पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change – IPCC) ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन के विषय में कई चिन्ताएँ व्यक्त की गईं.
IPCC प्रतिवेदन में व्यक्त चिंताएँ
- 2030 तक पूरे विश्व में कार्बन उत्सर्जन को 2010 वर्ष के स्तर से 45% नीचे लाना अनिवार्य होगा जिससे कि 2050 तक उत्सर्जन को समाप्त करने का लक्ष्य पाया जा सके.
- यदि ऐसा करने में हम सफल नहीं होते हैं तो दक्षिणी गोलार्द्ध में अवस्थित विश्व के अधिकतम जनघनत्व वाले उष्णकटिबंधीय भूभागों पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ेगा क्योंकि वे निचले अक्षांशों पर स्थित हैं और वहाँ पहले से ही तापमान ऊँचा है.
- उल्लेखनीय है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के हिसाब से वर्तमान में दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में उत्सर्जन कम ही होता है. परन्तु उत्तरी गोलार्द्ध के द्वारा वायुमंडल में मुक्त किये गये कार्बन के कारण संभावित जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक बड़ा प्रभाव दक्षिणी गोलार्द्ध पर ही पड़ेगा जिसका कारण ऊपर अभी बताया जा चुका है.
- ऐसे दुष्प्रभाव का एक नमूना इसी वर्ष तमिलनाडु में देखा गया जब वहाँ भीषण जलसंकट उपस्थित हो गया था.
आगे की राह
वैश्विक तापवृद्धि में कोई ठहराव नहीं आया है. समुद्रों में जमा ताप भविष्य में वैश्विक तापवृद्धि को आगे बढ़ाएगा इसमें कोई संदेह नहीं है. अतः सभी देश इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि 2016 में 197 देशों द्वारा हस्ताक्षरित संयुक्त राज्य पेरिस समझौते के अनुसार समुचित कदम उठाये जाएँ.
ज्ञातव्य है कि इस समझौते में यह लक्ष्य रखा गया था कि औद्योगिक युग (19वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) के समय जो वैश्विक तापमान था उसकी तुलना में वर्तमान वैश्विक तापमान को 2100 ई. तक 2˚C अधिक तक सीमित रखा जाए. यद्यपि अच्छा तो यह होता कि यह अंतर 1.5˚C ही रहता.
जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित अंतरसरकारी पैनल के एक प्रतिवेदन के अनुसार यदि यह लक्ष्य पाना है तो 2030 तक वार्षिक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को आधा करना आवश्यक होगा. तभी 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है.
ऐसा पाया जाता है कि जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव यह देखते हुए नहीं पड़ता है कि कौन-सा देश कितने कार्बन का उत्सर्जन कर रहा है. कहने का अभिप्राय यह है कि जो देश अधिक कार्बन छोड़ रहे हैं उनपर इसका दुष्प्रभाव कम होता है और जो कम कार्बन छोड़ रहे हैं उन्हीं के ऊपर संकट आ जाता है. इस स्थिति को देखते हुए एक Just Energy Transition (JET) model की परिकल्पना की गई है. इसके अनुसार जो समृद्ध देश ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव पर पैसा खर्च कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि इस बदलाव के लिए अल्प-विकसित देशों की ओर से किये जा रहे प्रयासों के लिए भी वे अपना आर्थिक योगदान करें.
विदित हो कि इन देशों को अपनी GDP का 1.5% खर्च करना पड़ता है. यदि समृद्ध देश इसमें अपना हाथ बंटाएंगे तो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना सब के लिए सरल हो जाएगा.
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