भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 – Indian Council Act

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1861 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सेवाओं, स्थानीय-स्वशासन आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुईं. इन घटनाओं के फलस्वरूप भारतीयों में बड़ी उत्तेजना फैली और उनमें राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का विकास हुआ. 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ. इसने संवैधानिक सुधारों की मांग की. इन घटनाओं तथा माँगों के फलस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Council Act, 1892) पारित किया.

भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 को लागू करने के कारण

इस अधिनियम को पारित करने के प्रमुख कारण निम्न हैं : –

  • 1861 में स्थापित विधान परिषदों में जो भी गैर सरकारी तत्व थे, वे जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे. इनमें केवल बड़े-बड़े जमींदार, अवकाश प्राप्त अधिकारी होते थे जो कि जनता को समझने का दावा नहीं कर सकते थे.
  • राष्ट्रीयता का विकास तथा कांग्रेस का जन्म इस अधिनियम को पारित होने का एक प्रमुख कारण था. 1857 में स्थापित कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास विश्वविद्यालयों ने शिक्षा के प्रसार में योगदान दिया जिससे राष्ट्रीयता की भावना उभरी. 1857 के बाद की सरकार की दमनकारी नीति एवं लार्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीति से भारतीयों में प्रशासन के प्रति कटुता बढ़ती गयी. इन्हीं परिस्थितियों में 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ. कांग्रेस ने जनता की माँगों को सूचीबद्ध किया तथा उन्हें सरकार के सामने रखा. उसने विधायिका सभाओं के प्रश्न को उठाया और कौंसिलों में भारतीयों की संख्या में बढ़ोतरी की माँग की. इसने कौंसिलों के कानून निर्माण तथा आर्थिक शक्तियों में वृद्धि की माँग की जिससे वे सही रूप में भारतीयों की आकांक्षाओं की पूर्ति कर सकें.
  • डफरिन का सुझाव: आरंभ में कांग्रेस के प्रति अंग्रेज अधिकारियों का व्यवहार सहानुभूति तथा मित्रातापूर्ण था, परन्तु 1888 तक यह पूर्णतया परिवर्तित हो गया. उस वर्ष तो लार्ड डफरिन ने कांग्रेस पर सीधा प्रहार किया और यह कहा कि “ यह एक सूक्ष्म अल्पसंख्या का प्रतिनिधित्व करती है” आरै कांग्रेस की माँग एक “अज्ञात में बड़ी छलांग है.” यद्यपि डफरिन ने कांग्रेस के महत्त्व को कम करने का प्रयत्न किया, तथापि उसने आन्दालेन के महत्त्व को समझा और उसने गुप्त रूप से परिषदों को उदार बनाने के सुझाव इंग्लैंड भेजे. उसने अपनी परिषद की एक समिति की भी नियुक्ति की जो कि प्रांतीय परिषदों के विस्तार के लिए, उनके पद को ऊँचा करने के लिए, उनके कार्यक्षेत्र को बढ़ाने के लिए, उनमें आंशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली आरंभ करने के लिए और एक राजनैतिक संस्था के रूप में उनका प्रसार करने की याजेना बनाए.
  • 1890 में इंग्लैंड की रूढ़िवादी दल की सरकार ने भारत सचिव लार्ड क्रॉस के सुझाव पर, इन सुझावों के आधार पर लॉर्ड्स सभा में एक विधेयक रखा, जिसे 1892 में संसद द्वारा पारित की गई. इसे भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 की संज्ञा दी गई.
Revision Notes: Article link

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 को भारतीयों ने कुछ समय तक “लॉर्ड क्राउन अधिनियम” नाम दिया था. 1861 का भारतीय परिषद् अधिनियम वस्तुतः भारत में शासन प्रणाली में सुधार करने के लिए पास किया गया था. हालाँकि यह एक उत्तरदायी सरकार स्थापित करने में असमर्थ रहा.

अतः अधिकांश भारतीय नेता 1861 के अधिनियम से असंतुष्ट थे. 1861 के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का विकास हुआ. फलस्वरूप, 1885 में “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस” की स्थापना” हुई. इसने संवैधानिक सुधारों की माँग की, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1892 का भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया.

