- मुसलमानों के पवित्र स्थानों पर तुर्की के सुल्तान खलीफा का नियंत्रण रहे.
- खलीफा के अधीन इतना भूभाग रहे कि वह इस्लाम की रक्षा कर सके.
- जारीजात उल अरब (अरब, सीरिया, इराक तथा फिलिस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे.
पृष्ठभूमि
प्रथम विश्व युद्ध में मुसलामानों का सहयोग लेने लिए अंग्रेजों ने तुर्की के प्रति उदार रवैया अपनाने का वादा किया था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने यह वादा किया था कि, “हम तुर्की को एशिया माइनर और थ्रेस की उस समृद्ध और प्रसिद्ध भूमि से वंचित करने के लिए युद्ध नहीं कर रहे हैं जो नस्ली दृष्टि से मुख्य रूप से तुर्क है.” परन्तु बाद में अंग्रेज इस वादे से मुकर गये. ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों ने उस्मानिया सल्तनत के साथ अपमानजनक व्यवहार किया तथा उसके टुकड़े-टुकड़े कर थ्रेस को हथिया लिया. इससे भारत के राजनैतिक चेतना प्राप्त मुसलमान काफी क्षुब्ध थे. तुर्की के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवतर्न लाने के उद्देश्य से भारतीय मुसलामानों ने आंदोलन छेड़ने का निश्चय किया.
शीघ्र ही अली भाइयों (मौलाना अली एवं शाकैत अली), मालैाना आजाद, हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत कमेटी गठित हुई और देशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया गया. वस्तुतः इस आंदोलन के साथ मुस्लिम जनता पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ी. कांग्रेस के नेता भी खिलाफत आंदोलन में शामिल हुए और उन्होंने सारे देश में इसे संगठित करने में मुस्लिम नेताओं की सहायता की. महात्मा गांधी भी खिलाफत आंदोलन में सहयोग देने के इच्छुक थे. उनके लिए खिलाफत आंदोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बाधने का एक ऐसा सुअवसर था, जो सैकड़ों वर्षों में नहीं आयेगा. शीघ्र ही गांधीजी खिलाफत आन्दोलन के एक मान्य नेता के रूप में उभरे. नवम्बर 1919 में गांधीजी खिलाफत आंदोलन के अध्यक्ष चुने गये. सम्मेलन में उन्होंने मुसलमानों से कहा कि वे मित्र राष्ट्रों की विजय के उपलक्ष्य में आयोजित सार्वजनिक उत्सवों में भाग न लें. उन्होंने धमकी दी कि यदि ब्रिटेन ने तुर्की के साथ न्याय नहीं किया तो बहिष्कार और असहयोग आंदोलन शुरू किया जायेगा. मालैाना आजाद, अकरम और फजलुल हक ने खिलाफत आन्दालेन और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में बंगाल का दौरा किया.
1920 के प्रारंभ में ही हिन्दुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त प्रतिनिधि मंडल वायसराय से मिला, जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उन्हें ऐसी उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. एक प्रतिनिधि मंडल उसके बाद इंग्लैंड गया, परन्तु प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने रूखा उत्तर दिया कि “पराजित ईसाई शक्तियों के साथ किए जाने वाले बर्ताव से भिन्न बर्ताव तुर्की के साथ नहीं किया जायेगा.” 1920 तक ब्रिटिश हुकूमत ने खिलाफत नेताओं से यह स्पष्ट कह दिया कि वे अब और अधिक उम्मीद नहीं रखें. तुर्की के साथ पेरिस सम्मेलन में 1920 में की गयी.
‘सेव्रेस की संधि’ इस बात का सबतू थी कि तुर्की के विभाजन का फैसला अंतिम है. इससे नेताओं में बहुत ही रोष फैला. गांधीजी ने खिलाफत कमेटी को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अहिंसक आन्दोलन छेड़ने की सलाह दी. 9 जून, 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को सवर्सम्मति से स्वीकार कर लिया और गाँधीजी को इस आन्दालेन का नतेृत्व करने का दायित्व सौंपा गया.
खिलाफत आन्दोलन का पतन
असहयोग का चार चरणों वाला एक कार्यक्रम घोषित किया गया जिसमें उपाधियों, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और अंततः करों को न देना शामिल था. गांधीजी ने कांग्रेस को भी खिलाफत और अन्य मुद्दों पर असहयोग आन्दोलन छेड़ने के लिए मना लिया. इस तरह दोनों संगठनों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. खिलाफत कमेटी ने मुसलमानों से कहा कि वे सेना में भर्ती न हों. इसके लिए अली बंधुओं को गिरफ्तार कर लिया गया. इस पर कांग्रेस ने सारे भारतीयों से अपील की कि वे किसी भी रूप में सरकार की सेवा न करें. आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने व्यापक दमन चक्र का सहारा लिया. खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में सफल नहीं रहा. खिलाफत का प्रश्न जल्दी ही अप्रासंगिक हो गया. तुर्की की जनता मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में उठ खड़ी हुई.
1922 में सुल्तान को सत्ता से वंचित कर दिया गया. कमाल पाशा ने तुर्की के आधुनिकीकरण के लिए तथा इसे धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने के लिए कई कदम उठाये. उसने खिलाफत समाप्त कर दी और संविधान से इस्लाम को निकालकर उसे धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया. शिक्षा का राष्ट्रीयकरण हुआ, स्त्रियों को व्यापक अधिकार मिला और उद्योग धंधों का विकास हुआ. इन कदमों से खिलाफत आन्दोलन की बुनियाद ही नष्ट हो गयी. अपने मूलभूत उद्देश्यों को पूरा नहीं करके भी परोक्ष परिस्थितियों की दृष्टि से यह आन्दोलन काफी सफल रहा.
खिलाफत आन्दोलन के परोक्ष परिणाम
मुसलमानों का राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होना
इस आन्दालेन के फलस्वरूप देश के मसुलमान राष्ट्रीय आन्दालेन में शामिल हुए तथा राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े. उन दिनों देश में जो राष्ट्रवादी उत्साह तथा उल्लास का वातावरण था, उसे बनाने में काफी हद तक इस आन्दोलन का भी योगदान था.
हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल
इस आन्दोलन के फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को बल मिला. दोनों ने मिलकर विदेशी सरकार से संघर्ष किया तथा एक-दूसरे की भावनाओं का आदर किया.
सांप्रदायिकता को बल मिला
ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा केवल मुसलमानों की एक मांग उठाने से धार्मिक चेतना का राजनीति में समावेश हुआ और अंततः सांप्रदायिक शक्तियाँ मजबूत हुई. परन्तु राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा यह मांग उठाना गलत नहीं था. उस समय यह आवश्यक था कि समाज के विभिन्न अंग अपनी विशिष्ट मांगों और अनुभवों द्वारा स्वतंत्रता की जरुरत को समझें. फिर भी मुसलमानों की धार्मिक चेतना को ऊपर उठाकर उसे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चतेना तक ले जाने में राष्ट्रवादी नतेृत्व कुछ सीमा तक असपफल रहा. इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुसलमानों में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रचार हुआ. इस आंदोलन ने खलीफा के प्रति मुसलमानों की चिंता से भी अधिक साम्राज्यवाद विरोधी भावना का ही प्रतिनिधित्व किया और इसे ठोस अभिव्यक्ति दी. इस तरह खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में असफल रहा, परन्तु इसके परोक्ष परिणाम महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए.
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