दादाभाई नौरोजी – ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया

Sansar LochanModern History

दादाभाई नौरोजी एक महान देशभक्त थे. उन्हें भारत का वयोवृद्ध सेनानी (Grand old man of India) कहा जाता है. कांग्रेस की स्थापना के पूर्व भी दादाभाई नौरोजी ने राष्ट्रीय कल्याण की भावना से प्रेरित होकर सरकार के सामने अनेक प्रश्नों को उठाया था. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि “कांग्रेस के आरम्भ से लेकर जीवनपर्यन्त उसकी सेवा करते रहे, उन्होंने कांग्रेस को सर्वसाधारण की शासन-सम्बन्धी शिकायतों को दूर करने का प्रयास करने वाली सभा से बढ़ाकर एक राष्ट्रीय सभा का रूप प्रदान किया जिसका उद्देश्य स्वराज्य प्राप्त करना था.

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दादाभाई नौरोजी के विषय में महत्त्वपूर्ण तथ्य

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितम्बर, 1825 ई० को महाराष्ट्र के एक गाँव खड़क में एक निर्धन पारसी पुरोहित के घर हुआ था. दादाभाई नौरोजी ने एलफिन्सटन कॉलेज बम्बई में शिक्षा प्राप्त की और अपनी प्रखर प्रतिभा से अध्यापकों के बीच लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी. अंगरेजी के अध्यापक ने उन्हें भारत की आशाकी संज्ञा दी थी. एलफिन्सटन कॉलेज में ही उनकी नियुक्ति सहायक अध्यापक के पद पर हुई और वे गणित एवं प्राकृतिक दर्शन पढ़ाते थे. 1860 ई० में वे प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए. परन्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और अपना शेष जीवन समाज-सेवा में समर्पित कर दिया. 1862 ई० में उन्हें एक पारसी कम्पनी का साझेदार बनाया गया और वे कम्पनी के काम के सिलसिले में लन्दन गये. लन्दन में उन्होंने ब्रिटिश इंडियन सोसाइटी नामक संस्था की स्थापना की और सरकार का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया. दादाभाई नौरोजी को प्रथम प्रयास में विशेष सफलता नहीं मिली.

बम्बई लौटने के बाद 1873 ई० में वे बड़ौदा राज्य के दीवान बन गए और ब्रिटिश रेजिडेण्ट के साथ मतभेद हो जाने के कारण शीघ्र ही पदत्याग दिया. दादाभाई नौरोजी बम्बई नगर निगम के सदस्य निर्वाचित हुए और 1885 ई० में बम्बई काउन्सिल के सदस्य भी बने. दादाभाई नौरोजी काउन्सिल की सदस्यता से त्यागपत्र देकर इंगलैण्ड चले गये. 1892 ई० के आम निर्वाचन में वे कॉमन्स सभा के सदस्य चुन लिए गए. वे प्रथम भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश संसद का सदस्य निर्वाचित किया गया था. इंगलैण्ड में रहकर दादाभाई नौरोजी ने भारत के लिए महत्त्वपूर्ण काम किया. दादाभाई नौरोजी को 1886, 1893 और 1906 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष तीन बार बनाया गया था.

दादा भाई नौरोजी – पश्चिमी संस्कृति के प्रशंसक

दादाभाई नौरोजी ने 61 वर्ष तक भारतीय राष्ट्र की सेवा की. इनमें 40 वर्ष कांग्रेस की स्थापना के बाद का समय था. राष्ट्रीय सेवक के रूप में वे एक महान व्यक्ति थे. उनके चरित्र में उदारता एवं आदर्श पुरुष के सभी गुण मौजूद थे. अंगरेजों की न्यायप्रियता में उनकी आस्था थी. वे पश्चिमी संस्कृति के प्रशंसक थे. अंगरेजी साम्राज्य भारत के लिए लाभकारी था. ब्रिटिश साम्राज्य के कारण उत्पन्न कठिनाइयों एवं नौकरशाही के व्यवहार की उन्होंने कटु आलोचना भी की. अंगरेजों के सम्बन्ध में उनकी धारणा अच्छी थी. उन्होंने कहा था कि “यद्यपि जॉन बुल थोड़ा मन्द बुद्धि है. फिर भी एक बार उसे कोई बात समझा दी जाय कि वह ठीक और उचित है, तो आप उसके व्यवहार रूप में परिणत किये जाने के प्रति आशावान हो सकते हैं.”

