आज इस पोस्ट में हड़प्पा समाज, राजनैतिक संगठन, प्रशासन एवं धर्म के विषय में बात करेंगे. इस पोस्ट को लिखने में NCERT, IGNOU आदि किताबों की मदद ली गई है और शोर्ट नोट्स बनाने का प्रयास किया गया है.
सामाजिक व्यवस्था
लिखित सामग्री के अभाव में सामाजिक व्यवस्था की पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं है, पर खुदाई में प्राप्त सामग्री के आधार पर सामाजिक जीवन के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है.
परिवार
परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई थी. परिवार का रूप संयुक्त था या एकाकी इस विषय में हमें जानकारी नहीं है. परिवार में पुरुष की प्रधानता थी या स्त्री की यानी परिवार पितृसत्तात्मक था या मातृसत्तात्मक इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है. चूँकि मातृसत्तात्मक समाज प्राक्-आर्य सभ्यता में पाए जाते हैं इसलिए अधिकतर विद्वानों का यह विचार है कि सिन्धु-समाज मातृसत्तात्मक ही था, जिसमें औरतों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था. खुदाइयों में प्राप्त बड़ी संख्या में स्त्री-मूर्तियों को देखने से भी मातृसत्तात्मक समाज के होने का संकेत मिलता है.
सामाजिक वर्गीकरण
सिन्धु घाटी का समाज कितने वर्गों में विभक्त था इसके विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं है. कुछ विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता से प्राप्त दो प्रकार के भवनों के आधार पर अनुमान लगाया है कि वहाँ का समाज उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग में विभक्त था परन्तु चूँकि प्राचीन सभ्यताओं, सुमेर, मिस्र आदि में समाज मुख्यतः तीन वर्गों में बंटा हुआ था, इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता का समाज भी मुख्यतः तीन वर्गों में बंटा होगा. प्रथम वर्ग में शासक, योद्धा, पुरोहित इत्यादि होंगे. दूसरा वर्ग व्यापारियों, लिपिकों एवं अन्य कुशल कारीगरों का रहा होगा. तीसरे वर्ग में किसान, मजदूर एवं अन्य श्रमजीवी रहे होंगे. अन्य सामाजिक संस्थाओं, जैसे – विवाह का प्रचलन था या नहीं, इसकी भी जानकारी हमें प्राप्त नहीं है.
राजनीतिक संगठन एवं प्रशासन
हंटर महोदय ने यहाँ के शासन को जनतंत्रात्मक शासन कहा है. मैके मोहदय के विचार हैं कि यहाँ एक प्रतिनिधि शासक शासन का प्रधान था, परन्तु उसका स्वरूप क्या था यह निश्चित नहीं है.
पिगट इसे दो राजधानियों वाला राज्य मानते हैं जिसका शासन पुरोहित राजा दो राजधानियों से चलाता था.
ह्वीलर का भी मत है कि हड़प्पा में सुमेर और अक्कड़ की भाँति पुरोहित शासक राज्य करते थे. अर्थात् यहाँ का शासनतंत्र धर्म पर आधारित पुरोहित राजाओं का निरंकुश राजतंत्र था. परन्तु इस विषय में कोई निश्चित मत स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में प्रतिपादित नहीं किया जा सकता है.
पर नगर-निर्माण योजना इत्यादि को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जो भी शासन-व्यवस्था रही होगी वह सुदृढ़ होगी क्योंकि इस विस्तृत सभ्यता के विभिन्न स्थलों पर एक जैसी भवन-निर्माण योजना, सड़कों एवं नालियों का प्रबंध, माप-तौल के साधन आदि देखने को मिलते हैं. युद्ध-सम्बन्धी अस्त्रशास्त्रों के अभाव को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था थी तथा जनता आंतरिक एवं बाह्य खतरों से बहुत हद तक मुक्त थी. राज्य के दो प्रशासनिक केंद्र हड़प्पा और मोहनजोदड़ो थे जहाँ से सम्पूर्ण क्षेत्र पर शासन किया जाता होगा. प्रो. आर. एस. शर्मा के मत में – “संभवतः हड़प्पा संस्कृति के नगरों में व्यापारी वर्ग का शासन चलता था”.
