आज हमने NCERT texbook की सहायता से अंग्रेजों की विदेश नीति से सम्बंधित संक्षिप्त नोट्स (short notes) बनाया है. इस आर्टिकल में आप पढेंगे – आंग्ल-नेपाल सम्बन्ध और सुगौली की संधि, आंग्ल-बर्मा सम्बन्ध और प्रथम-द्वितीय-तृतीय (यांडबू की संधि), आंग्ल-बर्मा युद्ध, आंग्ल-अफगान सम्बन्ध और प्रथम-द्वितीय-तृतीय आंग्ल-अफगान युद्ध और आंग्ल-तिब्बत सम्बन्ध.
सम्पादक महोदय का कहना था कि दिसम्बर तक आधुनिक इतिहास के सारे नोट्स ख़त्म कर देने हैं पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमें दिसम्बर तक के टारगेट को देखते हुए शोर्ट नोट्स का सहारा लेना पड़ेगा.
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अपनी साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत अंग्रेजों ने 1818 ई. तक पंजाब और सिंध को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण भारत को जीत लिया था. भारत में साम्राज्य स्थापना के बाद अंग्रेजों ने दोहरी नीति अपनाई जिसका उद्देश्य एक ओर उचित प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना था तो दूसरी ओर जीते गये प्रदेशों की सीमाओं को सुरक्षित रखना. ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की विदेश नीति को प्रायः साम्राज्यवादी नीति (Imperialist Policy) भी कहा जाता है, क्योंकि इसको ब्रिटिश साम्राज्य के हितों को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किया गया था.
आंग्ल-नेपाल सम्बन्ध (Anglo-Nepal Relations)
अंग्रेज़ नेपाल के सम्पर्क में बंगाल के नवाब कासिम के समय ही आ गये थे. इसी दौरान एक व्यापारिक अंग्रेजी रेजीडेंट द्वारा नेपाल के विरुद्ध की गई कार्रवाई असफल रही. दोनों के बीच एक व्यापारिक संधि हुई पर इसका कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ. इसके उपरान्त नेपाल की शक्ति में लगातार वृद्धि होती रही. लॉर्ड हेस्टिंग्स के आगमन तक नेपाल एक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य बन चुका था. इसके उत्तर में चीन का विशाल साम्राज्य स्थापित था, जिस ओर अंग्रेज़ विस्तार नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में बंगाल और अवध की ओर करना शुरू कर दिया. दूसरी तरफ, बंगाल और अवध में अंग्रेज़ खुद अपनी शक्ति और साम्राज्य का विस्तार करने में लगे थे. जब अंग्रेजों ने 1801 ई. में गोरखपुर जिले पर अपना अधिकार कर लिया तो अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ नेपाल से मिलने लगीं. इसलिए हिमालय की तराई के विभिन्न जिलों को लेकर दोनों ही पक्ष अपना-अपना दावा पेश करने लगे. इनके बीच 1814 ई. में उस समय झगड़ा शुरू हो गया जब नेपालियों ने बस्ती जिले के उत्तर में शिवराज और बुटवाल पर कब्ज़ा कर लिया. जल्द ही अंग्रेजों ने दोनों जिलों पर पुनः अधिकार कर लिया. इससे दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई.
सुगौली की संधि (Sugauli Treaty)
एक सैन्य शक्ति के रूप में नेपाली अंग्रेजों के समक्ष टिक नहीं सके और उन्हें 1816 ई. में सुगौली की संधि करनी पड़ी. इस संधि से अंग्रेजों को कुमायूँ और गढ़वाल का विस्तृत क्षेत्र प्राप्त हो गया. नेपालियों ने सिक्किम पर दावा छोड़ दिया और काठमांडू में एक अंग्रेज़ रेजीडेंट रखना स्वीकार कर लिया. इस संधि से उत्तरी सीमा का विवाद तो हमेशा के लिए ख़त्म हो ही गया, साथ ही नेपालियों के रूप में अंग्रेजों को एक विश्वस्त सहयोगी प्राप्त हुआ. अंग्रेजों को यहाँ से कट्टर, लड़ाकू और बहादुर गोरखा सैनिक प्राप्त होते रहे. 1857 ई. के विद्रोह के समय भी ये अंग्रेजों के राजभक्त बने रहे. इन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में भी अपना योगदान दिया.
आंग्ल-बर्मा सम्बन्ध (Anglo-Burma Relations)
अंग्रेजों को बर्मा से 18वीं के पूर्वार्ध तक किसी प्रकार का भय नहीं था किन्तु इसी सदी के उत्तरार्ध में जब बर्मा के राजा ने साम्राज्यवाद नीति अपनाना आरम्भ कर दिया तो दोनों के बीच संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया.
