उदारवादी तथा उग्रवादी विचारों की तुलना
तिलक ने लिखा है कि हमारी नीतियों के प्रति दो शब्दों का प्रयोग होने लगा हैः उदारवादी और उग्रवादी. ये शब्द समय से सम्बन्धित है. इसलिए ये समय के अनुसार बदल जायेंगे, जैसे कल के उग्रवादी आज के उदारवादी बन गये हैं, उसी प्रकार आज के उदारवादी कल के उग्रवादी बन जायेंगे. तिलक की उपरोक्त विवेचना के बावजूद यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाये तो हमें उदारवादी तथा उग्रवादी विचारों में कुछ मूलभूत अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं. उदारवादी दल और उग्रवादी दल के लोग दोनों ही मध्यम वर्ग से सम्बन्धित थे और दोनों ही अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीयों की शिकायतों को उद्घोषित कर रहे थे, फिर भी उनके विचारों तथा कार्य प्रणाली में काफी असमानताएँ थीं:-
- उदारवादी दल सामाजिक बराबरी और भारत के अंग्रेजी शासन में हिस्सेदारी मांगते थे, क्योंकि वे कहते थे कि हम भी अंग्रेजी प्रजा हैं. उगव्रादी दल यह अधिकार इसलिए मागंता था यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है.
- उदारवादी दल इंग्लैंड में रहने वाले लोगों से प्रार्थना करते थे और उन्हें अंग्रेजी इतिहास और राजनीतिक विचारों पर विश्वास था जबकि उग्रवादी दल के लोग भारतीय परम्पराओं से प्रेरणा ग्रहण करते थे.
- उदारवादी दल अंग्रेजों की दैवी देखरेख में राजनीतिक प्रशिक्षण में विश्वास करते थे. उग्रवादी दल अंग्रेजों के दैवी मिशन को केवल एक मायाजाल ही समझते थे.
- उग्रवादी दल के लोग उदारवादी आन्दोलन को राजनीतिक भिक्षावृति समझत थे. इसकी जगह लागे अहिंसात्मक प्रतिरोध आरै सामूहिक आन्दोलन में विश्वास करते थे.
- उदारवादियों के लिए स्वराज्य का अर्थ ‘‘साम्राज्य के अन्दर औपनिवेशिक स्वशासन’’ था, जबकि उग्रवादियों के लिए स्वराज्य का अर्थ ‘‘विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्राता’’ था.
- उदारवादियों का जन आन्दोलन में विश्वास नहीं था जबकि उग्रवादियों ने आरंभ से ही जन आन्दोलन छेड़ने का प्रयास किया.
नरमपंथियों के कार्यों विश्लेषण
- नरमपंथियों द्वारा साम्राज्य के प्रति राजभक्ति की अभिव्यक्ति तथा प्रशासनिक सुधार हेतु अनुनय-विनय की नीति प्रासंगिक हो चुकी थी. परिणामस्वरूप कांग्रेस के अन्दर ही नरमपंथी नेतृत्व एवं उनके विचारों पर एक बड़े समूह द्वारा सवालिया निशान खड़े किये जाने लगे.
- नरमपंथियों द्वारा कोई सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ करने में असफल रहने का कारण जनसहभागिता की कमी मानी गई और यह बात जोर पकड़ने लगी कि इन्हें भिक्षावृत्ति की नीति त्याग कर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए.
- भारत में 1896-1900 के बीच भयानक आकाल पड़े, जिसमें नब्बे लाख से अधिक लोग मारे गये. इसका कारण औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों को माना गया. अब यह अनुभव किया जाने लगा कि जब तक भारतीयों द्वारा नियंत्रित और संचालित, ब्रिटिश शासन का ग्रहण नहीं कर लेती, तब तक भारतीयों का आर्थिक पिछड़ापन, भुखमरी और अकाल दूर नहीं हो सकता. इसलिए नरमपंथियों की ब्रिटिश शासन के अधीन रहकर विकास की अवधारणा पूर्णरूप से नकार दी गई.
