लॉर्ड कर्जन की विदेश नीति के विषय में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें.
उत्तर :-
लॉर्ड कर्जन की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की सुरक्षा करना. वह एशियाई प्रदेशों पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहता था, जिससे अन्य कोई शक्ति इनपर अपना प्रभाव कायम नहीं कर सके. एशियाई देशों के प्रति अपनी नीति स्पष्ट करते हुए उसने कहा, “हम इन्हें अपने अधीन नहीं चाहते; परंतु हम यह भी नहीं देख सकते कि कोई अन्य शत्रु इन्हें अपने अधीन कर ले.” फलतः, उसने अग्रगामी विदेश नीति अपनाई. उसकी विदेश नीति का संबंध मुख्यतः कबायली क्षेत्र, अफगानिस्तान, फारस तथा तिब्बत से है.
कर्जन की उत्तर-पश्चिम सीमा नीति
सर्वप्रथम कर्जन ने उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित कबायलियों के प्रति अपनी नीति निश्चित की. कबायली सीमांत प्रदेश में बसे हुए थे. ये सदैव अंगरेजी क्षेत्रों पर आक्रमण कर सरकार को क्षति पहुँचाया करते थे. लॉर्ड एल्गिन द्वितीय के काल में ही कबायलियों ने वहाँ उत्पात मचाकर संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी थी. फलतः, 1899 ई० में ही करीब दस हजार सैनिकों को इस क्षेत्र में कबायलियों पर काबू पाने के लिए भेजा गया था. जब कर्जन भारत आया, तब उसने सीमांत की सुरक्षा की तरफ समुचित ध्यान दिया. उसने “सैनिक तथा आर्थिक सहायता की मिश्रित नीति का अनुसरण किया और “सिंधु की ओर लौटो” नीति का परित्याग किया. अपनी नीति के अनुसार कर्जन ने अंग्रेजी सेना को कबायली क्षेत्र से हटाकर अंग्रेजी क्षेत्र में नियुक्त किया. फलतः, खैबरदर्रा, कुर्रमवादी, वजीरिस्तान इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी सेना हटाकर कबायली सेना नियुक्त की गई. समूचे सीमांत प्रांत में रेल एवं सड़कों का निर्माण एवं विस्तार किया गया. उसने कबायलियों को यह आश्वासन दिया कि जब तक कबायली शांतिपूर्ण तरीके से रहेंगे भारत सरकार करेगी एवं उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी. प्रशासनिक सुविधा के लिए कर्जन ने सिंधु नदी के पश्चिमी क्षेत्र को पंजाब से अलग कर दिया. इसका नाम उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत रखा गया. इसका प्रशासन चीफ कमिश्नर को सौंपा गया. पुराने उत्तर-पश्चिमी प्रांत से अवध एवं आगरा को अलग कर संयुक्त प्रांत कायम किया गया. कबायली क्षेत्र में युद्ध के सामानों के निर्यात को नियंत्रित किया गया. इस क्षेत्र के आस-पास कबायलियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए अंग्रेजी सेना भी अच्छी संख्या में रखी गई. कबायली नेताओं को अपने पक्ष में करने के लिए आर्थिक सहायता भी कर्जन ने दी. उसके इन कार्यों के परिणामस्वरूप कबायली क्षेत्र में शांति स्थापित हो गई. कर्जन की नीति का अनुकरण उसके पश्चात् भी किया गया.
अफगानिस्तान से संबंध
कर्जन अफगानिस्तान के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहता था. लॉर्ड एल्गिन के शासनकाल में अफगानिस्तान के शासक अब्दुरररहमान पर अगरेजों ने अपने विरुद्ध अफगानों को भड़काने का आरोप लगाया था, परंतु कर्जन ने मित्रवत् संबंध ही बनाए रखे. 1901 ई० में अब्दुर्ररहमान की मृत्यु के पश्चात् हबीबुल्ला राजा बना. कर्जन चाहता था कि नया शासक अफगानिस्तान ओर अंग्रेजी सरकार के मध्य हुई पुरानी संधि की पुष्टि करे. हबीबुल्ला ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया. फलतः, दोनों के बीच मनमुटाव बढ़ा. कर्जन ने अफगानिस्तान को दी जानेवाली आर्थिक सहायता बंद कर दी. 1904 ई में कर्जन की अनुपस्थिति में लॉर्ड एम्टहिल ने हबीबुल्लाह से पुनः संबंध सुधारकर उसे आर्थिक सहायता देना प्रारंभ कर दिया.
खाड़ी-क्षेत्र की नीति
लॉर्ड कर्जन ने फारस की खाड़ी में भी अंग्रेजी हितों की सुरक्षा की . इस क्षेत्र में अंग्रेजी दिलचस्पी 17वीं शताब्दी से ही थी. फलतः, उन्होंने अनेक इलाकों पर अपना अधिकार कायम कर लिया, समुद्री डाकुओं का आतंक समाप्त किया, अरब सरदारों के झगड़ों में मध्यस्थता की भूमिका निभाई और अदन से बलुचिस्तान तक के क्षेत्र में शांति एवं सुव्यवस्था कायम की. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से रूस, फ्रांस, जर्मनी एवं तुर्की की भी दिलचस्पी इस प्रदेश में बढ़ गई. इससे अंग्रेजी हितों को खतरा पैदा हो गया. कर्जन ने अगरेजी स्वार्थों की रक्षा का उपाय किया. इसी बीच 1898 ई० में मस्कट के फ्रांसीसी कौंसिल ने ओमन के सुल्तान से जिस्साह नामक स्थान एक कोयला स्टेशन के रूप में हासिल कर लिया. कर्जन ने ओमन की सरकार को धमकी दी कि वह फ्रांसीसियों को दी गई सुविधाएँ वापस ले ले अन्यथा सैनिक कार्यवाही की जाएगी. उसने कर्नल मीड के अधीन एक अंग्रेजी युद्धपोत भी भेज दिया. बाध्य होकर सुल्तान को फ्रांस को दी गई रियायतें वापस लेनी पड़ीं. इसी प्रकार कर्जन ने रूस, तुर्की और जर्मनी को भी खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने से रोक दिया . इस प्रकार, कर्जन की नीतियों के फलस्वरूप फारस की खाड़ी-क्षेत्र में अंग्रेजी प्रभाव अक्षुण्ण रूप से बना रहा.