मत | विचारक |
1. हड़प्पा कालीन प्रशासन
“माध्यम-वर्गीय जनतंत्रात्मक शासन” था तथा उसमें धर्म की प्रधानता थी. |
व्हीलर |
2. सिन्धु प्रदेश के शासन पर पुरोहित वर्ग का प्रभाव था | स्टुअर्ट पिगट |
3. मोहनजोदड़ो का शासन राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक था | हंटर |
4. हड़प्पाकालीन प्रशासन गुलामों पर आधारित प्रशासन था | बी.बी. स्टुर्ब |
5. सैन्धव काल में कई छोटे-बड़े राज्य रहे होंगे तथा प्रत्येक का अलग-अलग मुख्यालय रहा होगा. | बी.बी. लाल |
6. मोहनजोदड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों में था | मैके |
हड़प्पाई धर्म
बहुदेववादी
अन्य प्राचीन निवासियों की ही तरह सिंधु घाटी के निवासी भी प्रकृति पूजक थे. वे प्रकृति के विभिन्न शक्तियों को पूजा करते थे. वे बहुदेववादी भी थे. कुछ विद्वानों ने सुमेर और सिन्धु घाट की सभ्यता के बीच धार्मिक समता स्थापित करने की कोशिश की है, परन्तु यह समानता उचित प्रतीत नहीं होती है. यह सत्य है कि सुमेरवासी भी सिन्धु निवासियों की तरह बहुदेववादी एवं प्रकृति के पूजक थे परन्तु जहाँ सुमेर में हम पुरोहितों और मंडियों का स्पष्ट प्रभाव देखते हैं वहाँ सिन्धु घाटी में अभी तक किसी भी मन्दिर के अवशेष देखने को नहीं मिले हैं. उसी प्रकार सिन्धु घाटी में पुरोहित वर्ग था या नहीं और अगर था तो इसका धार्मिक जीवन में क्या स्थान था? इसकी जानकारी हमें उपलब्ध नहीं है.
मातृदेवी की पूजा
सिंधु घाटी में खुदाई से बड़ी संख्या में देवियों की मूर्तियाँ मिली है. ऐसी मूर्तियाँ समकालीन पश्चिमी एशिया के अन्य सभ्यताओं में भी प्राप्त हुई हैं. ये मूर्तियाँ मातृदेवी अथवा प्रकृति देवी की है. अतः कहा जा सकता है कि लोग मातृ देवी की पूजा किया करते थे. एक चित्र में स्त्री के पेट से एक पौधा निकलता हुआ दिखाई देता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इसका सम्बन्ध पृथ्वी की देवी, पौधों की उत्पत्ति और लोगों के विश्वास से था. एक-दूसरे चित्र में एक स्त्री पालथी मारकर बैठी हुई है और इसके दोनों ओर पुजारी हैं. संभवतः इसी से भविष्य में शक्ति की पूजा, मातृपूजा और देवीपूजा का प्रचालन हुआ. इसका प्रभाव आज भी हिन्दू धर्म पर देखने को मिलता है. सिन्धुघाटी के लोगों की मातृदेवी के अनेक रूप देखने को मिलते हैं.
शिव पूजा
मातृशक्ति के साथ-साथ हिन्दू धर्म के लोकप्रिय देवता भगवान् शिव की पूजा के प्रचलित होने के भी प्रमाण हैं. शिव को हिन्दू धर्म में भी महायोगी, पशुपति एवं त्रिशूलधारि के रूप में पूजा जाता है. सिन्धु घाटी के धर्म में शिव की उपासना का यही रूप था.
लिंग और योनि पूजा
मातृदेवी और शिव के अतिरिक्त सिन्धु निवासी लिंग और योनि की पूजा प्रतीक रूप में करते थे. इसके द्वारा ईश्वर की सृजनात्मक शक्ति के प्रति वे अपनी आराधना की भावना प्रदर्शित करते थे.
हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाइयों में लिंग एवं योनियों की प्रतिमाएँ काफी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं. ये पत्थर, चीनी मिट्टी अथवा सीप के बने हुए हैं. कुछ लिंगों का आकार बहुत छोटा था. संभवतः छोटे आकार के लिंगों को लोग शुभ मानकर ताबीज के रूप में हमेशा अपने साथ रखते थे. इसके विपरीत बड़े लिंगों को किसी निश्चित स्थान पर प्रतिष्ठित करके पूजा जाता होगा. योनियाँ छल्ले के रूप में पाई गई हैं. इस प्रकार सिन्धु निवासी लिंग और योनियों द्वारा सृष्टिकर्ता या शिव की पूजा करते थे.