गरमपंथियों के कार्यों विश्लेषण
- गरमपंथियों ने स्वराज की प्राप्ति को अपना लक्ष्य घोषित किया. इन्होंने जन-आन्दोलन के तहत बहुसंख्यक जनता को राजनीतिक आन्दोलन की परिधि में लाकर राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार को विस्तृत किया.
- इनके द्वारा स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा का विस्तार जैसे कार्यक्रमों को आन्दोलन का आधार बनाया गया. स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देशप्रेम, आत्म-बलिदान एवं त्याग की भावना को विकसित किया गया.
- गरमपंथियों ने सांस्कृतिक विरासत को बढ़ाने में जोर लगाया जैसे उन्होंने गणपति महोत्सव और शिवाजी उत्सव जोर-शोर से मनाना शुरू किया.
- कृषकों की भूमिका स्वदेशी आन्दोलन में नगण्य रही क्योंकि गरमपंथियों ने कृषकों की मांगों को कभी नहीं उठाया और न ही इन्होंने “कर रोको” आन्दोलन को प्रोत्साहित किया.
- ये सामाजिक, आर्थिक समस्याओं को प्रभावपूर्ण तरीके से नहीं उठा पाए. परिणामस्वरूप बंग-भंग आन्दोलन ख़त्म होने के बाद कोई महत्त्वपूर्ण मुद्दा शेष नहीं रह पाया.
- गरमपंथियों ने भले ही पूर्ण स्वराज की माँग की पर उनके इस माँग में स्पष्टता की कमी विद्यमान थी. तिलक ने खुद इस बात को माना कि “वह संकटपूर्ण स्थिति में रोटी का एक टुकड़ा भी लेने को तैयार हैं.”
- इन सीमाओं के बाद भी गरमपंथी राजनीति का भारतीय आधुनिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है. प्रतिरोध की नई प्रणाली का विकास इन्होंने ही किया और उसी का परिणाम था कि गांधीवादी विचारधारा हमारे सामने आई.
उदारवादी नेता
कांग्रेस के शैशव काल में उसकी नीतियों को संचालित करने की जिम्मेदारी मुख्यतः दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और ए.ओ. ह्यूम पर थी.
दादा भाई नौरोजी (Grand Oldman of India)
दादा भाई नौरोजी कांग्रेस के विख्यात वयोवृद्ध नेता थे. कांग्रेस की स्थापना से अपनी मृत्यु तक वे इस संस्था से सम्बद्ध रहे. उनका जन्म 4 सितम्बर, 1825 को बम्बई में हुआ था. शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य करते हुए भी उन्होंने जनसवेा का काम किया. फलस्वरूप 1805 ई. में उन्हें बम्बई की व्यवस्थापिका सभा का सदस्य निर्वाचित किया गया. वे कलकत्ता में हुए कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन (1886) के अध्यक्ष बनाए गये. 1892 से 1895 तक ब्रिटिश संसद के सदस्य रहे. 1893 तथा 1906 में भी वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने. 1866 में उन्होंने लन्दन में ‘‘ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन’’ की स्थापना की. दादा भाई नौरोजी भी फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले की तरह अंग्रेजी साम्राज्य को न्याय और नैतिकता पर आधारित मानते थे, परन्तु ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक दुष्परिणामों को जनता के समक्ष रखा. अपनी पुस्तक ‘‘पॉवर्टी एण्ड अन ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’’ में धन निष्कासन की प्रक्रिया एवं उसके परिणामों की उन्होंने चर्चा की. 1906 में कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने लोकसेवाओं में भारतीयों की अधिक नियुक्ति करने की मांग की. वे कालांतर में भारत में स्वशासन की मांग का भी समर्थन करने लगे. उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षा के विकास का भी आह्नन किया. 1917 में उनकी मृत्यु हो गयी. वे पश्चिम भारत के पारसी परिवार के सदस्य थे.
