“20वीं सदी के प्रारम्भ में औद्योगिक प्रगति के चलते जहाँ भारत के पूँजीपतियों के धन में वृद्धि हुई, वहीं श्रमिकों की दशा बिगड़ गयी.” विश्लेषण कीजिए.
“Due to industrial progress during the beginning of 20th century there was growth in the wealth of Indian capitalists on one hand and a deterioration in the condition of the labour on the other hand.”
उत्तर:-
जूट एवं वस्त्र उद्योग में लगे पूँजीपतियों ने युद्ध के दौरान बेशुमार मुनाफा कमाया. एक अनुमान के अनुसार जूट-मिल के मालिकों ने 1915-24 ई. के बीच अपनी पूँजी पर 90% मुनाफा प्रतिवर्ष कमाया. इसी प्रकार कपड़ा मिल-मालिकों ने भी 100-200 प्रतिशत मुनाफा कमाया. इसके विपरीत, मजदूरों का शोषण हुआ और उनकी दशा में गिरावट आई.
औद्योगिकीकरण ने करघा वस्त्र उद्योग पर बुरा प्रभाव डाला. इसका उत्पादन कम होता गया और जुलाहों की अवस्था गिरती गई. कृषि की अवनति से श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई, परन्तु उनकी आर्थिक दशा बिगड़ती गई. पूँजीपति सम्पूर्ण मुनाफा स्वयं ही हजम कर गये, मजदूरों को जीवन-निर्वाह के लिए पर्याप्त मजदूरी भी नहीं मिली. मजदूरों ने इसके लिए आन्दोलन किये, जिनके फलस्वरूप मजदूरी में कुछ वृद्धि हुई परन्तु तत्कालीन महँगाई की तुलना में यह नगण्य सिद्ध हुई. इस प्रकार उनकी अवस्था दयनीय बनी रही. किसानों की स्थिति चिंतनीय थी. फलतः, किसान और मजदूर एकजुट हुए. उन्होंने अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठन बनाए और आन्दोलन किये. फलतः भारत में साम्यवादी, समाजवादी संगठन बने. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किसानों और मजदूरों ने भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और उनके चहेतों, पूँजीपतियों, सामंतों और साहूकारों के विरुद्ध संघर्ष तीव्र कर राष्ट्रीय आन्दोलन को शक्ति प्रदान की.
इसी से मिलता-जुलता सवाल पिछले साल Prelims परीक्षा में पूछा गया था-
निम्नलिखित में से कौन-सा कथन औद्योगिक क्रान्ति के द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत पर पड़े प्रभाव की सही व्याख्या करता है?
(a) भारतीय दस्तकारी-उद्योग नष्ट हो गए थे.
(b) भारत के वस्त्र-उद्योग में मशीनों का बड़ी संख्या में प्रवेश हुआ था.
(c) देश के अनेक भागों में रेलवे लाइनें बिछाई गई थीं.
(d) ब्रिटिश उत्पादन के आयात पर भारी शुल्क लगाया गया था.
Explanation:
1830 के दशक तक, ब्रिटेन से सस्ते मशीन-निर्मित सामानों ने भारतीय बाजारों में बाढ़ ला दी. चूंकि ये भारतीय वस्त्रों से सस्ते थे, इसलिए भारतीय कपड़ा उद्योगों को नुकसान उठाना पड़ा. इससे भारतीय वस्त्र उद्योग को क्षति हुई और बंगाल के कई बुनकरों को बेरोजगार होना पड़ा. रेलवे को 1853 में भारत में लाया गया था. आयातित भारतीय वस्त्रों पर भारी शुल्क लगाया गया था, न कि ब्रिटिश उत्पादन के आयात पर भारी शुल्क लगाया गया था.
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय मजदूरों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जगी जिसका अंत संघर्ष से हुआ. इस संघर्ष की पृष्ठभूमि और परिणामों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए.
In the latter half of 19th century Indian labours became conscious of their rights which ultimately ended in conflict. Write a brief note on the background and consequences of this conflict.
