आशा है कि आपने लॉर्ड लिटन की आंतरिक नीति (Domestic Policy) वाला पोस्ट पढ़ लिया होगा. नहीं पढ़ा तो यहाँ पढ़ लें > लॉर्ड लिटन. इस पोस्ट में हम लॉर्ड लिटन की अफगान नीति और गंडमक की संधि क्या थी, उस विषय में पढ़ेंगे.
लॉर्ड लिटन की अफगान-नीति (Lord Lytton’s Afghan Policy)
प्रथम अफगान युद्ध के बाद 1844 ई० में इंगलैण्ड और रूस में एक समझौता हुआ. इस समझौता के अनुसार बुखारा, खिवा और समरकन्द के राज्यों की तटस्थता कायम कर दी गयी. इंगलैण्ड और रूस का तनाव कुछ कम हुआ. लेकिन यह समझौता अधिक दिनों तक कायम रहनेवाला नहीं था. 1853 ई० में यूरोप में क्रीमिया-युद्ध छिड़ गया, जिसमें इंगलैण्ड और रूस एक-दूसरे के विपक्षी थे और 1844 ई० के समझौते का अन्त हो गया. क्रीमिया-युद्ध में रूस की हार हो गयी. अब रूस को दूसरी दिशा में अपना विस्तार करना था. रूस धीरे-धीरे अपना प्रभाव मध्य एशिया में फैलाने लगा और अफगानिस्तान की सीमा तक आ धमका. कम्पनी सरकार को रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना था लेकिन दोस्त मुहम्मद अभी जीवित था. अंगरेजों को अभी चिन्ता करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी.
दोस्त मुहम्मद के सोलह पुत्र थे. 1863 ई० में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में गद्दी के लिए संघर्ष शुरू हो गया. इस समय सर जॉन लॉरेन्स भारत का गवर्नर-जनरल था. दोस्त मुहम्मद ने शेरअली को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था. अत: गृहयुद्ध में शेरअली ने भारत सरकार से सहायता मांगी. लेकिन लॉरेन्स ने इस समय दूसरी नीति अपनायी. इसे अकर्मण्यता की नीति (policy of stagnation) कहते हैं. यह तटस्थता की नीति का दूसरा नाम था. लॉरेन्स का कहना था कि हम उसी व्यक्ति को काबुल का अमीर स्वीकार करेंगे जिसके हाथों में वास्तविक सत्ता हो. वह अफगानिस्तान के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार के हस्तक्षेप का कट्टर विरोधी था. इस तरह जो अमीर सत्ता हासिल करता, लरिन्स उसी को मान्यता देता. जब 1868 ई० में शेरअली समस्त अफगानिस्तान पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हुआ तो लोरिन्स ने उसे अमीर स्वीकार कर आर्थिक मदद भी दी. लॉरेन्स ने इस अकर्मण्यता की नीति को अपनाकर बहुत अच्छा काम किया. अगर अफगानिस्तान में वह हस्तक्षेप करता तो रूस भी हस्तक्षेप करता और इस तरह समस्या और भी जटिल हो जाती. अकर्मण्यता की नीति को अपनाकर उसने एक अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को होने से रोक दिया.
1868 ई० में लॉर्ड मेयो भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ. वह भी लॉरेन्स की नीति का समर्थक था. उसने शेरअली का सहायता करके रूस के प्रभाव को रोकने की चेष्टा की. उसने. 1569 ई० में शेरअली को आमंत्रित किया. अम्बाला में दोनों की मुलाकात हुई. शेरअली भारत सरकार से स्पष्ट करा लेना चाहता था कि आवश्यकता पड़ने पर भारत सरकार जी-जान से उसकी मदद करेगी. लेकिन लॉरेन्स की ओर से उसको कोई निश्चित आश्वासन नहीं मिल सका. रूसी शक्ति को बढ़ते देखकर शेरअली चाहता था कि भारत सरकार साफ-साफ शब्दों में अपनी नीति का स्पष्टीकरण कर दे. परन्तु वायसराय अपनी तटस्थता की नीति से डिगनेवाला नहीं था. इस कारण शेरअली अंगरेजों से काफी नाराज था.