फिरोजशाह मेहता (1845-1915)
फिरोजशाह मेहता दादा भाई नौरोजी के प्रमुख अनुयायियों में थे. इनका जन्म 1845 में बम्बई में हुआ था. वे बम्बई के प्रख्यात वकील थे. विद्यार्थी जीवन में ही इग्लैंड में वे दादा भाई नौरोजी के सम्पर्क में आए. उनके प्रभाव में आकर वे जनसेवा के कार्य में लग गये. उनका राजनीतिक जीवन 1870 के आसपास आरंभ हुआ. 1872 में वे बम्बई कारपोरेशन के सदस्य और 1886 में वे बम्बई विधायिका के सदस्य बनाए गये. सर मेहता भी अंग्रेजों की न्यायप्रियता सत्यता तथा ईमानदारी में विश्वास रखते थे. अंग्रेजी साम्राज्य को वे प्रगति का सूचक तथा भारत के लिए ईश्वरीय देन मानते थे.
गोपाल कृष्णगोखले (1866-1915)
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को वे भी प्रगति का सूचक और भारत के लिए ईश्वरीय देन मानते थे. गोखले महादेव गोविन्द रानाडे, जिन्हें महाराष्ट्र का सुकरात कहा जाता है, के अनुयायी थे. गोखले जी 1884 में रानाडे द्वारा स्थापित दक्कन शिक्षा समिति के सदस्य भी रहे. गोखले ने पहली बार 1889 में इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन के मंच से राजनीति में भाग लिया. 1897 में इन्हें और वाचा को भारतीय व्यय के लिए नियुक्त वेल्बी आयोग के सम्मुख साक्ष्य देने को कहा गया. 1902 में वह बम्बई विधान परिषद् के लिए तथा कालान्तर में शाही विधान परिषद् के लिए चुने गये. 1905 में वे बनारस कांग्रेस के अध्यक्ष बने. 1906 में वे इग्लैंड गये और 1909 में मार्ले मिन्टो रिपोर्ट बनाने में विशेष भूमिका निभाई. 1910 में वे पुनः शाही विधान परिषद् के लिए चुने गये. 1912 से 1915 तक उन्होंने भारतीय लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में काम किया. 1913 में उन्होंने समस्त भारत में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने के प्रयास किए. गोखले ने प्रायः शासक और शासित वर्ग के बीच एक मध्यस्थ की कठिन भूमिका निभाई. उन्होंने जनता की आकांक्षा को वायसराय तक और सरकार की कठिनाइयों को कांग्रेस को बताने का प्रयास किया. उग्रवादी दल ने उनकी संयम की बड़ी आलोचना की और प्रायः उन्हें ‘‘शिथिल उदारवादी’’ (Faint-hearted moderate) बताया. दूसरी ओर सरकार ने उन्हें कई बार उग्रवादी विचारों वाला व्यक्ति बताया और ‘‘छद्म वेशीय विद्रोही’’(A seditionist in disguise) की संज्ञा दी. मारले गोखले को “ताल दने वाला चिमटा” (Funning fork) कहता था.
1905 में गोखले ने ‘‘भारत सेवक मंडल’’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य भारत की सेवा के लिए राष्ट्रीय प्रचारक तैयार करना था और संवैधानिक ढंग से भारतीय जनता के सच्चे हितों को प्रोत्साहन देना था. गोखले नौरोजी से बहुत प्रभावित थे तभी तो उन्होंने कहा कि, ‘‘यदि मनुष्यों में कहीं देवत्व है तो वह दादा भाई में ही है.’’ दादा भाई निश्चय ही अभूतपूर्व व्यक्ति थे, वे भारत के ग्लैडस्टन थे.
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी (1848-1925)
इनका जन्म 1848 ई. में बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वे लंदन में आयोजित होने वाली ICS की परीक्षा में 1869 में शमिल हुए. वे पहले भारतीय थे जिन्हें इस परीक्षा में सपफलता मिली परन्तु सरकार ने उन पर कुछ आरोप लगाकर उन्हें सेवा मुक्त कर दिया. 1876 में उन्होंने कलकत्ता में आनन्द मोहन बोस के साथ मिलकर ‘‘इण्डियन एसोसिएशन’’ की स्थापना की. ‘‘बंगाली’’ पत्रिका का भी उन्होंने सम्पादन किया. राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए पूरे देश का दौरा किया. कांग्रेस की स्थापना में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. वे बंगाल प्रांतीय विधानसभा के सदस्य भी बने. उन्हें दो बार कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. वे बंग विभाजन के दौरान हुए उपद्रवों के कटु आलोचक थे जिससे उनकी प्रतिष्ठा में कमी आई. गाँधीजी द्वारा आरम्भ किए गये असहयोग आन्दोलन (1920-21) को भी उन्होंने अपना समर्थन नहीं दिया. इसलिए सरकार द्वारा उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गयी. वे 1921 से 23 तक बंगाल सरकार के मंत्री भी रहे. उन्होंने ‘‘ए नेशन इन द मेकिंग’’ नामक पुस्तक लिखी.
