गुरु नानक देव की संक्षिप्त जीवनी और शिक्षाएँ

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आज हम गुरु नाना देव की जीवनी और उनके द्वारा दी गई अमृततुल्य शिक्षाओं के बारे में पढेंगे. चलिए पहले जानते हैं कि गुरु नानक जी का प्रारंभिक जीवन कैसा था.

गुरु नानक का प्रारंभिक जीवन

सिख धर्म के प्रणेता गुरु नानक देव रावी के तट पर स्थित तलवंडी (आधुनिक ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में नवम्बर 1469 ई. में एक खत्री परिवार में उत्पन्न हुए थे. उनके पिता का नाम मेहता कालू चंद था. उनका विवाह 18 वर्ष की आयु में ही हो गया था और उन्हें पिता के व्यवसाय से सम्बंधित लेखा-जोखा तैयार करने में प्रशिक्षित करने के लिए फारसी की शिक्षा दी गई थी. किन्तु गुरुनानक का झुकाव प्रारंभ से ही अध्यात्मवाद और भक्ति की ओर था और वे सत्संग में बहुत आनंद उठाया करते थे. गृहस्थ जीवन में उन्हें किसी आनंद का अनुभव नहीं  हुआ. यद्यपि उनके दो बेटे (श्रीचंद और लखमीदास) थे लेकिन उन्हें कुछ समय तक जब गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद आध्यात्मिक दृष्टि मिली तो उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया. वह काव्य रचना करते थे और सारंगी के साथ गाया करते थे. संसार के बहुजीवों के कल्याणार्थ इन्होंने अनेक यात्राएँ कीं. कहते हैं कि वे चीन, बर्मा, श्रीलंका, अरब, मिश्र, तुर्की, अफगानिस्तान आदि देशों में गए. उनके दो शिष्य बाला और मर्दाना प्राय: उनके साथ रहे. बड़ी संख्या में लोग उनकी ओर आकृष्ट हुए.

शिक्षाएँ और विचार

गुरु नानक जी के धार्मिक विचार

एकेश्वरवाद

कबीर की भांति नानक ने भी एकेश्वरवाद पर बल दिया. उन्होंने ऐसे इष्टदेव की कल्पना की जो अकाल, अमूर्त, अजन्मा और स्वयंभू है. उनके विचारानुसार ईश्वर को न तो स्थापित किया जा सकता है और न ही निर्मित. वह स्वयंभू है, वह अलख, अपार, अगम और इन्द्रियों से परे है. उसका न कोई काल है, न कोई कर्म और न ही कोई जाति है. उन्होंने एक दोहे में कहा – “पारब्रह्म प्रभु एक है, दूजा नाहीं कोय.”

भक्ति और प्रेम मार्ग तथा आदर्श चरित्र

गुरु नानक देव के अनुसार ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम से ही मुक्ति संभव है. इसके लिए वर्ण, जाति और वर्ग का कोई भेद नहीं है. उनके अनुसार अच्छे व्यवहार और आदर्श तथा उच्च चरित्र से ईश्वर की निकटता प्राप्त की जा सकती है.

गुरु की महत्ता का गुणगान और आडम्बरों का विरोध

गुरु नानक ने भी मार्ग या पथ प्रदर्शन के लिए गुरु की अनिवार्यता को पहली शर्त माना. उन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थयात्रा आदि धार्मिक आडम्बरों की कटु आलोचना की. उन्होंने अवतारवाद का भी विरोध किया.

ईश्वर सर्वव्यापक है

गुरु नानक ने संसार को माया से परिपूर्ण नहीं बल्कि कण-कण में ईश्वरीय शक्ति से युक्त देखा है.

जीव और आत्मा में अटूट सम्बन्ध है

नानक के विचारानुसार जीव परमात्मा से उत्पन्न होता है. जीव में परमात्मा निवास करता है और आत्मा अमर है.

मध्यममार्ग और समन्वयवादी दृष्टिकोण

ने अपने भक्तों को मध्यम मार्ग अपनाने पर बल दिया, जिस पर चलकर गृहस्थ-आश्रम का पालन भी हो सकता है और आध्यात्मिक जीवन भी अपनाया जा सकता है. कबीर की भांति नानक ने भी साम्प्रदायिकता का विरोध किया और हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया. वस्तुतः उनका लक्ष्य नए धर्म की स्थापना करना नहीं था. उनका पवित्रतावादी दृष्टिकोण शान्ति, सद्भावना और भाईचारा स्थापित करने के लिए ही तथा हिंदू-मुस्लिम के मध्य मतभेद दूर करना था. उन्होंने इसका अनुभव किया कि समाज के घाव को भरने के लिए धार्मिक मतभेद दूर करना परमावश्यक है. उनके विचारानुसार हिंदुत्व और इस्लाम ईश्वर के पास पहुँचने के दो अलग-अलग मार्ग हैं लेकिन इन दोनों का लक्ष्य एक है – ईश्वर की प्राप्ति. उनके अनुसार हिंदू-मुस्लिम संत परवरदिगार के दीवाने हैं. वे दोनों सम्प्रदायों में समन्वय और एकता स्थापित कर देश में सद्भावना और शांति की स्थापना करना चाहते थे.

गुरु नानक जी के सामाजिक विचार

जातिवाद

उन्होंने जातिवाद का विरोध किया. वे सच्चे मानववादी थे. उन्होंने मानव समाज की सेवा को ही सच्ची ईश्वर आराधना माना. वे प्रत्येक मानव को समान मानते थे और मात्र प्रेम की शिक्षा देते थे. उनका प्रेम मौखिक न होकर सेवा भावना से ओतप्रोत था.

स्त्री-शक्तीकरण

उनका स्त्रियों के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण था. उन्होंने स्त्रियों को महान् माना. गुरु नानक ने अपने धर्म में स्त्रियों के खोये हुए अधिकारों को वापस दिलाने की आवश्यकता पर जोर दिया. उन्होंने स्त्रियों और पुरुषों की समानता पर बल दिया.

आर्थिक विचार

गुरुनानक देव ने गरीब को अमीर से अधिक प्यार किया और ईमानदारी की कमाई को सच्ची कमाई माना. उनके अनुसार धनी मनुष्य अहंकार के वशीभूत होकर राक्षसी कर्म करता है. उन्होंने कहा कि जो लोग सम्पत्ति को अपना समझते हैं वे सचमुच मूर्ख होते हैं. नानक ने धन संग्रह के स्थान पर उसके उचित वितरण पर जोर दिया.

संक्षेप में कहा जा सकता है कि गुरु नानक की शिक्षाएँ और विचार महान् और प्रभावशाली थे. उन्होंने कबीर के बाद मध्ययुगीन भारतीय समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया. उनका व्यक्तित्व शांत होते हुए भी इतना शक्तिशाली और प्रभावशाली था कि वह किसी व्यक्ति का दिल बिना दुखाये ही उसके बुरे संस्कारों को नष्ट कर देता था. उनकी वाणी में गजब की मिठास, पवित्रता, निष्ठा और विचारों में प्रवाह और गति थी. उन्होंने न केवल सामाजिक दोषों के विरुद्ध आवाज उठायी बल्कि धार्मिक अंधविश्वासों पर भी जोरदार प्रहार किया. उन्हीं के विचारों ने आगे चलकर सिख धर्म का रूप ग्रहण किया.

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