लॉर्ड मेयो के बाद 1872 ई० में लॉर्ड नॉर्थब्रुकग्रुक भारत का गवर्नर-जनरल हुआ. उसने भी लॉरेन्स की नीति अपनायी. इसी बीच रूस का प्रभाव और अधिक बढ़ने लगा. मध्य एशिया के छोटे-छोटे देश एक-एक कर रूस के कब्जे में जा रहे थे. शेरअली बहुत डरा हुआ था. उसने वायसराय के पास एक एजेन्ट भेजा और रूसी आक्रमण के विरुद्ध स्पष्ट गारण्टी की मांग की. लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला. ऐसी स्थिति में शेरअली अपनी रक्षा के लिए रूस की ओर मुड़ा. अब नॉर्थब्रुक पर अफगानिस्तान के सम्बन्ध में हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण करने के लिए लन्दन से दबाव पड़ने लगा. लेकिन लॉर्ड नॉर्थब्रुक हस्तक्षेप करने की नीति के विरुद्ध था. उसने ऐसी स्थिति में इस्तीफा देना ही ठीक समझा. उसके बाद 1876 ई० में लॉर्ड लिटन वायसराय होकर आया.
इस समय इंगलैण्ड का प्रधानमंत्री दुर्धर्ष साम्राज्यवादी डिजरैली था. वह एशिया में रूसी प्रसार को सीमित करने के लिए सब कुछ करने का तैयार था. लिटन उसका अपना आदमी था और उसका मुख्य उद्देश्य डिजरैली की नीति को कार्यान्वित करना था. वह शेरअली की सारी शर्त्तों को भी स्वीकार करने के लिए तैयार था. लेकिन उसके लिए दो-तीन शर्त्तें थीं कि अमीर काबुल में अंगरेजी रेजीडेण्ट रखे तथा राजनीतिक और सामरिक सुविधा के लिए अफगानिस्तान की सीमा पर एक स्थान दे दे. लेकिन अमीर इन प्रस्तावों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. उसका कहना था कि यदि वह ब्रिटिश रेजिडेण्ट को काबुल में रखेगा तो वह रूसी एजेन्ट को रखना कैसे इनकार कर सकता है. दूसरे शब्दों में, अमीर ने वायसराय के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. उधर अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव तीव्रता से तीव्रता बढ़ रहा था. 1878 ई० में अमीर ने रूस के साथ एक सन्धि की. रूस ने अमीर को बाहरी हमले के विरुद्ध सुरक्षा का आश्वासन दिया. अब लिटन के गुस्से का ठिकाना न रहा.
उसने इस बार ब्रिटिश एजेन्ट रखने की जोरदार मांग की और एक व्यक्ति को कुछ सैनिकों के साथ एजेन्ट बनाकर काबुल के लिए रवाना भी कर दिया. इस मिशन को अफगानिस्तानियों ने रास्ते में ही रोक दिया. इस घटना से लिटन गुस्सा हुआ. 22 नवम्बर, 1878 ई० को उसने अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. यह द्वितीय अफगान युद्ध था.
युद्ध की घटनाएँ
अंगरेजी सेनाओं को कहीं भी अफगानों की ओर से भीषण प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा. शेरअली ने रूस से सहायता पाने की कोशिश की, लेकिन इसमें वह सफलता नहीं पा सका. अतः वह अपने सबसे बड़े पुत्र याकूब खाँ को अपना उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं तुर्किस्तान की ओर भाग गया और 2 फरवरी, 1882 ई० को उसकी मृत्यु हो गयी. उसके मरते ही लॉर्ड लिटन ने उसके पुत्र याकूब खाँ को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया. उसके साथ अंगरेजी सरकार ने गंडमक की सन्धि कर ली.
गंडमक की सन्धि (Treaty of Gandamak)
इस सन्धि के द्वारा अंगरेज सरकार ने याकूब खाँ को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया. याकूब खाँ ने अपने यहाँ अंगरेज राजदूत रखने और अपनी वैदेशिक नीति को अंगरेजों के परामर्श से चलाने की शर्त्त स्वीकार कर ली. इस सन्धि के अनुसार कुर्रम के दर्रे पर अंगरेजों का अधिकार मान लिया गया. इन लाभों के बदले में, अंगरेजों ने अफगानिस्तान के अमीर याकूब खाँ को छह लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया तथा उसकी बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना भी स्वीकार किया. याकूब खाँ ने काबुल में एक अंगरेज रक्षक-दल रखने की स्वीकृति भी प्रदान की. इस प्रकार इस सन्धि के द्वारा लॉर्ड लिटन की अग्रगामी नीति पूर्णतः सफल हुई.
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