राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) क्या होता है? समझें और जानें

Sansar LochanFiscal Policy and Taxation

kalua and tulsi together
कुछ लोगों के request पर कलुआ का नाम बदलकर Binod रख दिया गया है.

तुलसी अपने फ़ेसबुक एल्बम में मज़ेदार फ़ोटो अपलोड करने में लगी थी और ढेर सारे Likes के इंतज़ार में बैठी थी. तभी बिनोद आ गया.

बिनोद: तुलसी! क्या तुम्हें पता है कि अप्रैल-जुलाई में भारत का राजकोषीय घाटा (fiscal deficit) बहुत ही ज्यादा हो चुका है क्योंकि कोरोनोवायरस महामारी सरकार के राजस्व पर भारी पड़ रही है.

तुलसी : पर बिनोद! राजकोषीय घाटा क्या है और यह खतरनाक क्यों है?

बिनोद: क्या? तुमको इतना भी नहीं पता कि राजकोषीय घाटा क्या है? तुमने तो मेरे साथ ही Economics में स्नातक किया है.

तुलसी: तुम भी जानते हो कि मेरा सारा टाइम सेल्फी लेने में चला गया. तो मैंने सर की बहुत क्लासेज मिस कर दी थी. मैंने नोट्स भी नहीं बनाये. इसलिए तो नेट पे आजकल “10 दिन में सीखो इकोनॉमिक्स” का कोर्स ज्वाइन कर के रखी हूँ UPSC के लिए.

बिनोद:  खैर, छोड़ो. राजकोषीय घाटा (FD) = बजटीय घाटा + बाजार उधार + सरकार की अन्य देनदारियां

तुलसी: ऐसे मत बताओ! तुम तो सीधे सूत्र बताने लगे. थोड़ा विस्तार से बताओ.

बिनोद: ओके तो हम शुरुआत से तुमको बताते हैं. हर साल, सरकार आने वाले वर्ष के लिए अपनी आय और व्यय के लिए एक योजना बनाती है. इसे वार्षिक केंद्रीय बजट कहा जाता है और इसे संसद से अनुमोदित कराने की आवश्यकता होती है.

तुलसी: मगर, इसे संसद द्वारा अनुमोदित करने की आवश्यकता क्यों है?

बिनोद: क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 112 ऐसा कहता है!

बजट के भाग: राजस्व और व्यय

बिनोद: हर बजट में, आने वाला पैसा (राजस्व/revenue) और जाने वाला पैसा (व्यय/expenditure) का वर्णन होता है.

आने वाले पैसे को दो भागों में बांटा गया है – टैक्स और नॉन टैक्स.

और जाने वाले पैसे को – योजना व्यय और गैर योजना व्यय में विभाजित किया गया है.

तुलसी: अब यह टैक्स और नॉन टैक्स स्रोतों से आने वाला पैसा क्या है?

बिनोद: उदाहरण के लिए यह टेबल देखो

आने वाला पैसा का टेबल

टैक्स

प्रत्यक्ष कर

1.      आय कर

2.      निगम कर

3.      धन कर

4.      कैपिटल गेन टैक्स

अप्रत्यक्ष कर

1.      सीमा शुल्क,

2.      उत्पाद शुल्क,

3.      सेवा कर

4.      वैट

 

 

नॉन टैक्स

1.      शुल्क एकत्र (ड्राइविंग लाइसेंस, आरटीआई, पासपोर्ट)

2.      जुर्माना (यातायात उल्लंघन आदि)

3.      पीएसयू से आय (जैसे एयरइंडिया से लाभ) उपहार.

4.      अनुदान (संयुक्त राष्ट्र, जापान आदि से विदेशी सहायता)

तुलसी: और यह आउटगोइंग मनी अर्थात् जाने वाला पैसा क्या है? और उसके प्रकार – योजना व्यय और गैर योजना व्यय क्या है?