प्रावधान

  • अतिरिक्त सदस्यों की संख्या केन्द्रीय परिषद् में बढ़ाकर कम से कम 10 और अधिकतम 16 कर दी गई. बम्बई तथा मद्रास की कौंसिल ने भी 20 अतिरिक्त उत्तर-पश्चिम प्रांत और बंगाल की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किये गये.
  • परिषद् के सदस्यों को कुछ अधिक अधिकार मिले. वार्षिक बजट पर वाद-विवाद और इससे सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते थे परन्तु मत विभाजन का अधिकार नहीं दिया गया था. अतिरिक्त सदस्यों को बजट सम्बंधित विशेष अधिकार था परन्तु वे पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे.
  • अतिरिक्त सदस्यों में 2/5 सदस्य गैर-सरकारी होने चाहिए. ये सदस्य भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों, या जातियों, व विशिष्ट हितों के आधार पर नियुक्त किये गये.
  • विधान परिषद् के गैर-सरकारी सदस्यों के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की गयी.

इस अधिनियम द्वारा जहाँ एक ओर संसदीय प्रणाली का रास्ता खुला तथा भारतीयों को कौंसिलों में अधिक स्थान मिला, वहीं दूसरी तरफ चुनाव पद्धति और गैर-सदस्यों की संख्या में वृद्धि ने असंतोष की भावना जगा दी.

इस अधिनियम के अधीन निर्वाचन पद्धति

  • इस अधिनयम का सबसे जरुरी अंग निर्वाचन पद्धति का आरम्भ करना था. यद्यपि उसमें निर्वाचन शब्द का प्रयोग जानबूझ कर नहीं किया गया था.
  • केन्द्रीय विधान मंडल में अधिकारीयों के अतिरिक्त 5 गैर-सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चारों प्रान्तों के प्रांतीय विधान मंडलों के गैर-सरकारी सदस्य तथा कलकत्ता वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे. अन्य पाँच गैर-सरकारी सदस्यों को गवर्नर-जनरल मनोनीत करता था.
  • प्रांतीय विधान मंडलों के सदस्यों को, नगरपालिकाओं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय और वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे. पर निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी और इन निर्वाचित सदस्यों को “मनोनीत” की संज्ञा दी जाती थी. ये सभी इकाइयाँ एकत्रित होकर अपने चुने हुए व्यक्तियों की सिफारिशें गवर्नर-जनरल तथा गवर्नरों को भेजती थीं.
  • बहुमत द्वारा चुने हुए व्यक्ति निर्वाचित नहीं कहलाते थे अपितु यह कहा जाता था कि उनके नाम “मनोनीत करने के लिए सिफारिश की गई है”.

1892 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम का महत्त्व

1892 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रयास का पहला प्रतिफल था. कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में एक प्रस्ताव द्वारा सरकार की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष व्यक्त किया गया था और यह निवेदन किया गया था कि परिषदों में निर्वाचित सदस्यों को पर्याप्त संख्या में सम्मिलित कर उसका सुधार और विस्तार किया जाय. भारत के शेष प्रान्तों में भी विधान परिषदों की स्थापना की जाय तथा परिषदों को बजट पर चर्चा एवं कार्यपालिका के शासन के प्रत्येक विषय पर प्रश्न करने का अधिकार दिया जाय. 1892 ई० के भारतीय परिषद अधिनियम में कुछ अंश तक कांग्रेस की उक्त मांग की पूर्ति की गयी थी.  तुलनात्मक दृष्टि से 1892 ई० का भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 ई० से प्रगति की ओर एक कदम आगे बढ़ गया था.  इसके द्वारा परिषदों में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ी तथा उन्हें बजट पर विवाद एवं प्रश्न पूछने का अधिकार पहली बार दिया गया था.इस दृष्टि से भारत में परोक्ष रूप से संसदीय सरकार की नींव डाली गयी किन्तु ब्रिटिश सरकार इस बात को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी.

1892 ई० के अधिनियम में विधान परिषदों का कार्यक्षेत्र विस्तृत कर दिया गया. सदस्यों को प्रश्न करने, कार्यकारिणी से सूचना प्राप्त करने, बजट पर विचार करने तथा उसमें संशोधन लाने का प्रस्ताव करने का अधिकार दिया गया था. विधान परिषद केवल सरकार के हाथ की कठपुतली नहीं रही. कार्यक्षेत्र में विस्तार होने के कारण विधान परिषदों के प्रति प्रबुद्ध भारतीयों का आकर्षण बढ़ा और इसकी सदस्यता स्वीकार करने में गोपाल कृष्ण गोखले, आशुतोष. मुखर्जी, रासबिहारी घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे बड़े नेताओं को हिचकिचाहट नहीं हुई. प्रबुद्ध भारतीयों के विधान परिषद में सम्मिलित होने से उनकी योग्यता एवं संसदीय पद्धति के प्रति उनके ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई. राष्ट्रवादियों का प्रवेश होने से ब्रिटिश सरकार को भारतीय समस्याओं की सही जानकारी प्राप्त हुई. केन्द्र में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या पहले से चार अधिक बढ़ा दी गयी. बंगाल, बम्बई और मद्रास में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 20 कर दी गयी जिसमें 9 सरकारी अधिकारी, 4 मनोनीत और 7 निर्वाचित सदस्य रहते थे.

