[संसार मंथन] मुख्य परीक्षा लेखन अभ्यास – Culture & Heritage GS Paper 1/Part 5

Sansar LochanCulture, GS Paper 1, History, Sansar Manthan

सामान्य अध्ययन पेपर – 1

चैत्यगृहों के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए. साथ ही चैत्य और विहार में क्या अंतर है, यह भी चर्चा करें. (250 words) 

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 1 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू शामिल होंगे”.

सवाल का मूलतत्त्व

पहले तो आपको चैत्यगृह के विषय में बताना होगा कि यह होता क्या है. आपको आगे चैत्य और विहार के बीच अंतर भी बताना है इसलिए कोशिश करें कि अंतर point-wise ही हो. दोनों के उदाहरण देना न भूलें.

उत्तर :-

चैत्यगृह

प्राकृतिक गुफाओं में निवास करने की परम्परा आदिम युग से ही शुरू हो गई थी. आगे जाकर पत्थरों को काटकर तराशा जाने लगा और अपने निवास के लिए मनुष्य ने उन्हें शिलागृह का रूप दे दिया. राजगृह में स्थित सोणभण्डार और सप्तपर्णि गुफाएँ भिक्षुओं के आवास के लिए ही बनाई गई थीं. बिहार में ही बराबर और नागार्जुन पहाड़ियों को काटकर अशोक और उसके पुत्र दशरथ ने आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं हेतु निवास हेतु गुफाओं का निर्माण करवाया था. इसी परम्परा की अगली कड़ी बौद्ध चैत्यों के रूप में पश्चिमी और दक्षिणी भारत में देखी जा सकती है.

दरअसल “चैत्य” शब्द संस्कृत के “ची” धातु से बना है जिसका अर्थ होता है चुनना, चयन करना या यूँ कहें कि एक के ऊपर एक रखना. चिता के जलाए जाने के बाद अवशिष्ट अंशों का चयन करके उन्हें जमीन के अन्दर गाड़ दिया जाता था और उसी स्थल पर स्मारक बनाये जाते थे जिन्हें चैत्य कहा गया. चैत्य वे स्मारक थे जहाँ महापुरुषों की अस्थियाँ, राख गाड़कर रखे जाते थे. आगे जाकर ये चैत्य पूजा के स्थल बन गये और इसी प्रकार मंदिर वास्तु का विकास हुआ. उदहारणस्वरूप शोलापुर जिले का विष्णु मन्दिर, कृष्णा जिले कपोतेश्वर मंदिर और धारवाड़ जिले का ऐहोल दुर्ग मंदिर चैत्यगृहों के उदाहरण हैं.

बौद्धकाल में स्तूप इसी प्रकार के चैत्य थे. स्तूप और चैत्य-परम्परा का उल्लेख वेदों में भी हुआ है. परन्तु इस परम्परा का वास्तुगत बहुविधि विकास मौर्य-शुंगकाल से ही शुरू हुआ है. आज भारत में जो भी चैत्य भवन पाए जाते हैं उनमें से अधिकतर बौद्ध धर्म से ही सम्बंधित हैं. इसलिए चैत्य-वास्तु प्रायः बौद्ध धर्म का ही अंग बन कर रह गया है.

पहले स्तूप अथवा चैत्य प्रायः खुले नभ में हुआ करते थे. बाद में वर्षा, आँधी और धूप से स्तूप और बौद्ध भक्तों की रक्षा करने तथा पूजा बिना रुकावट संपन्न हो सके, उसके लिए चैत्य को आच्छादित भवन का रूप दिया जाने लगा. पहाड़ों में चट्टानों को काटकर और तराशकर तथा मैदानों में ईंटो-पत्थरों से इन चैत्यगृहों को निर्मित करने की परम्परा आरम्भ हुई. [no_toc]

इस प्रकार चैत्यगृह दो प्रकार के होते हैं –

  • गुहा चैत्य – Rock-cut Chaitya
  • संरचनात्मक चैत्य – Structural Chaitya

चैत्य और विहार में अंतर

राजगृह में वेणुवन, कौशाम्भी में घोषिताराम, श्रावस्ती में जेतवन, पाटलिपुत्र में आशोकाराम, नालंदा का महाविहार, साँची का बोट श्रीमहाविहार आदि कुछ उल्लेखनीय बौद्ध विहार हैं.

  1. चैत्य पूजा-भवन थे, इसलिए उनमें स्तूप का होना आवश्यक था. विहार बौद्ध भिक्षुओं के आवास के लिए बनाए जाते थे इसलिए उनमें स्तूप का होना आवश्यक नहीं था.
  2. निर्माण शैली की दृष्टि से विहार चैत्यगृह से भिन्न होते थे. विहार चौकोर होती थी. गुहा-विहारों के बीच एक बड़ा-सा मंडप स्थापित किया जाता था और उसके तीनों ओर भिक्षुओं के रहने के लिए छोटे-छोटे कमरे बनाए जाते थे. दूसरी ओर चैत्य ईसाई गिरजाघरों के समान आयताकार होती थी जो पीछे की ओर अर्द्धवृत्त के समान गोलाकार रहती थी. इस प्रकार के आकार के कारण इन्हें एपिस्डल चैत्य (apsidal chaitya) या द्वयस्र चैत्य भी कहा जाता है.