बिनोद: जाने वाला धन = वह क्षेत्र जहाँ सरकार धन खर्च करती है (व्यय).

योजना-व्यय का मतलब राष्ट्रीय पंचवर्षीय योजना से संबंधित गतिविधियों पर पैसा खर्च करना है.

गैर-योजना व्यय, स्पष्ट रूप से उन गतिविधियों पर पैसा खर्च करना है जो राष्ट्रीय पंचवर्षीय योजना से संबंधित नहीं हैं. उदाहरण के लिए नीचे वाला टेबल देखो.

जाने वाला पैसा का टेबल

योजना व्यय

 

1.      मनरेगा

2.      प्रधान मंत्री जन धन योजना

3.      प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना

4.      दीन दयाल उपाध्याय अन्त्योदय योजना

गैर योजना व्यय

 

1.      न्यायाधीशों, नौकरशाहों और सेनाओं का वेतन

2.      नए टैंक और मिसाइल खरीदना

3.      सब्सिडी: गैस, पेट्रोल, केरोसीन आदि.

4.      सरकारी कार्यालयों के बिजली बिल आदि.

तुलसी : ओ अच्छा! समझी, मगर इससे क्या?

बिनोद : दरअसल, हम आने वाले और बाहर जाने वाले पैसे के बीच संतुलन के अनुसार बजट को वर्गीकृत करते हैं.

तुलसी : अच्छा, वही बजट न जो साल में एक बार आता है और हम न्यूज़ में पढ़ते हैं कभी घाटे के बजट (deficit budget) के बारे में, तो कभी अधिशेष बजट (surplus budget) के बारे में और कभी संतुलित बजट (balanced budget) के बारे में.

बिनोद : वाह तुम तो इतना जानती हो. फिर भी बता देता हूँ कि कोई बजट घाटे का, अधिशेष या संतुलित बजट कब कहलाता है.

जब

कहलाता है

जाने वाला पैसा>आने वाला पैसा

घाटे का बजट

जाने वाला पैसा<आने वाला पैसा

अधिशेष बजट

जाने वाला पैसा=आने वाला पैसा

संतुलित बजट

वास्तव में, सरकार के पास हमेशा घाटे का बजट होता है. इसलिये जब तक पड़ोस में पाकिस्तान और चीन है, हमें एक बड़ी सेना को बनाए रखना होगा, नए टैंक और मिसाइल खरीदते रहना होगा. जब तक गरीब लोग हैं, हमें विभिन्न सरकारी योजनाएँ चलाते रहना होगा.

तुलसी : अब समझी.

बिनोद : हाँ. जब सरकार अपनी औकात से बाहर खर्च कर देती है, तो यह राजमार्ग में एक बड़ा गड्ढा बना देता है.

तुलसी : यह बीच में राजमार्ग कहाँ से आ गया?

बिनोद : राजमार्ग का मतलब समझ लो देश की अर्थव्यवस्था से. हाँ तो मैं कह रहा था कि जब सरकार अपनी औकात से बाहर खर्च कर देती है, तो यह राजमार्ग में एक बड़ा गड्ढा बना देता है. इस गड्ढे को राजस्व घाटा, बजट घाटा, राजकोषीय घाटा या प्राथमिक घाटा कहा जा सकता है. राजकोषीय घाटा के सूत्र के सहयोग से आप इस गड्ढे की गहराई को मापने में समर्थ होते हैं. पर याद रखो, इस गड्ढे को सीमेंट, गाद या अलकतरे से नहीं भरा जा सकता. इसे केवल नकदी से भरा जा सकता है.

तुलसी : पर यह कैश आएगा कहाँ से? और इस तरह के गड्ढे से हम भविष्य में बच कैसे सकते हैं?

बिनोद : इसके लिए हम लोगों को सबसे पहले राजकोषीय घाटा (fiscal deficit) को calculate करना होगा. 1980 के दशक में, सुखमय चक्रवर्ती समिति ने राजकोषीय घाटे का फार्मूला लाया.

