आज हम लोग होमरूल लीग की स्थापना किन परिस्थतियों में हुई और इस आन्दोलन पतन कैसे हुआ, इसकी चर्चा करने वाले हैं.
पृष्ठभूमि
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में लोकमान्य तिलक तथा एनी बेसेंट द्वारा स्थापित होमरूल लीग एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया थी. प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ होने पर ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी युद्ध में सम्मिलित कर लिया. ब्रिटेन ने बिना भारतीयों की अनमुति के भारतीय जनशक्ति तथा संसाधनों का युद्ध में व्यापक प्रयोग किया. इससे भारत पर राष्ट्रीय ऋण में 30% की बढ़ोतरी हो गयी, जिससे भारतीय जनता के कष्टों में अपार वृद्धि हुई. इन सबका भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर बहुआयामी प्रभाव पड़ा. प्रारंभ में भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटेन के युद्ध प्रस्तावों का स्वागत किया और उसे व्यापक समर्थन दिया. ऐसा इस उद्देश्य से किया गया कि ब्रिटिश सरकार इस वफादारी के पुरस्कार स्वरूप उनके राजनीतिक सुधार की माँग को पूरा करेगी. ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि ब्रिटेन का लक्ष्य भारत में शनैः-शनैः उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है. लेकिन युद्ध के बाद घोषित सुधारों से नेताओं और जनता को व्यापक निराशा हुई. इससे राष्ट्रीय आन्दोलन में व्यापक प्रगति हुई.
होमरूल आन्दोलन का जन्म
प्रथम विश्व युद्ध ने होमरूल आन्दोलन के जन्म और विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. भारतीय नेताओं के सामने यह स्पष्ट होता जा रहा था कि सरकार तब तक कोई वास्तविक अधिकार नहीं देगी, जब तक कि एक वास्तविक राजनीतिक आन्दालेन के माध्यम से उसके ऊपर जनता का दबाव न डाला जाये. युद्ध ने, जिसमें साम्राज्यवादी शक्तियाँ आपस में लड़ रही थीं, उनकी जातीय श्रेष्ठता की धारणा को समाप्त कर दिया जिससे भारतीयों का नैतिक मनोबल बढ़ा. इसके अतिरिक्त युद्ध के कारण करों की दर में वृद्धो हो गयी एवं मूल्यों में काफी तेजी देखी गई . परिणामस्वरूप समाज के कमजोर तबके की परेशानियाँ बढ़ गयी थीं. इन्हीं परिस्थितियों में 1915-16 में दो होमरूल लीग की स्थापना हुई. इसने तेज गति हो रही प्रतिक्रियात्मक राजनीति के नए स्वरूप का प्रतिनिधित्व किया. आयरलैंड की होमरूल लीग के आदर्श पर भारत में लीग का गठन किया गया था.
होम रूल लीग का विस्तार
होमरूल लीग आन्दोलन जल्द ही लोकप्रिय होने लगा तथा इसके सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी. प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं जैसे मोतीलाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, चितरंजन दास, मनमोहन मालवीय, भूलाभाई देसाई, मोहम्मद अली जिन्ना, तेज बहादुर सप्रू आदि ने लीग की सदस्यता ग्रहण की. महत्त्वपूर्ण नेता स्थानीय शाखाओं के प्रमुख नियुक्त किये गये थे.
गोपाल कृष्ण गोखले की “सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी” के सदस्यों की लीग का सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी, परन्तु सोसाइटी के अनेक सदस्य होमरुल लीग आन्दोलन में सम्मिलित हुए.
यद्यपि होमरूल लीग का विस्तार धीमी गति से हुआ, तथापि यह भारतीयों में राजनीतिक चेतना जागृत करने में तत्कालीन सभी आन्दोलनों से कहीं आगे निकल गया. इस आन्दोलन का विस्तार सिंध जैसे राजनीतिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में भी हुआ.
लीग का विस्तार कुछ विशेष उच्च वर्गों तक ही सीमित रहा. अधिकतर आंग्ल-भारतीय, बहुसंख्यक मुसलमान तथा दक्षिण भारत की गैर-ब्राह्मण जातियाँ इस आन्दोलन से परे रहीं क्योंकि उन्हें डर था कि इस आन्दोलन द्वारा हिन्दुओं, विशेषतः उच्च जाति के लोगों को शासन प्रदान किया जायेगा.