1892 ई० के अधिनियम में निर्वाचन-प्रणाली को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया था. निर्वाचक मण्डलों की स्थापना की गयी जिसमें नगरपालिकाओं, विश्वविद्यालयों, जिला परिषदों एवं व्यापारमंडलों को सम्मिलित किया गया था. इस प्रकार अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली को प्रारम्भ किया गया. 1892 ई० का भारतीय परिषद अधिनियम एक संशोधक विधेयक था. अतः इससे क्रान्तिकारी परिवर्तन की आशा रखना व्यर्थ था. लॉर्ड कर्जन ने इस विधेयक के सम्बन्ध में यह कहा था कि “यह विधेयक सम्भवतः कोई महान या महत्त्वपूर्ण विधेयक नहीं है किन्तु यह प्रगति के मार्ग में एक निश्चित कदम अवश्य था.” लॉर्ड लैन्संडाउन ने भी कहा था कि “इस विधेयक से क्रान्तिकारी परिवर्त्तन की आशा रखनेवालों को निराशा हुई होगी, फिर भी. यह प्रगति के मार्ग में एक कदम आगे थ.”

उपर्युक्त कथनों से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि 1892 ई० का भारतीय परिषद अधिनियम कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं था. राष्ट्रीय भावना के उठते हुए ज्वार को शान्त करने की दिशा में यह एक समझौता का प्रयास था.

1892 ई० के भारतीय परिषद अधिनियम की आलोचना (Criticism)

अस्पष्ट निर्वाचन-पद्धति

1892 ई० के अधिनियम में निर्वाचन की पद्धति अस्पष्ट थी. निर्वाचित सदस्यों की संख्या नगण्य थी. 1892 ई० के अधिनियम में जानबूझकर कहीं भी “निर्वाचन” शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था. केन्द्रीय विधान परिषद में चार अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्यों को निर्वाचित करने के लिए चार प्रान्तों के प्रान्तीय परिषदों के गैर-सरकारी सदस्य तथा कलकत्ता वाणिज्यमण्डल के सदस्यों द्वारा नाम की सिफारिश गवर्नर-जनरल के यहाँ की जाती थी. निर्वाचित होने के बदले इस अधिनियम में “मनोनीत” शब्द का प्रयोग किया गया था. वस्तुतः इस प्रणाली में भारतीय जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता था..

व्यवस्थापिकाओं के सीमित कार्यक्षेत्र

1892 ई० के अधिनियम में व्यवस्थापिका सभाओं का कार्यक्षेत्र अत्यन्त संकुचित एवं सीमित था. सदस्यों को प्रश्न पूछने का अधिकार तो मिला किन्तु उन्हें पूरक प्रश्न पूछने के अधिकार से वंचित रखा गया. अध्यक्ष को यह अधिकार था कि वह किसी प्रश्न को अस्वीकार कर दे अथवा उसे पूछने की अनुमति न दे. इसके अतिरिक्त परिषदों का बजट पर कोई नियंत्रण नहीं था. सदस्यों को बजट में कटौती करने का कोई अधिकार नहीं था. वे केवल अपना सुझाव दे सकते थे. यही कारण है कि भारतीयों की नजर में यह सुधार अपर्याप्त एवं असन्तोषजनक था तथा वे स्वशासन की मांग करने लगे.

गैर-सरकारी सदस्यों की सीमित संख्या

इस अधिनियम में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत सीमित थी. केन्द्रीय परिषद में 24 सदस्यों में 14 सरकारी, 4 निर्वाचित सरकारी और 5 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थे. इस व्यवस्था में सार्वजनिक प्रतिनिधित्व लगभग शून्य-सा था. गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि “अधिनियम की वास्तविक क्रियाशीलता उसके खोखलेपन को प्रकट कर रही थी.” बम्बई प्रान्त को आठ स्थान दिये गये. दो स्थान तो भारत सरकार द्वारा अपने नियमानुसार बम्बई विश्वविद्यालय तथा बम्बई कारपोरेशन को प्राप्त हुए. बंबई सरकार ने दो स्थान यूरोपीय व्यापारी वर्ग को प्रदान किए, एक स्थान दक्षिण की सरकारों को, एक स्थान सिन्ध के जमीन्दारों को तथा केवल दो स्थान सामान्य जनता को दिये गये.

