक के निर्णय को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी. उन्होंने एक जन आंदोलन संगठित किया और नवाब को भागने के लिए विवश कर दिया तथा एक तात्कालिक सरकार की स्थापना की. जूनागढ़ के दीवान शाह नवाज भुट्टो ने भारत सरकार को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया. इसके बाद भारतीय सेना राज्य में प्रवेश कर गई. फरवरी 1948 में रियासत के अंदर एक जनमत संग्रह कराया गया जो व्यापक तौर पर भारत विलय के पक्ष में गया.

कश्मीर का विलय

2020 से जम्मू-कश्मीर संघीय क्षेत्र में अक्टूबर 26 को पहली बार एक नई सार्वजनिक छुट्टी होगी. यह दिन विलय दिवस (Instrument of Accession) के रूप में मनाया जाएगा क्योंकि इसी दिन जम्मू-कश्मीर के अंतिम डोगरा राजा हरिसिंह ने भारत के साथ अपने राज्य का विलय किया था.

विलय दिवस की पुराकथा

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के द्वारा अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़ों में ही नहीं बाँटा था, अपितु लगभग 580 रजवाड़ों को यह छूट दे दी थी कि वे या तो स्वतंत्र रहें अथवा भारत या पाकिस्तान किसी एक में मिल जाएँ.

इस अधिनियम के अनुभाग 6(a) में प्रावधान था कि जो रजवाड़े  भारत या पाकिस्तान मिलेंगे उन्हें पहले एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करना होगा जिसमें वे बतायेंगे कि वे अपने रजवाड़े का विलय किन शर्तों पर कर रहे हैं.

जम्मू कश्मीर का विलय पत्र

यह एक वैधानिक प्रलेख था जिस पर अक्टूबर 26, 1947 को महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किये थे. इसमें लिखा हुआ था कि जम्मू-कश्मीर रजवाड़ा भारत में अपना विलय कर रहा है.

विलय पत्र में यह लिखा हुआ था कि भारत की संसद जम्मू-कश्मीर के लिए मात्र रक्षा, विदेशी मामलों और संचार के विषय में ही विधान बना सकती है.

कश्मीर रियासत की सीमा भारत और पाकिस्तान दोनों से मिलती थी. इसका शासक हरिसिंह एक हिन्दू था, जबकि राज्य की 75 प्रतिशत आबादी मुसलमान थी. हरिसिंह भारत और पाकिस्तान दोनों में विलय से बचना चाहता था. हालाँकि नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व में लाकेप्रिय राजनीतिक शक्तियाँ और इसके नेता शेख अब्दुल्ला भारत में विलय चाहते थे. भारतीय नेता चाहते थे कि कश्मीर की जनता ही निणर्य ले कि वह अपने भाग्य को भारत के साथ जोड़ना चाहती है या पाकिस्तान के साथ. परंतु पाकिस्तान ने आम जनता के निर्णय की अवहेलना करने की कोशिश की. इसने 22 अक्टूबर, 1947 को अनाधिकारिक रूप में पाकिस्तानी सैनिक अपफसरों के नेतृत्व में कई पठान कबीलाइयों ने कश्मीर की सीमा का अतिक्रमण किया और तेजी से कश्मीर की राजधनी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे. घबरा कर 24 अक्टबूर, 1947 को महाराज ने भारत से सैनिक सहायता की अपील की. 26 अक्टूबर, 1947 को महाराज ने कश्मीर को भारत में विलय कर शेख अब्दुल्ला को रियासत के प्रशासन का प्रमुख बनाने को तैयार हो गए. भारत ने घोषणा की कि घाटी में शान्ति तथा कानून-व्यवस्था बहाल होने के बाद विलय के निर्णय पर जनमत संग्रह कराया जाएगा. भारतीय सरकार ने 27 अक्टूबर, 1947 को सेना कश्मीर भेजी, सेना ने पहले श्रीनगर के बाहर खदेड़ दिया. हांलाकि फिर भी उन्होंने राज्य के कई हिस्सों पर कुछ नियंत्रण बनाए रखा और महीनों तक सशस्त्र मुठभेड़ होते रहे. अन्ततः संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक प्रस्ताव के द्वारा भारत और पाकिस्तान दोनों ने 31 दिसंबर, 1948 का युद्ध विराम स्वीकार कर लिया, जो अब तक लागू है. राज्य का विभाजन युद्ध विराम रेखा के साथ-साथ हो गया. जनमत संग्रह इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि पाकिस्तान ने आज के तथाकथित आजाद कश्मीर से अपनी सेनाओं को वापस बुलाने से इनकार कर दिया.

हैदराबाद का विलय

हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा रियासत था और यह चारों तरपफ से भारतीय भू-भाग से घिरा हुआ था. हैदराबाद का निजाम 15 अगस्त, 1947 के पहले भारत में शामिल होना स्वीकार नहीं किया. बदले में पाकिस्तान द्वारा प्रोत्साहित होकर एक स्वतंत्रा दर्जे का दावा किया और अपनी सेना का विस्तार करने लगा. इस बीच राज्य में तीन अन्य राजनीतिक घटनाएँ घटित हुईं. पहली यह थी कि अधिकारियों की सांठगांठ से एक उग्रवादी मुस्लिम साप्रंदायिक सगंठन इतिहार-उल-मुसलमीन और इसके अर्धसैनिक अंग रजाकारों का बहुत तेजी से विकास हुआ, जिन्होंने संघर्षरत जनता को भयभीत कर उन पर आक्रमण शुरू कर दिया. दूसरी घटना थी, 7 अगस्त, 1947 की निजाम से जनवादीकरण की माँग को लेकर हदैराबाद रियासत कांग्रेस ने एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया. तीसरी घटना थी, कम्युनिस्टों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली किसान संघर्ष रियासत के तेलंगाना क्षेत्र में विकसित हुआ. इन किसान दलों ने बड़े जमींदारों पर हमला किया और उनकी जमीनों को किसानों और भूमिहीनों के बीच बांट दिया. हैदराबाद में इस अव्यवस्था एवं अराजकता के बीच 13 सितंबर, 1948 को भारतीय सेना हैदराबाद में प्रवेश कर गई. तीन दिनों के बाद निजाम ने समर्थन कर दिया और नवंबर में भारतीय संघ में विलय को स्वीकार कर लिया. निजाम को राज्य के औपचारिक शासक या राजप्रमुख के रूप में बहाल रखा गया.

हैदराबाद के अधिग्रहण के बाद भारतीय संघ में देशी रजवाड़ों के विलय का कठिन कार्य सपंन्न हो गया आरै भारत सरकार की हुकूमत पूरी भारतीय जमीन पर चलने लगी.

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