19वीं सदी में भारतीय महिलाओं की दशा एवं स्त्री-समाज सुधारक

Sansar Lochan#AdhunikIndia

आधुनिक विचारधारा एवं दृष्टिकोण से 19वीं सदी के समाज सुधारकों को प्रगतिशील सामाजिक तत्त्वों के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए पूरा सहयोग प्राप्त हुआ. समाज सुधार के क्रम में सुधारकों का ध्यान तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पक्षों की ओर गया. इसी क्रम में महिलाओं की दशा में सुधार कैसे करना है, यह यक्ष प्रश्न चुनौती के रूप में सामने आया. इसी समय ईसाई मिशनरियों एवं पाश्चात्य शिक्षाप्राप्त बुद्धिजीवियों ने महिलाओं की पतनोन्मुख दशा के उन्नयन के लिए अनेक प्रयास शुरू किये. इस दिशा में सर्वप्रथम कदम राजा राम मोहन राय ने उठाया.

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महिलाओं से सम्बंधित अनेक सामाजिक कुरीतियाँ

तत्कालीन भारतीय समाज में महिलाओं से सम्बंधित अनेक सामाजिक कुरीतियाँ विद्यमान थीं, जैसे – बाल-विवाह, शिशु-हत्या, सती-प्रथा, विधवाओं की दयनीय दशा तथा निम्न-स्तरीय नारी शिक्षा आदि. आरम्भ में ब्रिटिश सरकार ने इनमें से कुछ बुराइयों को समाप्त करने के लिए कुछ कदम उठाये. उदाहरण के लिए, 1793 एवं 1804 ई. के बंगाल रेगुलेशन एक्ट द्वारा शिशु-हत्या पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई, पर ये सभी कदम और प्रयास बेकार चले गये और महिलाओं से सम्बंधित कुरीतियाँ समाज में जस की तस बनी रहीं. महिलाओं की दशा में सुधार लाने के लिए सबसे पहले संगठित प्रयास राजा राम मोहन राय ने किया. उन्होंने वैचारिक आन्दोलन चलाये जाने के साथ-साथ व्यावहारिक स्तर पर भी कई प्रयास किये. उन्होंने बहुविवाह, कुलीनवाद तथा सती-प्रथा आदि का विरोध करने के अतिरिक्त स्त्रियों को सम्पत्ति में उत्तराधिकारी बनाने की भी वकालत की. उनके लगातार प्रयास का ही यह परिणाम था कि लॉर्ड बैंटिक ने 4 दिसम्बर, 1829 ई. को अधिनियम -17 पारित कर सती-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया. समकालीन समाज सुधारक ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवा-विवाह को सामाजिक एवं कानूनी मान्यता दिलाये जाने के लिए आजीवन प्रयास किये. उनके प्रयासों का ही प्रतिफल था कि 1856 ई. में हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह कानून के रूप में देखी जा सकती है. इसकी व्याख्या दो आधारों पर की जा सकती है – एक, सती-प्रथा के उन्मूलन के साथ समाज सुधार के लिए सरकारी विधि-निर्माण माहौल तैयार हुआ, और दूसरा, सती-प्रथा के वास्तविक उन्मूलन के लिए विधवाओं की दशाओं में सुधार होता दिखाई देने लगा.

नारी शिक्षा के विकास हेतु कई कदम इसी काल में उठाये गये. इसमें ईसाई मिशनरियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही. कलकत्ता में स्त्री-शिक्षा के विस्तार हेतु “तरुण स्त्री सभा” का गठन हुआ. बम्बई में एलफिन्सटन कॉलेज के छात्रों ने भी नारी शिक्षा के विकास के लिए कई कदम उठाये.  इन्हीं दिनों बेथुन स्कूल की स्थापना हुई, जिसके निरीक्षक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने लगभग 35 बालिका विद्यालयों की स्थापना की. बाल-विवाह के उन्मूलन के लिए भी सुधारकों द्वारा अनेक प्रयास किये गये तथा उनके प्रयासों के फलस्वरूप सरकार ने समय-समय पर बाल-विवाह उन्मूलन के लिए कानून बनाए. उदाहरण के लिए, बी.एन. मालाबारी के प्रयास से 1891 ई. में एज ऑफ कंसेट बिल पारित हुआ. इस कानून के आधार पर 12 वर्ष या उससे कम आयु की बालिकाओं का विवाह निषिद्ध कर दिया गया. सन् 1872 ई. में ब्रह्म मैरज एक्ट पारित हुआ, जिसके प्रावधानों के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं का विवाह कानून-विरुद्ध घोषित कर दिया गया. तदोपरान्त महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु एक प्रमुख कानून था – 1930 ई. का शारदा एक्ट. इस कानून द्वारा विवाह-योग्य पुरुषों की न्यूनतम आयु 18 वर्ष तथा महिलाओं की 14 वर्ष निर्धारित कर दी गई.