अधिनियम के प्रति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विचार

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नजर में 1892 ई० के अधिनियम के द्वारा कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्त्तन नहीं किया गया था. कांग्रेस की आशा पर पानी फेर दिया गया. दादा भाई नौरोजी और गोपालकृष्ण तक ने इस अधिनियम को अपर्याप्त एवं असन्तोषजनक बताया था. कीथ के अनुसार, “परिषदों को जो नई शक्तियाँ दी गयीं, वे बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं थीं.” भारत सरकार ने स्वयं 1908 ई०. में भारत-सचिव को लिखे गये पत्र में यह स्वीकार किया था कि “’परिषदों में विवाद की सुविधाएँ सीमित थीं, इसलिए विवाद निरुद्देश्य एवं असंगत था.” पण्डित मदन मोहन मालवीय के अनुसार, “इस अधिनियम के द्वारा देश के प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज नहीं रही.” भारतीयों पर कर का बोझ अधिक था. सेना पर अधिक व्यय का भार भारतीयों को वहन करना पड़ता था. भारतीय राजस्व से प्राप्त आय आम जनता के हित में खर्च नहीं की जाती थी. भारत-सचिव का भारतीय सरकार पर नियंत्रण पूवर्वत कायम था. केन्द्रीय विधान परिषद में गैर-सरकारी विधेयक पेश करने के लिए भारत-सचिव से अनुमति लेनी पड़ती थी. प्रान्तीय परिषदों के लिए गैर-सरकारी विधेयक के सम्बन्ध में गवर्नर-जनरल से अनुमति लेनी पड़ती थी. अतः दादा भाई नौरोजी ने यह कहा था कि “इस अधिनियम के अधीन किसी भी सदस्य को प्रस्ताव प्रस्तुत करने अथवा परिषद में किसी नियम अथवा प्रश्न पर मतदान की मांग करने का अधिकार नहीं होगा. भारतीयों को दी गयी रियायतों का इस प्रकार का असन्तोषजनक स्वरूप है.  इस अधिनियम के अधीन बनाये हुए नियमों में विधान परिषदों की बैठकों में कोई संशोधन नहीं किया जा सकेगा. इस तरह से हम सब बातों में एक निरंकुश शासन के अधीन हैं.” फिरोजशाह मेहता ने भी बतलाया था कि “इस बिल का निर्माण करते हुए प्रधानमंत्री तथा भारत- मंत्री को भारतीय लोगों के सम्बन्ध में मिथ्या भावना-सी प्रतीत होती है जो मानो सदैव अधिकाधिक मांगने में प्रवृत्त हों तथा जिनके लिए दूरदर्शी नीति यही है कि उन्हें यथासम्भव कम-से-कम दिया जाय. सरकारी बिल को उचित रूप में एक अत्यन्त उग्रतम प्रकार के स्टीम इंजन के रूप में वर्णित किया जा सकता है जिसमें से भाप उत्पन्न करनेवाली आवश्यक सामग्री को ध्यानपूर्वक निकाल कर अलग कर दिया गया हो तथा उसके स्थान पर नकली रंग-बिरंगे ऐसे पदार्थ लगा दिये गये हों जो वैसी ही दिखायी दे.”

निष्कर्ष (Conclusion)

1892 ई० का भारतीय परिषद अधिनियम अपूर्ण एवं असन्तोषजनक था. परन्तु सुधार की दिशा में इसे एक महत्त्वपूर्ण कदम की संज्ञा दी जाती थी. दोष के बावजूद इस अधिनियम के माध्यम से कई बातों में एक नई परम्परा स्थापित की गयी. निर्वाचन-प्रणाली को अप्रत्यक्ष रूप में स्वीकार कर लिया गया. बजट पर बहस करने का अधिकार दिया गया और सरकार का पक्ष सबल रहते हुए भी कुछ भारतीय सदस्यों को संसदीय क्षमता प्रकट करने का अवसर मिल गया. यह सही है कि भारतीय सदस्यों का परिषदों में बहुमत नहीं था किन्तु वे सरकार की नीति की आलोचना कर राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों को सरकार के समक्ष पेश करने से बाज नहीं आते थे. भारतीय सदस्यों का प्रयास परिषद में भले ही असफल रहा हो किन्तु भावी पीढ़ी के लिए उनका विचार प्रेरणा का स्रोत बन गया और जनहित को प्राथमिकता देने की मांग धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगी. रियायतें अपूर्ण एवं असन्तोषजनक थीं. परिषद के आकार में वृद्धि भी क्षुद्र एवं तुच्छ थी. इस ऐक्ट के द्वारा लोगों को परिषदों में अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार नहीं दिया गया था. परन्तु आगे चलकर मार्ले-मिन्टो सुधार के लिए 1892 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम ने मार्ग साफ़ कर दिया था.

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