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति उसके वायसराय काल की महत्त्वपूर्ण घटना है. गवर्नर-जनरल लॉर्ड वारेन हैस्टिंग्स के समय में ब्रिटिश सरकार तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने का यत्न कर रही थी और इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए उसने अनेक मिशन भी वहाँ भेजे थे, परन्तु उनसे कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई थी और 1885- 86 ई० तक कोई सन्तोषजनक सम्बन्ध स्थापित न किया जा सका. 1886 ई० में चीन की सरकार ने ब्रिटिश व्यापार मण्डल को तिब्बत आने की आज्ञा दी और कुछ समय के बाद उसे यातुग में भी व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई. परन्तु तिब्बत के लोग सामान्य रूप से अंगरेजों के विरुद्ध थे और इसलिए चीन की सरकार से आज्ञा मिल जाने पर भी ब्रिटिश सरकार को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ.
जब लॉर्ड कर्जन भारत पहुँचा तो उस समय तिब्बत में कुछ नये राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे जिन्होंने वायसराय के ध्यान को भी आकृष्ट किया. तिब्बत के लोगों में चीन से स्वतंत्र होने की दृढ़ भावना उत्पन्न हो गई थी और उसके नेता दलाई लामा ने डोरजीफ के प्रभाव से, जो जन्म से रूसी प्रजाजन था, रूसी प्रभाव का स्वागत करना आरम्भ कर दिया. दलाई लामा ने अपने-आपको शक्तिशाली स्वतंत्र शासक के रूप में प्रमाणित किया. उसने वयस्क होते ही रीजेन्सी सरकार का तख्ता उलट दिया और उसपर शक्तिपूर्ण अधिकार करके दृढ़ धारणा तथा योग्यता से शासन-भार को सम्भाल लिया. उसने 1898 ई० में डोरजीफ को रूस में रहने वाले बौद्धों से धार्मिक कार्यों के लिए धन इकट्ठा करने को ल्हासा से रूस भेजा. डोरजीफ ने अगले कुछ वर्षो में अनेक बार रूस की यात्रा की और 1900 ई० तथा 1901 ई० में वह रूसी सम्राट से भी मिला. रूसी समाचारपत्रों ने डोरजीफ की यात्राओं को बहुत महत्व दिया और तिब्बत में बढ़ते हुए रूसी प्रभाव का स्वागत किया. भारत-सरकार इन सूचनाओं से चिन्तित हो उठी और उसने समझा कि रूसी सरकार डोरजीफ के द्वारा उसके पड़ोसी प्रदेश तिब्बत में राजनीतिक प्रभाव बढ़ा रही है. लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में रूसियों के मामले को गम्भीरतापूर्वक लिया क्योंकि इससे एशिया में अंगरेजों के सम्मान को धक्का लगने की सम्भावना थी.
लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में एक मिशन भेजने के लिए इंगलैण्ड की सरकार पर जोर डाला. उसने तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी जोर दिया, परन्तु इंगलैण्ड की सरकार मिशन भेजने के पक्ष में नहीं थी. इसपर लॉर्ड कर्जन ने यह सुझाव रखा कि सिक्किम की सीमा से पन्द्रह मील उत्तर में खाम्बाजोंग नामक स्थान पर तिब्बत और चीन से बातचीत की जाये और दोनों सरकारों पर सन्धि-दायित्वों को पूरा करने की आवश्यकता पर जोर डाला जाये. यदि दूत वहाँ न पहुँचे तो ब्रिटिश कमिश्नर ही शिगांत से वहाँ पहुँचे. इंगलैण्ड की सरकार ने अनिच्छा से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया और कर्नल एफ० ई० यंग हसबैंड के नेतृत्व में एक मिशन खाम्बाजोंग भेज दिया.
कर्नल यंग हसबैंड जुलाई, 1903 ई० खाम्बाजोंग पहुँचा, परन्तु तिब्बतियों ने तब तक सम्मेलन में आने से इनकार कर दिया जब तक कि मिशन सीमा तक वापस न लौट जाए. इससे बातचीत में गत्यावरोध उत्पन्न हो गया. इसी बीच तिब्बतियों ने खाम्बाजोंग के निकट अपनी सेनाओं को एकत्रित करना शुरू कर दिया. लॉर्ड अर्जन इस बात को सहन न कर सका और उसने इंगलैंड की सरकार से ग्यान्त्से तक सेनाओं को भेजने की स्वीकृति मांगी. विदेश मंत्री लॉर्ड लैंसडाउन ने इस शर्त पर स्वीकृति दे दी कि क्षतिपूर्ति हो जाने पर सेनायें वापस लौट आएँगी.
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