उत्तर:-
1853 ई. में जब भारत में रेलों का निर्माण प्रारम्भ हुआ तो इनमें काम करने हेतु बड़ी संख्या में मजदूरों को भर्ती किया गया. कोयला खानों, बागानों और कल-कारखानों में अकुशल श्रमिक एवं पढ़े-लिखे लोग किरानियों के रूप में बड़ी संख्या में बहाल किए गए. उद्योगों के विकास के साथ-साथ इनकी संख्या में वृद्धि होती गई. मिल-मालिक और उद्योगपति इनसे पूरा काम लेते, परंतु उन्हें किसी प्रकार की सुविधा नहीं दी जाती थी. उन्हें कम मजदूरी पर ही लंबे समय तक अस्वस्थ वातावरण में काम करना पड़ता था. छोटी उम्र के बच्चों से भी काम लिया जाता था. भारत में सस्ते मजदूरों को देखकर लंकाशायर के वस्त्र-उत्पादकों को भय हुआ कि कहीं भारतीय कपड़ा-उद्योग सस्ती मजदूरी के कारण उनका प्रतिद्वंद्वी न बन जाए. इसलिए, श्रमिकों की स्थिति सुधारने के नाम पर नियंत्रण स्थापित करने की व्यवस्था की गई. 1881 ई० के फैक्टरी-कानून द्वारा 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर कारखाने में काम करने पर, 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के काम के घंटों को सीमित करने तथा खतरनाक मशीनों के चारों ओर बाड़ा लगाने की व्यवस्था की गई. दूसरा फैक्टरी-कानून 1891 ई० में बना. इसमें स्त्रियों के काम करने की अवधि 11 घंटे (डेढ़ घंटे अवकाश के साथ) निश्चित की गई. बच्चों के काम करने की न्यूनतम उम्र 7-12 से बढ़ाकर 9-14 कर दी गई. 20वीं शताब्दी के आरंभ में मजदूरों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कुछ कानून बनाए गए. इनमें सबसे प्रमुख था 1911 ई० का फैक्टरी-ऐक्ट. इसके द्वारा 14 साल से ऊपर के मजदूरों के काम के घंटे घटाए गए. और निश्चित किया गया कि श्रमिकों से 12 घंटों से अधिक काम नहीं लिया जाएगा. इन सुधारों से मजदूरों की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. उनका शोषण जारी रहा.
अतः, धीरे-धीरे मजदूरों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जगी. उनलोगों ने एक ही साथ ब्रिटिश-साम्राज्यवादियों और भारतीय पूँजीपतियों, जो दोनों ही उनके आर्थिक शोषण के लिए उत्तरदायी थे, से संघर्ष करना आरंभ किया. बंग-भंग-आंदोलन के समय श्रमिकों ने कलकत्ता के छापेखाने, रेल, ट्राम और कारपोरेशन में हड़ताल रखी. उन्होंने सरकार की परेशानियों का लाभ उठाकर अपने वेतन में वृद्धि एवं सुविधाओं की माँग रखी. इन हड़तालों से यद्यपि उन्हें कुछ लाभ हुआ तथापि सरकार ने इन्हें राजनीतिक हड़ताल बताकर इनका कठोरतापूर्वक दमन किया. इससे मजदूरों में संघर्ष की भावना तीव्र हुई. परिणामस्वरूप, प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक पूरे भारत में श्रमिकों की अनेक हड़तालें हुईं. इनमें प्रमुख थीं 1907 ई० की रेलवे-हड़ताल और 1908 ई० में तिलक को जेल दिए जाने के विरोध में बंबई के मजदूरों की हड़ताल. मजदूरों ने हड़तालों के साथ-साथ अपने-आपको संगठित करने का प्रयास भी जारी रखा. मजदूरों को संगठित करने का पहला प्रयास बंगाल के ब्रह्मसमाजी नेता शशिपद बनर्जी ने 1866 ई० में, बरानगर में किया. इसके बाद मजदूर यूनियनों की स्थापना होने लगी. प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक भारत में अनेक मजदूर-संगठनों का उदय हो चुका था. इनमें प्रमुख थे वर्किंगमेन्स इंस्टिच्यूशन, कलकत्ता; प्रिंटर्स एंड कंपोजीटर्स लीग, कलकत्ता; चटकल यूनियन, बंगाल; ईस्ट इंडिया रेलवे इंप्लाइज यूनियन; बंबई पोस्टल यूनियन, बंबई कामगार हितवर्द्धिनी सभा; सोशल सर्विस लीग, बंबई इत्यादि. इन संगठनों द्वारा श्रमिकों ने शोषण के विरुद्ध लड़ाई आरंभ कर दी, परंतु वे अब भी पूरी तरह संगठित नहीं थे. इसलिए उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली.