“कर्जन की नई योजना, जिसमें बंगाल को दो भागों में बाँटना था, ने बारूद के ढेर में चिनगारी का काम किया.” इस कथन की पुष्टि करें.
उत्तर :-
कर्जन ने पहले वार्ड योजना को लागू करने का निश्चय किया था. उसने साम्प्रदायिक विद्वेष को उभारकर अपनी योजना कार्यान्वित करने का निश्चय किया था.
कर्जन अपने भाषण द्वारा अनेक मुसलमानों को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल तो हुआ परन्तु बंगालियों की राष्ट्रीय भावना को देखकर उसने पूरे उत्तर-पूर्व बंगाल को ही मुख्य बंगाल से अलग करने का निश्चय कर लिया.
अब कर्जन ने बंग-भंग की एक नई योजना पेश की. कर्जन की नई योजना के तहत बंगाल का विभाजन दो भागों में होना था – पश्चिमी बंगाल एवं पूर्वी बंगाल और असम. पूर्वी बंगाल में असमरहित राजशाही, चटगाँव और ढाका डिवीज़न को सम्मिलित किया जाना था. नए प्रांत की राजधानी के रूप में ढाका का चुनाव किया गया. इस प्रदेश में मुसलमानों का बहुमत था. उनकी संख्या करीब एक करोड़ अस्सी लाख और हिन्दुओं की एक करोड़ बीस लाख थी.
एक इतिहासकार के शब्दों में, “अगर पहली योजना ने उग्र और राजद्रोहात्मक बंगालियों को, जो ब्रिटिश राज के विरोधियों का एक सुसंबद्ध समूह था, कोड़े मारने जैसी पीड़ा पहुँचाई थी तो नई योजना ने बिच्छुओं के डंक मारने जैसी तड़प दी.” योजना को राष्ट्रीय विपत्ति एवं राष्ट्रीय अपमान की संज्ञा दी गई. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, “घोषणा बम के गोले के समान गिरी.” ब्रिटिश, एंग्लो-इंडियन एवं भारतीय समाचारपत्रों, यहाँ तक कि अनेक सरकारी अधिकारियों ने भी इस योजना की आलोचना की. भारतीयों की प्रतिक्रिया की तो बात ही नहीं. योजना के प्रकाश में आते ही विरोधों का लंबा सिलसिला आरंभ हो गया. समूचे बंगाल में विरोधसभाएँ गठित हुईं, जिनमें हजारों व्यक्तियों ने भाग लिया. हजारों हस्ताक्षरों से युक्त आवेदनपत्र भारत-सचिव को देकर उनसे इस योजना को रद्द करने की माँग की गई. कहीं-कहीं कर्जन के पुतले भी जलाए गए. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बंगाल के जनसमुदाय—जमींदार, सौदागर, वकील, विद्यार्थी, शहरी शिक्षित वर्ग, गरीब मजदूर यहाँ तक कि स्त्रियों और मुसलमानों–ने भी इस विरोध-आंदोलन में भाग लिया. सरकारी हठघधर्मिता एवं दमनकारी कार्यों ने विरोधियों का निश्रय अटल बना दिया. वे इस घृणित योजना के विरोध में अपना तन-मन-धन समर्पित करने को तैयार हो गए. जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया, इसे संगठनात्मक स्वरूप देने की कोशिश की गई. सरकार का मुकाबला करने के लिए बहिष्कार और स्वदेशी का मूलमंत्र दिया गया. इस नए अस्त्र को प्रभावहीन मानकर बंगाल के युवावर्ग ने क्रांतिकारी कार्यों का सहारा लिया.
16 अक्टूबर, 1905 का दिन बंगाल में राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया गया. लोग ने सरकार से संघर्ष करने का संकल्प किया. सबेरा होते ही लोगों ने समूहों में राष्ट्रीय गीत गाते हुए एवं ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाते हुए गंगा में स्नान किया और एकता के प्रतीक रूप में एक-दूसरे को राखी बाँधी. सभी लोगों ने उपवास रखा. किसी भी घर में उस दिन चूल्हा नहीं जला. कलकत्ता में पूरी हड़ताल रखी गई. सभी दूकानें बंद रहीं और पुलिस की गाड़ी के अतिरिक्त अन्य कोई गाड़ी सड़क पर नहीं निकली. कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस अवसर पर गाए जाने के लिए एक गीत की रचना की, जिसे गाते हुए लोग नंगे पाँव सड़कों पर घूमे. तीसरे पहर बंगाल की एकता के प्रतीक-स्वरूप 294 अपर सर्कुलर रोड, कलकत्ता में फेडरेशन हॉल का शिलान्यास किया गया. इस दृश्य को देखने के लिए लगभग 50,000 से अधिक व्यक्ति उपस्थित थे. यहाँ एक आम सभा हुई जिसकी अध्यक्षता आनंद मोहन बसु ने की. सभा में बंगाल के सभी प्रमुख नेता–गुरुदास बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, नीलरतन सरकार, मोतीलाल घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, लियाकत हुसैन–उपस्थित थे. सभा में बंगवासियों की एकता को बनाए रखने के लिए सभी संभव प्रयास करने की प्रतिज्ञा की गई. इसके बाद बाग बाजार में पशुपति बोस के घर में सभा हुई, जिसकी अध्यक्षता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने की. यहाँ आंदोलन चलाने के लिए राष्ट्रीय कोष की स्थापना का निश्चय किया गया और उसके लिए करीब 50,000 रुपए चंदा से एकत्र किए गए. 16 अक्टूबर, 1905 से ही बंग-भंग विरोधी आंदोलन ने एक निश्चित दिशा पकड़ ली. विभिन्न चरणों में यह आंदोलन तब तक चलता रहा जब तक सरकार ने विभाजन को वापस नहीं ले लिया. विभाजन का प्रभाव बंगाल के बाहर भी पड़ा. इसने कांग्रेस के विभाजन, मुस्लिम लीग की स्थापना, उग्न राष्ट्रवाद के उदय ओर मार्ले मिंटो सुधार योजना (1909 ई०) की पृष्ठभूमि तैयार की.