तिलक
तिलक और श्रीमती एनी बसेंट दोनों ने परस्पर सहयोग से सम्पूर्ण देश में इस मांग को प्रचारित किया कि युद्ध के बाद भारत को स्वशासन दिया जाये. इन दोनों लोगों ने तेजी से प्रगति की और होमरूल की मांग पूरे देश में गूँजने लगी. कांग्रेस की निष्क्रियता से दु:खी अनेक नरमपंथी राष्ट्रवादी भी होमरूल आन्दोलन में सम्मिलित हो गये. सरकार ने व्यापक दमन चक्र का सहारा लिया और शनैः शनैः यह आन्दोलन बिखर गया.
तिलक ने अप्रैल 1916 में मुम्बई के बेलगाँव में अपने होमरूल लीग का गठन किया. इसका गठन बंबई प्रांतीय सभा में किया गया. इसकी गतिविधियाँ मध्य प्रांत, महाराष्ट्र (बम्बई को छोड़कर), कर्नाटक और बरार तक सीमित थीं. इस आन्दोलन के लक्ष्य थे –
- स्वराज्य की मांग
- आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार
- भाषाई आधार पर प्रान्तों की स्थापना
- जातिवाद के विरुद्ध धर्मयुद्ध
तिलक का नारा था स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा.
एनी बसेंट
एनी बेसेंट ने भारत अन्य उपनिवेशों में स्वशासन प्राप्ति के लिए 1915 से ही सार्वजनिक गतिविधियाँ शुरू कर दी थीं. उन्होंने जनसभाओं तथा अपने समाचार-पत्रों “न्यू इंडिया” और “कामनवील” के माध्यम से स्वशासन की माँग को ब्रिटिश सरकार के प्रस्तुत किया. श्रीमती एनी बेसेंट ने सितम्बर 1916 में मद्रास के गोखले सभागार में अपना होमरूल लीग प्रारंभ किया. जॉर्ज अरुंडेल लीग के सचिव बनाए गये. बी.एम.वाडिया, सी.पी. रामास्वामी अय्यर, सुब्रह्मण्यम अय्यर, मोतीलाल नेहरु, तेज बहादुर सप्रू आदि इसके महत्त्वपूर्ण सदस्य थे. इसकी गतिविधियों में मुख्य बल स्वराज्य के लिए आन्दालेन शुरू करने पर दिया गया. लगभग पूरे भारत (तिलक की लीग के अधीन क्षेत्रों को छोड़कर) में इसकी 200 शाखाएँ स्थापित की गेन. यद्यपि दोनों लीगों का विलय नहीं हुआ था, परन्तु इन्होंने आपसी सहयोग के द्वारा कार्य किया. 1916 के कांग्रेस के अंत में इन्होंने एक संयुक्त सभा की. किसी भी प्रकार के आपसी संघर्ष से बचने के लिए तिलक और बेसेंट ने अपने-अपने लीग के लिए क्षेत्रों का चुनाव किया.
पतन
होमरूल आन्दालन सरकारी दमन का शिकार हुआ. तिलक गिरफ्तार कर लिए गये, परन्तु कुछ समय बाद इन्हें छोड़ दिया गया. उधर मद्रास सरकार ने एनी बेसेंट तथा उनके सहयोगियो बी. पी. वाडिया आरै अरुडंले को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन बढ़ती हुई राष्ट्रवादी भावना को देखकर सरकार ने समझौतावादी रूख अपनाया. शनैः शनैः इस आन्दालेन का पतन होने लगा, जिसके प्रमुख कारण निम्न थे-
- श्रीमती एनी बेसेंट सहित उदारवादी नेता सुधारों का आश्वासन मिलने के बाद शांत हो गये. इससे राष्ट्रवादियों का विभाजन हो गया.
- वेलेन्टाइन शिरोल (इंडियन अनरेस्ट के लेखक) से संबंधित मुकदमे के सिलसिले में तिलक को इंग्लैंड जाना पड़ गया.
- सरकार की दमनकारी नीति.
निष्कर्ष
हम कह सकते हैं कि यद्यपि हामेरूल आन्दालेन बिखर गया, किन्तु राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए समाज में एक व्यापक आधार तैयार कर गया. इसने देश में कट्टर राष्ट्रवादियों के एक दल का निर्माण किया, जो गाँधीजी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्वयसंवेक बने.
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