महिला सुधार कार्यक्रमों की सीमाएँ

महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए 19वीं शताब्दी में कई विचारकों तथा अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रयास किये गये, पर प्रयासों की अपनी सीमाएँ थीं. इनमें प्रमुख थीं –

  1. इन सुधारवादियों आंदोलनों की पहल अभिजात्यवादी पुरुषों द्वारा की गई. इसलिए इन सुधारकों ने महिलाओं के जीवन से सम्बंधित महज कुछ ही कुरीतियों पर प्रहार किया और वे सामाजिक मर्यादा तथा पारिवारिक मर्यादा के उल्लंघन के विरोधी थे अर्थात् वे स्त्रियों की दशा में सुधार के पक्ष में थे, किन्तु स्त्री स्वाधीनता के पक्षधर नहीं थे.
  2. समाज सुधार की प्रक्रिया एक औपनिवेशक शासन के अंतर्गत चल रही थी, अतः इसकी अपनी सीमाएँ थीं.
  3. विभिन्न धर्मों से सम्बंधित सुधार संस्थाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार से महिलाओं की दशा का अवलोकन कर रही थीं अर्थात् वे अपने सम्प्रदाय से बंधकर इस समस्या पर विचार कर रही थीं.

कुल मिलाकर किसी भी संस्था ने धर्म, सम्प्रदाय वर्ग से ऊपर उठकर सार्वभौमिक रूप में महिलाओं की दशाओं के सम्बन्ध में विचार नहीं किया. स्वतंत्रता के बाद भी महिलाओं से सम्बंधित समस्याएँ धर्म एवं सम्प्रदाय की सीमाओं में ही बंधकर रह गईं. बहरहाल, हमारी संवैधानिक घोषणा के बावजूद, एकसमान आचार-संहिता (uniform civil code) का निर्माण आज भी नहीं हो सका है.

निष्कर्ष

इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि 19वीं शताब्दी में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए निरंतर प्रयास किये जाते रहे, लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि ये सुधार कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रहे. जहाँ तक इन कानूनों का सवाल है तो ये इन कुरीतियों की व्यापकता को रोकने के लिए कोई अधिक कारगर सिद्ध नहीं हुए क्योंकि कानूनों का क्रियान्वयन कराने वाले अफ़सर तंत्र के प्राथमिक कार्यों में अंग्रेजी शासन को सुदृढ़ता प्रदान करने वाले कारकों का संवर्द्धन करना था, न कि समाज सुधार जैसे कार्यों में दखलन्दाजी करना.

विधि-निर्माण के बावजूद इन कानूनों का वास्तविक क्रियान्वयन बहुत ही सीमित रहा. उदाहरण के लिए, 19वीं सदी में महज 38 विधवाओं का विवाह हुआ. इस प्रकार, सती-प्रथा के उन्मूलन के लिए विधि-निर्माण के बावजूद सती-प्रथा के प्रति लोगों में आदर भाव बना रहा और किसी-न-किसी    रूप में साहित्य, मिथक अथवा कल्प-कथाओं के माध्यम से इसका आदर्शीकरण होता ही रहा.

19वीं शताब्दी के प्रमुख स्त्री-समाज सुधारक

पंडित रमाबाई (1858-1922ई.)

पंडिता रमाबाई का अविस्मरणीय योगदान स्त्री शिक्षा तथा महिला अधिकारों के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए रहा. उन्होंने भारत में पहली बार विधवाओं की शिक्षा के लिए प्रयास किया जो कि उनका महानतम योगदान माना जाता है.

बहिन सुब्बालक्ष्मी (1886-1969ई.)

बहिन सुब्बालक्ष्मी मद्रास प्रेसडेंसी की प्रथम हिन्दू विधवा थीं जिन्होंने स्नातक स्तर तक शिक्षा ग्रहण की. इन्होंने बाल-विधवाओं के कल्याण के लिए उच्च स्तरीय प्रयास किये. इन्होंने बाल-विधवाओं के लिए विधवा-गृहों, महिला विद्यालयों और अध्यापिका प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की. इन्होने 18 वर्ष तक की आयु की बाल-विधवाओं के लिए “आइस हाउस” तथा वयस्क विधवाओं के लिए “शारदा विद्यालय” नामक एक हाईस्कूल की स्थापना की. सुब्बालक्ष्मी भारतीय महिला संघ (Women’s India Association) और अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (All-India Women’s Conference) के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़ी थीं. उन्होंने बाल-विवाह निषेध सम्बन्धी कानून के समर्थन में महत्त्वपूर्ण कार्य किया.

गंगाबाई (महारानी तपस्विनी)

महारानी तपस्विनी के नाम से प्रसिद्ध गंगाबाई दक्षिण भारतीय महिला थीं, जो हिन्दू धार्मिक एवं नैतिक सिद्धातों के अनुरूप महिला शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से कलकत्ता में आकर बस गई थीं. इनका विश्वास था कि हिन्दू समाज को उसके अन्दर से पुनर्जीवित किया जाना चाहिए और इसके लिए नारी शिक्षा अत्यावश्यक है. इन्होंने 1893 ई. में कलकत्ता में महाकाली पाठशालाकी स्थापना की. इस पाठशाला की अनेक शाखाएँ थीं. उनके इस प्रयास को महिला शिक्षा को विकसित करने का विशुद्ध भारतीय प्रयास कहा गया है.

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (1820-1891ई.)

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर बंगाल के लिए एक सुविख्यात विद्वान् एवं समाज सुधारक थे. बंगाल में सामाजिक चेतना लाने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है. ये कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य भी थे. इन्होंने गैर-ब्राह्मणों को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया और ब्राह्मण एकाधिकार को चुनौती दी. इन्होंने सामाजिक क्षेत्र में विधवा-विवाह हेतु लम्बा आन्दोलन चलाकर और उसे कानूनी मान्यता दिलवाकर बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. 1855-56 ई. के मध्य 25 विधवाओं का पुनर्विवाह कराकर इन्होंने उस समय की सामाजिक धारा को मोड़ने का काम किया. 1855 ई. में इन्होंने 984 लोगों की हस्ताक्षरित याचिका कंपनी सरकार को विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम बनाने हेतु दी. इसके फलस्वरूप लॉर्ड डलहौजी की कार्यकारिणी के सदस्यों ने अंततः 26 जुलाई, 1856 ई. को विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर दिया.

डी.के. कर्वे (1858-1962ई.)

पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज के प्रध्यापक डॉ. डी.के. कर्वे महिलाओं की दशा सुधारने की दृष्टि से सर्वाधिक लम्बे समय और सबसे अधिक कार्य करने वाले महानतम समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं. डॉ. कर्वे ने विधवा-पुनर्विवाह को प्रोत्साहित तो किया ही, साथ ही पुणे में अनेक महिला विद्यालयों तथा विधवा-गृहों की स्थापना भी की. इन्होने स्वयं एक विधवा ब्राह्मणी से विवाह किया तथा पूना में विधवा आश्रम की स्थापना की. 1916 ई. में प्रथम महिला विश्वविद्यालय की स्थापना करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

विष्णु शास्त्री पंडित

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक विष्णु शास्त्री पंडित का पूरा जीवन विधवाओं के कल्याण के लिए प्रयासरत रहा. इन्होंने “विधवा-विवाह” नामक पुस्तक का मराठी में अनुवाद किया. इसके साथ ही 1850 ई. में उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह सभा (Widow Remarriage Association) की स्थापना की.

सावित्रीबाई फुले

  • महाराष्ट्र के नयगाँव में जनवरी 3, 1831 को जन्मी सावित्रीबाई फुले को भारत की सबसे पहली महिलावादी (feminist) माना जाता है क्योंकि ब्रिटिश राज में उन्होंने स्त्रियों के शिक्षाधिकार के लिए बड़ा संघर्ष किया था.
  • 1848 में वे भारत की पहली महिला शिक्षा बनीं और उन्होंने अपने समाज सुधारक पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए एक विद्यालय खोला था.
  • पति-पत्नी ने मिलकर जाति पर आधारित भेदभाव के विरुद्ध भी काम किया था जिसके लिए उन्हें पुणे के परम्परावादी समुदायों का प्रतिरोध झेलना पड़ा था.
  • 1854 में सावित्रीबाई फुले ने एक विधवाश्रम स्थापित किया जिसमें 1864 से निर्धन स्त्रियाँ और उन बालिका वधुओं को रखा जाने लगा था जिनको उनके परिवारों ने छोड़ दिया था.
  • सत्यशोधक समाज के कार्यकलाप में भी फुले की एक बड़ी भूमिका थी. विदित हो कि इस समाज की स्थापना ज्योतिराव फुले ने वंचित निम्न जातियों को समान अधिकार दिलाने के लिए थी.
  • महाराष्ट्र में प्लेग फैलने पर रोगियों के उपचार के लिए सावित्रीबाई ने 1897 में एक चिकित्सालय खोला था.
  • उन्होंने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की भी स्थापना की थी.
  • 2014 में उनके सम्मान में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर दिया गया.
  • जनवरी 3 को भारतीय समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले की जयंती मनाई जाती है.

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Tags : Earstwhile social evils associated with women, limitation of women’s reform movements, women in the centre of socio-religious movements of 19th century. NCERT नोट्स (short notes). 

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संसार लोचन sansarlochan.IN ब्लॉग के प्रधान सम्पादक हैं. SINEWS नामक चैरिटी संगठन के प्रणेता भी हैं. ये आपको अर्थशास्त्र (Economics) से सम्बंधित अध्ययन-सामग्री उपलब्ध कराएँगे और आपके साथ भारतीय एवं विश्व अर्थव्यवस्था विषयक जानकारियाँ साझा करेंगे.

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