दक्षिणी भारत के पूर्वी भारत के सातवाहन शक्ति के पतन के बाद एक नए वंश का उदय हुआ जिसे इक्ष्वाकु वंश के नाम से जाना जाता है. लगभग तीसरी और चौथी शताब्दी में कृष्णा नदी की पूर्वी घाटी में एक वंश राज कर रहा था जिसे राम के पूर्वज इक्ष्वाकु से अलग दिखाने के लिए आंध्र इक्ष्वाकु कहा जाता है क्योंकि इनकी राजधानी विजयपुरी (आधुनिक नागार्जुनकोंडा) में थी. अतः इस वंश को विजयपुरी इक्ष्वाकु भी कहते हैं.
इक्ष्वाकु वंश
उन्होंने कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र में शासन किया. इसी वंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में भूमि-अनुदान की प्रथा चलाई. इस क्षेत्र में बहुत सारे ताम्रपत्र सनदें प्राप्त हुई हैं. पुराणों में इन्हें श्रीपर्वत के शासक और आंध्रभृत्त (आंध्रों के सेवक) कहा गया है. कहा जाता है कि इस राजवंश में चार शासक हुए जिन्होंने कुल मिलाकर 115 वर्ष तक शासन किया पर उनमें से कुछ के ही नाम शिलालेखों से मालूम होते हैं.
- Chamtamula
- Virpurushadatta
- Ehuvala Chamtamula
- Rudrapurushadatta
प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा उन्हें कोई स्थानीय कबीलाई लोग मानते हैं. वे कहते हैं कि – “लगता है कि इक्ष्वाकु कोई स्थानीय कबीला थे और अपनी वंश परम्परा की प्राचीनता को प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने “इक्ष्वाकु” उच्च नाम ग्रहण कर लिया था.” उनके विपरीत नीलकंठ शास्त्री के अनुसार, “मूलतः वे सातवाहनों के वंशवर्ती थे और “महातलवार” की उपाधि धारण करते थे. जो भी हो अनेक स्मारक नागार्जुनकोंडा तथा धारणीकोंडा में प्राप्त होते हैं.
विभिन्न स्रोतों के अनुसार कहा जा सकता है की विशिष्ठ पुत्र चंतामुला (Chamtamula – 210-250CE) इस वंश का संस्थापक था. उसने अश्वमेघ और वाजपेय किये थे. उसके पुत्र वीर पुरुषदत्त (Virapurushadatta – 250-275CE) के शासनकाल को बौद्ध धर्म के इतिहास और कूटनीतिक सम्बन्धों के मामले में स्वर्णयुग कहा जा सकता है. उसने अनेक बौद्ध महिलाओं से विवाह किये तथा उन्हीं के प्रोत्साहन से नागार्जुनकोंडा में एक बड़ा बौद्ध स्तूप बनवाया गया. उसने और उसके उत्तराधिकारियों ने भूमि अनुदान की प्रथा शुरू की.
गुंटूर क्षेत्र में मले अनेक ताम्रपत्र पर लिखे अधिकार पत्र मिलते हैं जिनसे उनके द्वारा भूमि अनुदान दिए जाने की पुष्टि होती है. इतिहासकार उपिन्दर सिंह कहती हैं कि इस वंश का अंतिम शासक रूद्रपुरुषदत्त (300-325CE) है. उसने स्तूप, देवी विहार और अर्द्धवृत्ताकार मंदिर बनवाये. इस वंश के शासकों ने श्रीलंका के बौद्धों के लिए चैत्यों का भी निर्माण कराया. उन्होंने अनेक मूर्तियाँ भी बनवाईं जिन पर यूनानी प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है. संभवतः इक्ष्वाकुओं को कांची के पल्लवों ने अपदस्थ किया.