राजकोषीय घाटा =

  1. बजटीय घाटा (= कुल व्यय – कुल आय)
  2. + बाजार उधार (= सरकारी प्रतिभूतियों के माध्यम से (G-Sec) / बॉन्ड)
  3. + अन्य देनदारियां (जैसे – पेंशन या भविष्य निधि)

तुलसी: लेकिन हम इस राजकोषीय घाटे की गणना क्यों करें?

बिनोद: यह राजकोषीय घाटा संख्या आपको यह बताती है कि कितना गड्ढा है और आपको यह विचार देती है कि आपको विभिन्न स्रोतों से कितने पैसे उधार लेने की आवश्यकता है.

तुलसी : हम पैसा लेते कहाँ से है?

बिनोद : भारत के भीतर (आंतरिक उधार – RBI, अन्य बैंकों आदि से लिया जाता है)

और विदेश से (बाहरी उधार- विश्व बैंक, आईएमएफ आदि से लिया जाता है)

जितना बड़ा गड्ढा होगा उतना ही अधिक नकदी चाहिए.

तुलसी : तो फिर क्या दिक्कत है. पैसा ले लो और यह गड्ढा भर दो, काम ख़त्म.

बिनोद : दिक्कत यह है कि पैसा पेड़ पर नहीं उगते. आप पैसा उधार लेते हैं, आप हर साल पार्टी को ब्याज का भुगतान करते हैं.

ब्याज का भुगतान करने के लिए आपके पास तीन विकल्प होते हैं = वर्तमान करों को बढ़ाएं या नए करों का निर्माण करें.

तुलसी : ओह यह तो एक अच्छा विकल्प नहीं है. दूसरा विकल्प क्या है?

बिनोद : दूसरा विकल्प है, आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में मदद करने के लिए नीतियां बनाएं ताकि इसके साथ कर संग्रह स्वचालित रूप से बढ़ जाए, जैसे विमानन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, बिजली क्षेत्र, बीमा आदि.

तुलसी : यह सब तो बड़ा लम्बा-चौड़ा प्रोसेस है. तीसरा विकल्प?

बिनोद : सरकार को अधिक मुद्रा छापना पड़ेगा करें और गड्ढे को भरने के लिए इसका उपयोग करना पड़ेगा. इसे ही ऋण मुद्रीकरण (debt monetization) कहा जाता है.

तुलसी : यह सुनने में सही लग रहा है. खुद का ही पैसा छापो और गड्ढे को भर दो.

बिनोद : वास्तव में यह तीनों समाधानों में से सबसे बेकार समाधान है. बताता हूँ क्यों!

क्यों पैसों का मुद्रण = अच्छा विचार नहीं है? 

मान लीजिए, सरकार RBI को गरीबी को हल करने के लिए बहुत सारी नकदी छापने का आदेश देती है. फिर सरकार ने “प्रधान मंत्री सूटकेस योजना (PMSY)” लॉन्च किया, जिसके तहत हर बीपीएल परिवार को एक सूटकेस दिया जाता है, जिसमें 10 लाख रुपये होते हैं. तब क्या होगा? वे सभी जाकर प्याज, दूध, मोबाइल, कार, मकान सब कुछ खरीद लेंगे = उत्पाद की मांग बढ़ेगी, लेकिन आपूर्ति लगभग पहले जैसी ही रहेगी. तो, एक ग्राहक को 400 रुपये प्रति किलो प्याज की पेशकश की जाएगी, तो दूसरा लड़का 500 रुपये प्रति किलो प्याज की पेशकश करेगा = मुद्रास्फीति = अच्छा नहीं. दूसरी ओर, मान लीजिए कि आपका बॉस आपको प्रति वर्ष 10 लाख का भुगतान करता है, लेकिन इसका मतलब है कि वह निश्चित रूप से आपसे 10 लाख से अधिक का काम करवाता है और किसी तीसरे ग्राहक को कुछ सामान / सेवाएं बेचता है.  इसीलिए आपको 10 लाख देने से महंगाई नहीं बढ़ती. (क्योंकि कुछ अन्य ग्राहक आपके द्वारा उत्पादित सेवाओं को खरीद रहे हैं). लेकिन उसे आर्थिक रूप से उत्पादक बनाए बिना किसी गरीब को 10 लाख देना = महंगाई बढ़ाता है. इसलिए समस्याओं को हल करने के लिए पैसे छापना = अच्छा विचार नहीं है.