ए.ओ. ह्यूम (1829-1912)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एवं इसके प्रारम्भिक विकास में स्कॉटलैंड निवासी ए.ओ. ह्यूम का महत्वपूर्ण योगदान है. वे एक उदारवादी थे और भारतीयों से उन्हें गहरी सहानुभूति थी. उन्होंने भारतीयों की दशा सुधारने के लिए अनेक प्रयत्न किए. उन्होंने ‘‘जनता के मित्र’’ (People’s Friend) नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया जिसमें भारतीय समस्याओं से संबंधित लेख छापे गये. 1849 में वे बंगाल सिविल सर्विस में सम्मिलित हुए थे. 1885 से 1906 तक वे कांग्रेस के सचिव भी रहे.
आरंभिक अर्थशास्त्रीय पुस्तक जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषक चरित्र को उजागर किया :-
- Essay in Indian Economic – महादेव गोविन्द रानाडे
- Indian Poverty and UnBritish Rule in India – दादा भाई नौरोजी
- ‘Economic History of India’ – आर.सी. दत्त
- “Drain of Wealth” – दादा भाई नौरोजी
उग्रवादी नेता
बाल गंगाधर तिलक
उनके बारे में इस लिंक में जा कर पढ़ें > बाल गंगाधर तिलक
लाला लाजपत राय (1865- 1928)
पंजाब में लाला लाजपतराय ने नई सामाजिक व राजनीतिक चतेना लाने का प्रयास किया. पंजाब निवासी श्रद्धा से उन्हें ‘शेरे पंजाब’ और ‘पंजाब केसरी’ कहते थे. लाजपत राय का जन्म पंजाब के लुधियाना जिले के एक वैश्य परिवार में हुआ था. वे स्वामी दयानन्द के प्रभाव से कट्टर आर्य समाजी बन गये थे. वे DAV कॉलेज, लाहौर की स्थापना से भी संबंधित थे. वे एक निर्भीक पत्रकार थे. उन्होंने ‘पंजाबी’ और ‘वन्दे मातरम्’ समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया और एक अंग्रेजी पत्र “द पीपुल” (The People) भी आरंभ किया. वे देश के लिए कई बार जेल गये. 1905 में वह गोखले के साथ अंग्रेजी लोकमत को, भारतीय समस्याओं तथा इच्छाओं से अवगत कराने के लिए इंग्लैंड भी गये. लेकिन वे वहाँ से निराश ही लौटे. 1914 में वे फिर इंग्लैंड गये और वहां से अमेरिका गये, ताकि भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन प्राप्त कर सकें और साम्राज्यवाद के विरूद्ध लोकमत तैयार कर सकें. 1920 में वे कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये. 1922 में वे गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन वापस लेने के विरूद्ध थे, फलस्वरूप उन्होंने ‘‘स्वराज दल’’ बनाने में सी.आर. दास और मोती लाल नेहरू के साथ सहयोग किया. वे केन्द्रीय विधानसभा में स्वराज दल की ओर से चुने गये. वे हिन्दू-मुस्लिम एकता में पक्का विश्वास रखते थे, परन्तु वह अल्पसंख्यकों को प्रसन्न करने के लिए हिन्दुओं के हितों का बलिदान करने के लिए तैयार नहीं थे. इसी कारण उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ मिलकर ‘हिन्दू सभा’ का गठन किया. 1928 में उन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदशर्न किया आरै उन पर पुलिस ने लाठी से प्रहार किया, जिसके फलस्वरूप उनकी मृत्यु हो गयी. महात्मा गाँधी ने उनकी मृत्यु पर कहा था, ‘‘भारतीय सौरमंडल का एक सितारा डूब गया है.’’