प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध (1824-26)
जब तेनासरिम, अराकान और मणिपुर को बर्मा के राजा ने जीत लिया तो उसके राज्य की सीमाएँ ब्रिटिश सीमाओं से मिल गईं. इसी दौरान बर्मा के राजा ने अंग्रेजों से उन व्यक्तियों को सौंपने की माँग की जो बर्मा से भागकर अंग्रेजों की शरण में चले गये थे. अंग्रेजों के मना करने पर दोनों के बीच संबंधों में भयंकर कटुता उत्पन्न हो गई. अंततः जब बर्मा के राजा ने चटगाँव स्थित शाहिपुर द्वीप पर अधिकार कर लिया तो युद्ध प्रारम्भ हो गया. इस युद्ध में बर्मा की हार हुई. उसके बाद 1826 ई. में दोनों के बीच यांडबू की संधि हुई.
यांडबू की संधि (Yandaboo Treaty)
यांडबू की संधि से बर्मा ने अराकान एवं तेनासरिम के प्रदेश अंग्रेजों को दे दिए. साथ ही, उन्हें युद्ध दंड के रूप में एक करोड़ पौंड देने पड़े. बर्मा सरकार ने असम, कछार और जयंतिया में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करना स्वीकार किया. उन्हें मणिपुर राज्य की स्वतंत्रता भी स्वीकार करनी पड़ी. बर्मा ने रंगून में एक अंग्रेज़ रेजीडेंट एवं अंग्रेजों ने कलकत्ता में एक बर्मी दूत रखना स्वीकार किया.
इस संधि के चलते बर्मा के निचले तट पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. इससे अंग्रेजों के साम्राज्य और प्रभाव में काफी वृद्धि हुई. बर्मा के विरुद्ध मिली अपार सफलता के कारण लॉर्ड एमहर्स्ट (Lord Amherst) को अर्ल ऑफ़ अराकान (Earl of Arakan) की उपाधि से अलंकृत किया गया.
द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध (1852-53)
शीघ्र ही यांडबू की संधि अस्थायी सिद्ध हो गई. इसका मुख्य कारण था – बर्मा में बसने वाले अंग्रेज़ व्यापारियों द्वारा बर्मी कानूनों का उल्लंघन किया जाना. साथ ही, बर्मा सरकार भी संधि की शर्तों को मानने में आनाकानी कर रही थी. नये राजा थारावादी ने यह कह कर यांडबू की संधि को मानने से मना कर दिया कि “यह संधि मेरे भाई से की गई थी, मुझसे नहीं. अब अगर अंग्रेज़ व्यापारियों ने कानून का उल्लंघन किया तो बर्मी सरकार द्वारा उन्हें दण्डित किया जाएगा.”
राजा थारावादी की घोषणा से घबराकर अंग्रेज़ व्यापारियों ने बर्मा सरकार की लॉर्ड डलहौजी से शिकायत की. डलहौजी ने इस मुद्दे पर तुरंत तत्परता दिखाई और कमोडोर लैम्बर्ट (Commodore Lambert) के नेतृत्व में तीन युद्धपोत रंगून भेजे और बर्मी सरकार से क्षतिपूर्ति की माँग की. बर्मी सरकार ने उनकी एक न सुनी और फिर दोनों पक्षों में युद्ध छिड़ गया जिसमें बर्मा की एक बार फिर हार हुई. अंग्रेजों ने सम्पूर्ण निचले बर्मा को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया.
तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध (1885-86)
कालांतर में जब अंग्रेज़ विभिन्न संधियों द्वारा अपने अधिकार में वृद्धि करने लगे तो एक बार फिर दोनों शक्तियों के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो गई. बर्मा और फ़्रांस के बीच एक व्यापारिक संधि हुई और यह तय हुआ कि फ्रांसीसी अधिकारी बर्मा के सैनिकों को प्रशिक्षित करेंगे.
उसके बाद बर्मा और इटली के बीच एक संधि हुई जिसमें इटली ने बर्मा को हथियार देने का वादा किया. साथ ही, बर्मा के राजा ने रूस और फारस में शिष्टमंडल भेजने का प्रयास किया. उसने इंग्लैंड के साथ सीधे राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का भी असफल प्रयास किया. वासत्व में ये सभी प्रयास बर्मा के राजा ने अपनी सुरक्षा के लिए किया था.