सामान्य अध्ययन पेपर – 1

चैत्यगृह की रूप-रेखा कैसी होती थी? दक्षिण भारत के गुहाचैत्य और विहार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करें . (250 words) 

उत्तर :-

चैत्यगृहों का chaitya_vihar_ajantaआकार ईसाई गिरजाघरों के समान आयताकार होता था जो पीछे की ओर से अर्द्धवृत्त के समान गोलाकार रहती थी. स्तूप के समक्ष एक विशाल सभा-मंडप और चारो ओर बरामदा बनाकर परिक्रमा पथ बनाया जाता था. सभा-मंडप और बरामदों को अलग करने हेतु चैत्य में दोनों तरफ स्तम्भों की पंक्ति रहती थी और सामने प्रवेशद्वार होता था. प्रवेशद्वार के ऊपर घोड़े की नाल के आकार की मेहराब या चाप बनाई जाती थी. यह मेहराब बनावट में मौर्यकालीन लोमश ऋषि नामक गुफा के द्वार से कुछ अलग प्रतीत होता था. इस मेहराब को ही अब चैत्य कहा जाता है. चैत्यगृहों के प्रवेशद्वार उत्कीर्णकला से अलंकृत होते थे. सभा-मंडप के स्तभ भी अनेक प्रकार के शीर्षों से सजाये जाते थे.

मैदानों में ईंटों-पत्थरों से बनाए गये चैत्यगृहों की छतें गजपृष्ठाकृति या ढोलक के आकार की होती थीं. विद्वान् मानते हैं कि पहले चैत्यों की छतों में लकड़ी की शहतीरें लगाईं जाती थीं और कालांतर में जब पर्वतों को तराशकर चैत्य बनाए जाने लगे तो उनकी निर्माण-पद्धति लकड़ी जैसी ही रखी गई.

गुहाचैत्यों और संरचनात्मक चैत्यों में मात्र इतना अंतर था कि गुहाचैत्यों में सूर्य का प्रकाश केवल प्रवेशद्वार से ही संभव था जबकि मैदानों में निर्मित संरचनात्मक चैत्यों के बाह्य दीवारों में गवाक्ष होने से प्रकाश अन्य दिशाओं में फ़ैल सकता था. संरचनात्मक चैत्यों का बाहरी आकार गुहाचैत्यों के बाहरी आकारों से अधिक दर्शनीय था.

दक्षिण भारत के गुहाचैत्य और विहार

पश्चिम घाट के ही समान दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश में कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य मौर्यकाल से ही बौद्धधर्म की गतिविधियाँ आरम्भ हो गई थीं. उड़ीसा में धुली तथा जुगाड़ में अशोक द्वारा अभिलेख अंकित कराने के बाद ही बौद्ध धर्म की यह परम्परा आगे बढ़ गयी थी और पीठापुरम, संकाराम, घंटशाल, भट्टीप्रोलु, अमरावती, नागार्जुनकोंद, जगय्यपेट तथा गुण्टपल्ली आदि स्थानों पर गुहाचैत्यों, संरचनात्मक चैत्यों, विहारों तथा स्तूपों का निर्माण तृतीय शती ई. तक होता रहा.

गुहाचैत्य सबसे पूर्व गुण्टपल्ली में बना था जो बराबर की पहाड़ी में बना लोमश ऋषि गुफा की शैली का है. गोलाई से निर्मित इस चैत्य के बीच में एक ही चट्टान से तराशा गया स्तूप है जिसके चारों तरफ संकरा प्रदक्षिणापथ है. इस चैत्य की छत गोल है और उसमें लकड़ी की शहतीरों जैसे अंकन उसे काष्ठ-वास्तु की प्रतिकृति सिद्ध करते हैं. गुण्टपल्ली में द्वित्तीय शताब्दी में बनाए गये एक स्न्र्चनात्म्क द्वयस्त्र चैत्य के अवशेष भी मिले हैं.

संकाराम (विशाखापत्तनम) में भी द्वितीय शती ई.पू. के तीन गुहाचैत्य बनाए गये थे. इनके भीतर के स्तूप एक ही चट्टान से तराशकर निर्मित किये गये थे जिन्हें अंग्रेजो में “मोनोलिथिक” (monolithic) कहते हैं. सबसे बड़े गुहाचैत्य के स्तूप के आधार का व्यास 65 फीट था.

“संसार मंथन” कॉलम का ध्येय है आपको सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सवालों के उत्तर किस प्रकार लिखे जाएँ, उससे अवगत कराना. इस कॉलम के सारे आर्टिकल को इस पेज में संकलित किया जा रहा है >> Sansar Manthan

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