आज हमने NCERT texbook की सहायता से लॉर्ड कार्नवालिस, वेलेजली और बैंटिक के शासनकाल, न्यायिक सुधार और शासन प्रबंध के विषय को लेकर संक्षिप्त नोट्स (short notes) बनाया है.
सम्पादक महोदय का कहना था कि दिसम्बर तक आधुनिक इतिहास के सारे नोट्स ख़त्म कर देने हैं पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमें दिसम्बर तक के टारगेट को देखते हुए शोर्ट नोट्स का सहारा लेना पड़ेगा.
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लॉर्ड कार्नवालिस (Lord Cornwallis)
- लॉर्ड कार्नवालिस ने न्यायिक क्षेत्र में वारेन हेस्टिंग्स के कार्य को आगे बढ़ाते हुए दीवानी न्याय के ढाँचे का पुनर्गठन किया.
- अपने कार्यकाल (1786-93) में उसने प्रत्येक जिले के मुख्य कस्बे में रजिस्ट्रार, अमीन व मुंसिफ की अदालतों का गठन किया. इनके ऊपर जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता वाली जिला अदालत थी जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील के लिए कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद और पटना प्रांतीय अदालतें स्थापित की गईं. प्रांतीय अदालतों के ऊपर गवर्नर जनरल की अध्यक्षता में सदर दीवानी अदालत थी, जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील लन्दन स्थित प्रिवी कौंसिल (Privy Council) में की जा सकती थी.
- कार्नवालिस ने फौजदारी न्यायालयों का भी पुनर्गठन किया और उसने जिला फौजदारी न्यायालय को समाप्त कर चार भ्रमणशील न्यायालयों (circuit courts) की स्थापना की. दो अंग्रेज़ न्यायाधीशों वाले इस न्यायालय के लिए आवश्यक था कि वह वर्ष में दो बार आंतरिक प्रदेशों का दौरा करके न्याय सम्बन्धी कार्य करे. इसके अलावा, सदर फौजदारी अदालत को मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाया गया.
- फौजदारी कानूनी सिद्धांतों में भी कार्नवालिस ने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया और फौजदारी न्याय की प्रक्रिया और सिद्धांतों में बदलाव लाते हुए हत्या के मामले में “रक्त मूल्य का सिद्धांत” समाप्त कर दिया गया अर्थात् मृतक के अभिभावक दोषी को क्षमा नहीं कर सकते थे. धर्म विशेष के मामलों की सुनवाई में साक्षी (witness) का महत्त्व नहीं रह गया था तथा किसी मुस्लिम की हत्या के मामले में अन्य धर्म को मानने वालों का साक्ष्य भी अब मान्य हो गया. इसके अतिरिक्त हत्या के मामले में प्रयुक्त अस्त्र या शस्त्र की बजाय हत्यारे के उद्देश्य को ध्यान में रखने का नियम बनाया गयाऔर क्रूरता के प्रतीक अंगभंग के दंड (Punishment of Mutilation) पर प्रतिबंध लगा दिया.
- कार्नवालिस ने कानून को संहिताबद्ध किया. वादों से अदालत द्वारा फीस लिए जाने का नियम भी इसी ने लागू करवाया.
- न्याय-व्यवस्था को अधिक व्यवस्थित करने के साथ ही कार्नवालिस ने उसका पाश्चात्यीकरण भी किया. जहाँ तक संभव हुआ उसने भारतीयों को न्याय के पदों से अलग कर अंग्रेज़ न्यायाधीशों को न्याय की जिम्मेदारी सौंपी. इस तरह कार्नवालिस की व्यवस्था में न्याय तार्किक और आधुनिक तो हुआ परन्तु न्याय महँगा और धीमा भी हो गया. अब मुक़दमेबाजी बढ़ गयी और कानून एवं न्यायिक प्रक्रिया को जटिलता ने यह जरुरी कर दिया कि अपने मामले को सही ढंग से रखने के लिए अथवा अपना बचाव करने के लिए वादी एवं प्रतिवादी दोनों द्वारा कानूनी दाँव-पेंच के जानकारों अर्थात् वकीलों की सहायता ली जाए.