चलो एक और उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करते हैं.

मान लो कि एक ही वस्तु है जिसे हर किसी को खरीदने की जरूरत है ताकि एक अच्छा जीवन किया जा सके. और वह वस्तु है गेहूं.

यह भी मान लें कि हमारा देश हर साल 10,000 क्विंटल गेहूं पैदा करता है. देश में कुल 25,000 लोग हैं जो गेहूं खरीदने के लिए प्रति वर्ष 400 रुपये खर्च करते हैं.

चूंकि दस हजार क्विंटल गेहूं खरीदने के लिए एक करोड़ रु. (Rs. 400x 25,000) खर्च किए जाते हैं इसलिए गेहूं की कीमत 1,000 रु.  प्रति क्विंटल है.

अब मान लीजिए कि अपने कुछ कर्ज को चुकाने के लिए सरकार ने कुछ नए करेंसी नोट छापने का फैसला किया. मान लीजिए कि सरकार 10 लाख रु. तक के नोट छापती है. इसका मतलब है कि रुपये खर्च करने के लिए उपलब्ध राशि 1 करोड़ रु से 1.1 करोड़ रु. हो जाती है.

चूंकि उत्पादित गेहूं की मात्रा में वृद्धि नहीं हुई है, इसलिए अब प्रत्येक टन गेहूं पर 1,100 रू. लगेगा अर्थात् दाम में  10% की वृद्धि हो गई.

इसलिए हमने देखा कि इससे “मुद्रास्फीति” बढ़ रही है और मुद्रास्फीति किसी देश के सभी लोगों पर एक अदृश्य कर की तरह काम करती है.

तुलसी : इसका मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि राजकोषीय घाटा बुरा होता है.

बिनोद : हमेशा बुरा नहीं होता. यह स्थिति पर निर्भर करता है.

तुलसी : कैसे?

राजकोषीय घाटा बुरा कब और क्यों होता है?

पहला तो यह महंगाई पैदा करता है : एक बड़ा और लगातार होने वाला राजकोषीय घाटा = साफ़-साफ़ इशारा करता है कि अर्थव्यवस्था में कुछ गड़बड़ है. इसका मतलब यह हो सकता है कि सरकार अनुत्पादक कार्यक्रमों पर पैसा खर्च कर रही है जो आर्थिक उत्पादकता में वृद्धि नहीं करते हैं. (उदाहरण के लिए मनरेगा, ज्यादातर पैसा सरपंच और स्थानीय अधिकारियों द्वारा खा लिया जाता है.) अब ये अमीर सरपंच और स्थानीय अधिकारी अधिक सोना, जमीन और कार खरीदते हैं = मांग बढ़ी है, लेकिन अन्य सामान्य लोगों के पास इतना पैसा नहीं है = मुद्रास्फीति का आगमन.

काला धन  : राजकोषीय घाटा = जब आने वाले पैसे कम होते हैं और बाहर जाने वाले पैसे अधिक होते हैं. तो, आने वाला पैसा कम है = कर संग्रह प्रणाली प्रभावी नहीं है = शायद बहुत सारे लोग कर नहीं देकर अपना-अपना लाभ उठा रहे हैं = काला धन = मुद्रास्फीति = जो बहुत बुरा है.

तुलसी : थैंक यू! बिनोद! यू आर माई स्वीटहार्ट.

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