ब्रिटिश सरकार की दमन एवं शोषण नीति ने उन्हें आगे चलकर सरकार-विरोधी बना दिया. 1905 ई० में बंगाल विभाजन के कारण सरकार पर से उनका विश्वास उठ गया. उग्र राष्ट्रवाद के जनक लाल-बाल-पाल का प्रभाव कांग्रेस में बढ़ चुका था. नरम और गरम दो दल में कांग्रेस का विभाजन होने ही वाला था. दोनों दल की आस्था दादाभाई नौरोजी के प्रति थी. 1906 ई० के अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने अध्यक्ष पद पर तीन क्रान्तिकारी सिद्धान्तों को पहली बार स्वीकार किया था. वे थे-विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और भारत में राष्ट्रीय शिक्षा का विकास. दादाभाई नौरोजी ने स्पष्टतः यह घोषणा की थी कि “हम कोई भीख नहीं मांगते, हम केवल न्याय याहते हैं. ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक होने के नाते हमारे क्या अधिकार हैं, इसकी मीमांसा किए बिना ही एक शब्द ‘स्वराज्य’ में सब कुछ व्यक्त किया जा सकता है, वैसा ही स्वराज्य जैसा ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रचलित है. “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे लेकर रहूँगा’ की घोषणा तिलक ने की थी तथा 1929 ई० में पूर्ण स्वराज्य की घोषणा आगे चलकर कांग्रेस का एकमात्र उद्देश्य बन गया था. इस अर्थ में दादाभाई नौरोजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग की थी.

धन निष्कासन सिद्धांत

भारत के आर्थिक शोषण को दादाभाई नौरोजी ने सबसे पहले प्रकाश में लाया था. उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “Poverty and un-British rule in India” में अंगरेजों के द्वारा भारत के आर्थिक साधनों को लूटने का स्पष्ट चित्र अंकित किया था. अंगरेजों की लूट से भारत की गरीबी बढ़ी है. अंगरेज दो तरह से भारतीय साधन को लूट रहे हैं. सर्वप्रथम यूरोपीय अधिकारी अपने वेतन से बहुत अधिक धन बचाकर इंगलैण्ड भेज देते हैं और उनको पेंशन भी भारतीय खजाने से दी जाती है. दूसरा अंगरेज जो धन भारत में इकट्ठा करते हैं उससे भारत की निर्धनता बढ़ती है और उनके पास धन नहीं रह पाता है. अंगरेज भारत के धन से पूँजीपति बन जाते हैं और उस पूँजी से इंगलैण्ड में उद्योग-धन्धा खड़ा कर लेते हैं. इंगलैण्ड से माल भेजकर भारतीय व्यापार पर उन्होंने एकाधिपत्य कायम कर लिया है. अतः अंगरेज एक तरफ अधिक धनवान होते जा रहे हैं और उसी अनुपात में भारतवासियों की दरिद्रता बढ़ती जा रही है. भारत की निर्धनता के लिए सही अर्थ में ब्रिटिश सरकार उत्तरदायी है.

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अन्य राष्ट्रीय नेताओं की तुलना में दादाभाई नौरोजी बहुत आगे थे. वे सबों को सन्तुष्ट रखना चाहते थे. गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि “यदि किसी व्यक्ति में भगवान वास करता है तो वह दादाभाई नौरोजी में था.” सर सी० वाई० चिन्तामणि ने भी कहा था कि “भारत के सार्वजनिक जीवन को अनेक बुद्धिमान और निःस्वार्थ नेताओं ने सुशोभित किया है, परन्तु हमारे युग में कोई भी दादाभाई नौरोजी जैसा नहीं था.”

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