दरअसल, बम्बई-बर्मा व्यापारिक कॉर्पोरेशन के झगड़े के कारण तृतीय आंग्ल-बर्मा युध्द का आरम्भ हुआ. इस झगड़े का मुख्य कारण कम्पनी द्वारा टैक्स की चोरी किया जाना था. सैन्य अभियान के द्वारा मात्र दो महीने के भीतर ही अंग्रेजों ने बर्मा को जीत लिया. एक घोषणा द्वारा (1866 ई.) बर्मा के सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया. उसके बाद अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के चलते 1935 ई. से बर्मा भारत का अंग नहीं रहा.
आंग्ल-अफगान सम्बन्ध (Anglo-Afghan Relations)
लॉर्ड ऑकलैंड (1836 ई. – 1842 ई.) के भारत का गवर्नर जनरल आने के समय ब्रिटेन और रूस के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे. अंग्रेजों को डर था कि कहीं रूस भारत पर आक्रमण न कर दे. अंग्रेजों ने तुर्की की और रूस की प्रगति में रुकावट डाली थी, अतः रूस ने भी फारस और अफगानिस्तान की ओर अपना दबाव बढ़ा दिया. ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का रूस से डरना प्रासंगिक था. उन्होंने भी अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने की नीति अपना ली. अंग्रेजों ने यहाँ के शासक दोस्त मोहम्मद के सामने रुसी आक्रमण का भय दिखाकर संधि करने का प्रस्ताव रखा. दोस्त मोहम्मद भी अंग्रेजों से दोस्ती करना चाहता था. अतः उसने इस शर्त पर संधि करने की इच्छा व्यक्त की कि उसे पेशावर दे दिया जाए. मगर अंग्रेज इसके लिए तैयार नहीं हुए, जिसके चलते दोस्त मोहम्मद का झुकाव रूस की ओर हो गया और शीघ्र ही रूस और अफगानिस्तान ने आपस में संधि कर ली.
लॉर्ड ऑकलैंड द्वारा भेजे गए प्रतिनिधिमंडल के असफल होकर वापस लौट आने पर उसने दोस्त मोहम्मद के प्रतिनिधि शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बनाने का फैसला कर लिया. इसके लिए रणजीत सिंह, शाहजुआ और अंग्रेजों के बीच जून 1838 ई. में एक त्रिदलीय संधि (Tri-Party Agreement) हुई इसके कुछ समय बाद ही लॉर्ड ऑकलैंड ने अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया.
प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1838-42)
प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध लगभग चार वर्षों तक चला. पर इससे अंग्रेजों को कोई फायदा नहीं हुआ. अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बना दिया. शाहशुजा अफगानिस्तान की जनता में लोकप्रिय नहीं था इसलिए दोस्त मोहम्मद के पुत्र अकबर खां के नेतृत्व में बगावत हो गई. जिसें शाहशुजा मारा गया. इस प्रकार अंग्रेजों की कूटनीति बेकार साबित हो गई.
द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध (1878-80)
लॉर्ड लिटन (Lord Lytton) उग्र नीति का समर्थक था. अतः वायसराय बनकर आने पर उसने अपने पूर्वगामी वायसरायों की कुशल अकर्मण्यता की नीति अपनाई. कार्यभार सँभालते ही सने अफगानिस्तान के अमीर शेर अली से काबुल में एक अंग्रेज़ रेजीडेंट रखने के लिए कहा. चूँकि शेर अली को यह आशंका थी कि अंग्रेजी रेजीडेंसी अफगानिस्तान पर अंग्रेजों की पृष्ठभूमि तैयार कर सकती है, अतः उसने अंग्रेजी रेजीडेंट रखने से साफ़ मन कर दिया. इस पर लॉर्ड लिटन ने शेर अली को चेतावनी दी कि यदि उसने अंग्रेजों की बजाय रुस से मित्रता की तो उसके घातक परिणाम होंगे. परन्तु शेर अली इस धमकी पर ध्यान न देकर रूस से संधि कर ली और काबुल में रूसी रेजीडेंट रखना स्वीकार कर लिया. इसके परिणामस्वरूप कुछ समय बाद दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हो गया. हारने पर शेर अली काबुल छोड़कर भाग निकला और अंग्रेजों ने उसके पुत्र याकूब खां से संधि कर ली जिसे गंडमक की संधि (Gandamak Treaty) के नाम से जाना जाता है.
गंडमक की संधि (2 अप्रैल, 1879) अधिक समय तक कारगर नहीं रही और सितम्बर 1879 को काबुल में ब्रिटिश रेजीडेंट मेजर केबेगनरी की हत्या कर दी. अंग्रेज़ी सेना पुनः अफगानिस्तान में घुस गई तथा उसने काबुल और कंधार को फिर से जीत लिया. पदच्युत याकूब खां को बंदी बनाकर देहरादून भेज दिया गया. दूसरी ओर, ब्रिटेन में अप्रैल 1880 ई. में ग्लैडस्टन ने उदारवादी दल की सरकार बनाई. लॉर्ड लिटन ने इस्तीफ़ा दे दिया और लॉर्ड रिपन को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया. इसी बीच शेर अली का भतीजा अब्दुर्रहमान काबुल पहुँच गया. उसे लॉर्ड रिपन द्वारा कबूल का अमीर स्वीकार कर लिया गया.