शासन प्रबंध
- लॉर्ड कार्नवालिस ने तीन बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किये – कम्पनी की नौकरी में सुधार, बंगाल के इस्तमरारी बंदोबस्त में सुधार और अदालतों में सुधार.
- कार्नवालिस एक बड़ा अनुभवी शासक था, दूसरे वह बड़ा ईमानदार था. हिन्दुस्तान आकर कार्नवालिस ने देखा कि प्रायः सभी कलक्टर अपने किसी मित्र या रिश्तेदार के नाम से व्यापार करते हैं. उसने बड़े साहस के साथ इस प्रथा को रोका और इस बात की कोशिश की कि कम्पनी का कोई नौकर अनुचित लाभ न उठाये पाए. कमीशन के बदले उसने तनख्वाहें नियत कर दी.
- कम्पनी के कलेक्टरों के हाथ में न्याय और शासन दोनों का काम था. इसलिए वे अपने अधिकारों का बड़ा दुरूपयोग करते थे. कार्नवालिस ने इन दोनों विभागों को अलग-अलग कर दिया. किन्तु उसने एक भारी भूल की. शासन-प्रबंध के काम से उसने हिन्दुस्तानियों को अलग कर दिया. उसका ख़याल था कि उनमें न योग्यता है और न चरित्र है. उसका यह अनुमान बिल्कुल गलत था.
लॉर्ड वेलेजली (Lord Wellesley)
- लॉर्ड वेलेजली के शासनकाल में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये.
- समय का अभाव होने के चलते गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् सदर अदालतों के अध्यक्ष के रूप में अपने कार्य को प्रभावी ढंग से नहीं कर पा रहे थे. अतः उन्हें कार्य से मुक्त कर दिया गया तथा सदर दीवानी व सदर-निजामत अदालत के लिए तीन न्यायाधीश नियुक्त किये गये.
- निचले स्तर पर अदालतों के बढ़ते कार्यभार को कम करने के लिए 50 से 100 रु. तक के मामले की सुनवाई के लिए “सदर अमीन की अदालत” गठित की गई और इसमें भारतीय न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई क्योंकि अंग्रेज़ न्यायाधीश महँगे पड़ते थे.
- कलक्टर को दंडनायक के रूप में कार्य करने का अधिकार दे दिया गया. इस व्यवस्था में निचले स्तर पर मुकदमों की शीघ्र सुनवाई के उद्देश्य से मद्रास तथा बम्बई में ग्राम-सभाओं को भी न्याय का सीमित अधिकार मिल गया.
शासन प्रबंध
- कर्मचारियों को नियुक्त करने तथा उनका वेतन निश्चित करने में लॉर्ड वेलेजली अपने सम्बन्धियों का बड़ा पक्षपात करता था.
- कंपनी के कर्मचारियों की शिक्षा के लिए उसने फोर्ट विलियम में एक कॉलेज स्थापित किया परन्तु डायरेक्टरों ने इस योजना को पसंद नहीं किया.
- देश की आर्थिक दशा में सुधार करके उसने बजट को ठीक करने की कोशिश की.
- उसने सरकार की आय को बढ़ाकर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई.
- उसका स्वभाव उग्र था. कम्पनी के संचालकों की आज्ञा की परवाह न करके वह मनमानी करता था. उसने भारतीय नरेशों के साथ भी अनुचित व्यवहार किया.
लॉर्ड विलियम बैंटिक (Lord William Bentinck)
- लॉर्ड वेलेजली तथा लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय हुए परिवर्तनों के बावजूद विलियम बैंटिक के शासनकाल तक न्याय-प्रशासन का मूलाधार कार्नवालिस द्वारा स्थापित व्यवस्था ही रही. जेम्स मिल के अनुसार, इस व्यवस्था में तीन बड़े दोष थे – पहला; न्यायपालिका के अधिकारों का असीमित तथा निरंकुश होना, दूसरा; व्यक्ति के अधिकारों की कोई निश्चित परिभाषा का न होना; तीसरा, अधिकतर कानूनों का अलिखित रूप में होना.