वृक्ष पूजा
सिन्धु निवासी वृक्षों की भी पूजा करते थे. खुदाई से वृक्षों के अनेक चित्र मुहरों पर अंकित मिले हैं. एक मुहर पर, जो मोहनजोदड़ो से पाई गई है, दो जुड़वां पशुओं के सिरों पर पीपल की पत्तियाँ दिखलायी गई हैं. एक अन्य मुहर में पीपल की डाली के बीच एक देवता का चित्र है.
पशु पूजा
वृक्ष की पूजा के अतिरिक्त सिन्धु निवासी विभिन्न पशुओं की भी पूजा करते थे. खुदाइयों में मुहरों पर इन पशुओं के चित्र मिले ही हैं, साथ ही साथ इनकी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं. मानव एवं पशुओं की आकृतियों का सम्मिश्रण कर अनेक पशुओं की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं. इससे सपष्ट है कि सिन्धु निवासी पशुओं में भी दैवी अंश की कल्पना कर उनकी पूजा करते थे. कुछ पशुओं को देवता का वाहन भी समझा जाता था. पशुओं में सबसे प्रमुख कुबड़वाला करते थे. सांड के अतिरिक्त भैंसा, बैल और नागपूजा की भी प्रथा प्रचलित थी. इनकी पूजा इनसे प्राप्त होनेवाले लाभ अथवा उनके डर से किया जाता होगा.
जल एवं प्रतीक पूजा
सिन्धु निवासी संभवतः जल देवता की भी पूजा करते थे या स्नान को धार्मिक अनुष्ठान का दर्जा प्रदान किया गया था. संभवतः इसी उद्देश्य से मोहनजोदड़ो में विशाल स्नानागार का प्रबंध किया गया था. खुदाइयों से सींग, स्तम्भ और स्वस्तिक के चित्र भी मुहरों पर मिले हैं. ये संभवतः किसी देवी-देवता के प्रतीक स्वरूप थे और इनकी पूजा की जाती थी.
धार्मिक प्रथाएँ
हड़प्पा निवासियों के धार्मिक प्रथाओं के विषय में हमारी जानकारी नगण्य है. मंडियों और पुरोहितों के होने का भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. लिपि के अभाव में पूजा-पाठ की पद्धति का ठीक से पता नहीं लगता, परन्तु कुछ मुहरों को देखने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः देवता को प्रसन्न करने के लिए नर बलि या पशु बलि दी जाती थी.
अन्य प्राचीन लोगों की ही तरह सिन्धुवासी भी बाह्य एवं बुरी शक्तियों के अस्तितिव में विश्वास रखते थे तथा उनसे अपनी रक्षा के लिए ताबीजों का उपयोग करते थे. धार्मिक अवसरों पर गान-बजान, नृत्य आदि का भी प्रचालन था. संभवतः सिन्धु निवासी भी मृत्योपरान्त जीवन में विश्वास रखते थे. परन्तु यह धारणा उतनी प्रबल नहीं थी जितनी हम मिस्र में पाते हैं.
दर्शन
सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों के धर्म से उनके दर्शन का पता चला है. उनकी मातृपूजा से प्रतीत होता है कि वे शक्ति का आदि स्रोत प्रकृति को मानते थे. उनका यह प्रकृतिवाद दर्शनमूलक या सूक्ष्मतत्त्वापेक्षी नहीं था. उनकी भवन निर्माण कला में उपयोगितावाद की स्पष्ट छाप है. इससे प्रतीत होता है कि कला के प्रति उनका दृष्टिकोण या दर्शन उपयोगितावादी था. मोहनजोदड़ो में भक्ति मार्ग तथा पुनर्जन्मवाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों के कुछ चिन्ह भी मिलते हैं.
अग्निपूजा (यज्ञ)
कालीबंगा और लोथल के उत्खनन से स्पष्ट साक्ष्य मिलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के युग में यज्ञ-बलि प्रथा प्रचलित थी.
कालीबंगा में गढ़ी वाले टीले में एक चबूतरे पर एक कुआँ, अग्निदेवी और एक आयाताकार गर्त मिला है जिसके भीतर चारों ओर पालतू पशुओं की हड्डियाँ और हिरन के सींग मिले हैं. अनुमानतः इनका धार्मिक अनुष्ठान में पशुबलि से सम्बन्ध था.