तृतीय आंग्ल-अफगान युद्ध (1919)
अब्दुर्रहमान की मृत्यु के बाद जब उसका पुत्र हबीबुल्ला अफगानिस्तान का अमीर बना तो उसने अंग्रेजों से मित्रता रखी और अपने पिता की नीति का ही अनुसरण किया. वह पाश्चात्य देशों की भाँति अफगानिस्तान का संघटन करना चाहता था, परन्तु कट्टरपंथी अफगानी उसके विरोधी थे. अतः उन्होंने 20 फरवरी, 1919 को हबीबुल्ला की निर्मम हत्या कर दी. इसके बाद उसका पुत्र अमानुल्ला अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठा. वह अपने पिता तथा दादा की नीतियों का प्रबल विरोधी था और अफगानिस्तान को अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त रखना चाहता था. इसी गतिरोध के चलते 1919 में तृतीय आंग्ल-अफगान युद्ध हुआ.
बहरहाल, अमानुल्ला ब्रिटिश शक्ति का सामना नहीं कर सका और 10 दिनों में ही अफगान पराजित हो गये. अतः मजबूर होकर अफगानी अमीर ने अंग्रेजों से संधि कर ली. इस संधि के द्वारा अमीर को अब तक दी जा रही आर्थिक सहायता बंद कर दी गई, किन्तु अमीर की स्वतंत्रता यथावत् स्वीकारी गई. इसके साथ ही अफगानिस्तान की विदेश नीति पर अंग्रेजों का प्रभाव समाप्त हो गया. दूसरी ओर, अफगानियों ने भी अंग्रेजों के लिए अब समस्याएँ पैदा करना छोड़ दिया.
आंग्ल-तिब्बत सम्बन्ध (Anglo-Tibet Relations)
भारत की उत्तर-पूर्वी सीमान्त नीति के अंतगर्त अंग्रेजों ने तिब्बत से सम्बन्ध स्थापित किये. वारेन हेस्टिंग्स ने व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिहाज से अपने कार्यकाल के दौरान 1774-1775 ई. में एक शिष्टमंडल तिब्बत भेजा, परन्तु उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली. इसके बाद एक लम्बे समय तक अंग्रेजों और तिब्बत के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहा. लगभग 110 वर्षों के बाद 1887 ई. में अंग्रेजों ने तिब्बत-सिक्किम राज्य पर हमला किया लेकिन अंग्रेज़ पुनः तिब्बत से विफल रहे. उसके बाद तिब्बत की संप्रभुता पर दावा करने वाले चीन के साथ अंग्रेजों की एक संधि हुई जिसके अनुसार व्यापारिक सुविधाओं हेतु एक संयुक्त आयोग का गठन किया गया, किन्तु तिब्बत ने इस संधि को मानने से इन्कार कर दिया.
कालांतर में लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत की ओर विशेष ध्यान दिया. चीन के प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए तिब्बतवासी रूस से सहायता प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच 1901 ई. में उसे ज्ञात हुआ कि तिब्बत में रूस और चीन के बीच एक संधि हुई है जिसके अनुसार तिब्बत पर रूस का अधिकार स्थापित हो गया है. अतः 1904 ई. में उसने कर्नल यंगहसबैंड की अध्यक्षता में गोरखा सेना के साथ शिष्टमंडल तिब्बत भेजा, जिसके फलस्वरूप मजबूर होकर तिब्बत ने अंग्रेजों के साथ ल्हासा की संधि (Lhasa Treaty) की (पढ़ें > ल्हासा की संधि).
इस संधि के अनुसार तिब्बत ने 75 लाख रुपये युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में देना स्वीकार किये, किन्तु कालांतर में गृह सरकार के हस्तक्षेप से यह राशि घटाकर 25 लाख कर दी गई. अब अंग्रेजों को सिक्किम और भूटान का भू-भाग प्राप्त हुआ तो तिब्बत ने अंग्रेजों को यह आश्वासन दिया कि वह किसी भी विदेशी को रेल, तार व सड़क आदि बनाने की सुविधाएँ प्रदान नहीं करेगा. इस प्रकार, लॉर्ड कर्जन की नीति तिब्बत से रूस के प्रभाव को रोकने में कारगर साबित हुई.
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