- विलियम बैंटिक को जिस समय भारत भेजा गया था उस समय 1803 के चार्टर की अवधि समाप्त होने को थी. नया चार्टर प्राप्त करने के लिए कम्पनी के डायरेक्टर भारत में अपनी उपलब्धियों का बेहतर रिकॉर्ड पेश करना चाहते थे. अतः उनके निर्देश पर विलियम बैंटिक को सुधारों का व्यापक कार्यक्रम लागू करना पड़ा, जिसमें न्याय-प्रशासन का सुधार भी सम्मिलित था.
- न्याय के क्षेत्र में विलियम बैंटिक द्वारा किया गया एक मुख्य सुधार था – अपील तथा भ्रमण की चार अदालतों को समाप्त करना. इन अदालतों के न्यायिक कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलक्टर को सौंपे गये. मजिस्ट्रेट उन मुकदमों को सुनता था जिनमें तीन वर्ष तक के कारावास का दंड दिया जा सकता हो. 14 वर्ष के दंड के मामले सेशन जज (session judge) के सामने जाते थे. इनसे अधिक गंभीर मामलों की सुनवाई सदर जज (sadar judge) करता था. मृत्युदंड अब दो न्यायाधीशों कि बेंच द्वारा सुनवाई के बाद ही दिया जा सकता था.
- विलियम बेंटिक के समय में इलाहाबाद में सदर दीवानी तथा सदर निजामत अदालत की स्थापना की गई.
- एक विधि आयोग (Law Commission) की स्थापना लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में की गई. इस आयोग द्वारा कानून को संहिताबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया. मैकॉले ने दंड-संहिता में सुधार किया और उसे अधिक सरल तथा उपयोगी बनाया. इस व्यवस्था में दंड की कठोरता में भी कमी की गई. छोटी अदालतों में स्थानीय भाषा (उर्दू भाषा) के प्रयोग की अनुमति मिल गई जबकि बड़ी अदालतों का कामकाज अब भी अंग्रेजी भाषा में ही किया जाता था.
- न्याय-व्यवस्था में सुधार के लिए कंपनी के शासनकाल में अंतिम कदम चार्टर एक्ट, 1853 के समय उठाया गया. इस समय दूसरे विधि आयोग की नियुक्ति की गई जिसकी सिफारशों के आधार पर 1859-61 के मध्य दंड विधि, सिविल प्रक्रिया विधि तथा दंड प्रक्रिया विधि आदि संहिताओं को पारित किया गया.
शासन प्रबंध
- लॉर्ड बेंटिक ने देवानी अपीलों का काम कमिश्नरों के हाथ में दे दिया गया. किन्तु यह व्यवस्था संतोषप्रद नहीं सिद्ध हुई और 1832 ई. में डिस्ट्रिक्ट जज इस काम को करने लगे.
- रॉबर्ट बर्ड (Robert Bird) को लगान-सम्बन्धी विषयों का अच्छा ज्ञान था. उसने पश्चिमोत्तर सूबे के बंदोबस्त का काम पूरा किया. यह बंदोबस्त 30 साल के लिए किया गया. इसी समय इलाहाबाद में माल का बड़ा दफ्तर (Board of Revenue) स्थापित किया गया.
- कार्नवालिस ने ऊँची-ऊँची सरकारी नौकरियों का दरवाजा हिन्दुस्तानियों के लिए बंद कर दिया था. इससे भारतीयों के साथ बड़ा अन्याय हुआ. लॉर्ड बेंटिक ने हिन्दुस्तानी जजों को पहले की अपेक्षा अधिक अधिकार दिया और उनका वेतन बढ़ा दिया.
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मेरा नाम डॉ. सजीव लोचन है. मैंने सिविल सेवा परीक्षा, 1976 में सफलता हासिल की थी. 2011 में झारखंड राज्य से मैं सेवा-निवृत्त हुआ. फिर मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने का सौभाग्य मिला. चूँकि मेरा विषय इतिहास रहा है और इसी विषय से मैंने Ph.D. भी की है तो आप लोगों को इतिहास के शोर्ट नोट्स जो सिविल सेवा में काम आ सकें, मैं उपलब्ध करवाता हूँ. मैं भली-भाँति परिचित हूँ कि इतिहास को लेकर छात्रों की कमजोर कड़ी क्या होती है.