कालीबंगा में ही एक चबूतरे के ऊपर कुएँ के पास सात आयाताकार अग्निवेदियाँ एक कतार में मिली हैं. निचले नगर के अनेक घरों में भी अग्नि वेदिकाएँ प्राप्त हुई हैं. लोथल के निचले नगर में कई घरों में फर्श के नीचे, या कच्ची ईंटों के चबूतरे के ऊपर आयाताकार या वृत्ताकार मिट्टी के घेरे बने थे. इनमें से कुछ में राख, पक्की मिट्टी के तिकोने बर्तन मिलते हैं. इनके आकार-प्रकार से स्पष्ट है कि इनका प्रयोग चूल्हे की तरह नहीं होता था, और ये इतने बड़े हैं कि भांड के रखने के लिए भी इनको उपयोग किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता.
कुछ मोहरें एवं मुद्राएँ भी ताबीज की तरह इस्तेमाल की जाती थीं. इनमें से कुछ ताबीज प्रजनन शक्ति के प्रतीक के रूप में पहने जाते रहे होंगे. मिट्टी के कुछ मुखौटे भी मिले हैं जिनका प्रयोग धार्मिक उत्सवों पर किसी नाटक की भूमिका में पात्रों द्वारा किया जाता रहा होगा. मुद्राओं पर एकश्रृंगी पशु के सामने जो वस्तु दिखाई गई है, उसकी पहचान कुछ लोगों ने धूपदानी से की है.
स्वस्तिक और “यूनान सलीब” (क्रॉस) का अंकन काफी संख्या में मिलता है. एलम और कुछ अन्य प्राचीन सभ्यताओं की कलाकृतियों में भी इस अभिप्राय का अंकन मिलता है. मोहनजोदड़ो में वामवर्ती और दक्षिणावर्ती दोनों ही प्रकार के स्वस्तिक पर्याप्त संख्या में मिलते हैं, लेकिन हड़प्पा में कुछ अपवादों को छोड़कर ऐतिहासिक काल के समान ही स्वस्तिक दक्षिणावर्ती हैं. स्वस्तिक का सम्बन्ध सूर्यपूजा से हो सकता है.
शवों के साथ मिट्टी के बर्तन एवं अन्य सामग्री रखी मिली हैं. इससे उनकी मृत्यु के बाद के जीवन की धारणा होने के बारे में जानकारी मिलती है. शवों को उत्तर-दक्षिण दिशा में लिटाया गया है, जो धार्मिक विश्वास का ही फल हो सकता है. लोथल की तीन कब्रों में दो-दो शवों को एक साथ गाड़ा गया है.
लोथल में नारी मिट्टी की मूर्तियाँ बहुत कम मिली हैं. रंगनाथ राव तो इन थोड़ी-सी नारी आकृतियों में से केवल एक मिट्टी की मूर्ति को ही मातृदेवी की मूर्ति मानते हैं. कोटदीजी में मातृदेवी की मूर्तियाँ तो मिली हैं किन्तु लिंग और योनि नहीं मिले. आमरी, कालीबंगा, रंगपुर, रोपड़, आलमगीरपुर में भी मातृदेवी की उपासना लोकप्रिय नहीं लगती, बल्कि यह भी संभव है कि इन स्थलों में इसका प्रचलन ही नहीं था. कालीबंगा में भी “लिंग” और “योनि” नहीं मिले. वहाँ पर न तो पत्थर की कोई ऐसी मूर्ति मिली है जिसकी देवता की मूर्ति होने की संभावना हो और न मुद्राओं पर ही किसी देवता का अंकन है. अन्य क्षेत्रों की मुद्राओं पर भी मोहनजोदड़ो की मुद्रा पर प्राप्त शिव-पशुपति जैसा देवता नहीं मिलता. इसका अर्थ यह हुआ कि भौगोलिक तथा अन्य भिन्नताओं के संदर्भ में सिन्धु सभ्यता में भी परिवर्तन व परिवर्धन हुए.
निष्कर्ष
यह भी संभव है कि परिवर्तन का कारण आर्य संस्कृति के लोगों के साथ संपर्क रहा हो. इस सम्बन्ध में साक्ष्य इतने पुष्ट नहीं है कि कोई सर्वमान्य और निश्चित अभिमत व्यक्त किया जा सके. यह कहना भी कठिन है कि धर्म के क्षेत्र में सिन्धु सभ्यता ने अन्य संस्कृतियों से कब और कितना ग्रहण किया, किन्तु अधिकांश विद्वानों की धारणा है कि परवर्ती धार्मिक विश्वासों में अनेक तत्त्व ऐसे हैं जिनका मूल सिन्धु सभ्यता में ढूँढा जा सकता है.
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