विपिन चन्द्र पाल (1858-1932)
विपिन चन्द्र पाल का जन्म 1858 में असम के सिलहट जिला में हुआ था. बंगाल विभाजन विरोधी आन्दोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के प्रसार में भी भाग लिया. 1908 ई. में उन्हें श्री अरविंद घोष पर चलाए जा रहे मुकदमे में गवाही देने को कहा गया, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया. फलतः सरकार ने उन पर अदालत की मान हानि करने का मकुदमा चलाया और 6 माह कारावास की सजा दी. उन्हें गाधीजी की शांतिपूर्ण नीतियों और असहयोग आन्दालेन के सिद्धांत में आस्था नहीं थी. अतः असहयोग आन्दालेन के समय वे कांग्रेस से अलग हो गये. 1932 में उनकी मृत्यु हो गयी.
अरविंद घोष (1872-1950)
अरविंद घोष एक महान् दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे. इनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को बंगाल में हुआ था. वे बंग्ला और संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन और इटालवी भाषा भी जानते थे. भाषा और साहित्य के माध्यम से वे इतिहास से प्रभावित हुए. विश्व की महान् क्रान्तियों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला. उन्होंने बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुस्तक आनन्द मठ से प्रेरणा लेकर भारत माता की पूजा एवं वंदे मातरम् को अपना आदर्श बनाया. 1889 में उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. लदंन में वे ICS की परीक्षा में बैठे किन्तु असपफल रहे. लंदन में ही उन्होंने ‘‘कमल एवं कटार’’ (Lotus and Dagger) नामक गुप्त संस्था की सदस्यता गह्रण की तथा आजीवन देश सेवा का व्रत लिया. बंगाल विभाजन के अवसर पर उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करने एवं स्वदेशी आन्दोलन का प्रचार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे क्रान्तिकारी कार्यों से सम्बद्ध गुप्त समितियों से भी जुड़े हुए थे. अलीपुर बम केस में उन्हें भी अभियुक्त बनाया गया. उन्होंने अपने समाचार पत्रा ‘‘वन्दे मातरम’’ द्वारा घर-घर में क्रान्ति का संदेश पहुँचाया. उन्होंने ‘युगान्तर’ नामक पत्रिका भी निकाली, ‘सावित्री’ इनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है.
1910 में वे कलकत्ता छोड़कर पांडिचेरी चले गये. जहां उन्होंने एक आश्रम की स्थापना कर अपना सारा समय आध्यात्मिक चितंन में लगाया. अपने दर्शन को उन्होंने ‘‘कर्म’’ नामक पत्रिका के सहारे प्रचारित किया. पांडिचेरी में रहकर भी वे पूर्णतः राजनीति से अलग नहीं हुए. उन्होंने 1932 में कांग्रेस द्वारा सांप्रदायिक निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार किए जाने की आलाचेना की, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बिट्रने का पक्ष लिया एवं क्रिप्स को भारत आने पर बधाई का संदेश दिया. स्वाधीनता की प्राप्ति पर उन्होंने राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रसन्नता व्यक्त की. पांडेचेरी में ही 1950 में इनकी मृत्यु हो गयी.
निष्कर्ष
उदारवादियों की राजनीतिक माँगों का स्वरूप साधारण होते हुए भी आर्थिक माँगों का स्वरूप ब्रिटिश-विरोधी था. उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों का पर्दाफाश किया. कांग्रेस एक अखिल भारतीय संस्था थी, जिसकी मांगों का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष था. 1892 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम उदारवादियों के राजनीतिक प्रयासों ही पारित हुआ.
उग्रवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सामाजिक आधार व्यापक हो गया. इसमें सभी वर्गों के व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि हुई. कांग्रेस अब उच्च-मध्य वर्ग के साथ-साथ निम्न-मध्य वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करने लगी. कांग्रेस के स्वरूप में भी बदलाव आया क्योंकि अब यह अनुनय-विनय की राजनीति से ऊपर उठ गई और आन्दोलन की ओर अग्रसर हो गई.