वर्ष 1916 का कांग्रेस अधिवेशन लखनऊ में आयोजित हुआ, जिसकी अध्यक्षता नरमपंथी नेता अम्बिका चरण मजुमदार ने की थी. गरमपंथियों का कांग्रेस में फिर से शामिल होना तथा लीग के साथ समझौता इस अधिवेशन की प्रमुख उपलब्धि थी. कांग्रेस के दोनों धड़ों को आभास हो गया था कि पुराने विवादों को दोहराने की अब कोई प्रासिंगता नहीं रह गई है तथा आपसी मतभेदों से राष्ट्रीय आन्दोलन में बाधा उत्पन्न हो सकती है. गोपाल कृष्ण गोखले तथा फिरोजशाह मेहता दोनों ही गरमपंथियों के कट्टर विरोधी थे तथा किसी भी परिस्थिति में उनसे समझौता नहीं करना चाहते थे. अतः इनकी मृत्यु के बाद ही कांग्रेस में गरमपंथियों का प्रवेश संभव हो सका. कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच सहयोगात्मक समझौता लखनऊ अधिवेशन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी. इसी कारण लखनऊ अधिवेशन को “लखनऊ समझौता” (Lucknow Pact) भी कहा गया है.
लखनऊ समझौता
भारतीय जनता में उभरे व्यापक आर्थिक और राजनैतिक असंतोष और राष्ट्रवादी भावना तथा राष्ट्रीय एकता की आकांक्षा के कारण 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राष्ट्रीय महत्त्व की दो घटनाएँ घटीं-
- कांग्रेस के नरमपंथी और गरमपंथी अपने मतभेद भुलाकर एक हो गये.
- कांग्रेस और मुस्लिम लीग में लखनऊ समझौता हुआ और दोनों ने एक होकर संघर्ष का निश्चय किया.
कांग्रेस के नरमपंथियों और गरमपंथियों में जो फूट 1907 के सूरत अधिवेशन में पड़ी थी, वह लखनऊ अधिवेशन में आकर ठीक हो गयी. दोनों ही पक्षों ने यह महसूस किया था कि यदि एक होकर संघर्ष किया जाये तो इसके अच्छे नतीजे होंगे. गोखले और फिरोजशाह महेता की मृत्यु ने भी नरमपंथियों का रूख नरम कर दिया था. इसके अतिरिक्त श्रीमती एनी बेसेंट गरमपंथी नेताओं तिलक और उनके सथियों को कांग्रेस में लेने के लिए सहमत कराने का प्रयास भी कर रही थी. लखनऊ अधिवेशन में दोनों पक्षों में एकता होने के ये सभी प्रमुख कारण थे. इन्हीं परिस्थितियों में लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान को संशेाधित किया गया ताकि उपग्रन्थियों का प्रवेश सुनिश्चित हो सके. इस प्रकार 1907 के बाद लखनऊ कांग्रेस प्रथम संयुक्त कांग्रेस थी.
कांग्रेस और लीग के बीच जो लखनऊ समझौता हुआ, उसके अनुसार कांग्रेस पृथक मताधिकार का मानने तथा मुस्लिम अल्पसंख्यक को अतिरिक्त महत्त्व देने के लिए सहमत हो गयी.
19 सूत्रीय ज्ञापन पत्र
एक 19 सूत्रीय ज्ञापन पत्र प्रस्तुत किया गया, जिसके द्वारा सरकार के समक्ष निम्नलिखित माँगें प्रस्तुत की गईं –
- भारत को जल्द से जल्द स्वशासन प्रदान किया जाए.
- केन्द्रीय विधान परिषदों, प्रांतीय विधान परिषदों तथा गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् का विस्तार किया जाए तथा इन परिषदों में निर्वाचित भारतीयों की संख्या में वृद्धि की जाए.
- विधान परिषदों के कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष होनी चाहिए.
जिन्ना, तिलक तथा एनी बेसेंट ने दोनों धड़ों को मिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की. जिन्ना और तिलक दोनों ने यह महसूस किया कि भारत को स्वतंत्रता तभी मिल सकती है जब हिन्दू- मुस्लिम एकता स्थापित हो. यद्यपि लखनऊ समझौता हिन्द-मुस्लिम एकता की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कदम था, फिर भी पृथक निवार्चन जसै मुद्दे पर सहमति जताकर कांग्रेस ने भविष्य में सांप्रदायिकता के उदय के लिए मार्ग खुला छोड़ दिया.
कांग्रेस के दोनो धड़ों में एकता तथा लखनऊ समझौता से देश में व्यापक राजनीतिक उत्साह जागा और ब्रिटिश सरकार भी यह घोषणा करने के लिए मजबूर हुई कि उसकी नीति देश में ब्रिटिश सरकार के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार के लिए स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास करना है.
संक्षेप
यह अधिवेशन दो दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा. पहला, तिलक के नेतृत्व में गरमपंथियों का कांग्रेस में पुनर्प्रवेश तथा दूसरा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता. कांग्रेस और मुस्लिम ने अलग-अलग ढंग से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त योजना से सम्बंधित प्रस्ताव पारित किये और राजनीतिक क्षेत्र में एक-दूसरे के सहयोग करने के सम्बन्ध में भी समझौते किये. यह समझौता “लखनऊ समझौता” या “लीग-कांग्रेस समझौता” के नाम से जाना जाता है.
नतीजा
इस समझौते से ही कांग्रेस ने मुसलामानों के लिए पृथक् निर्वाचन की माँग स्वीकार कर ली कालांतर में भयावह सिद्ध हुआ. इस समझौते के बाद मुस्लिम लीग ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखा तथा मुसलामानों के लिए पृथक् राजनीतक अधिकारों की माँग करता रहा. इस समझौते के परिणामस्वरूप द्वि-राष्ट्र सिद्धांत उत्पन्न हुआ. असहयोग आन्दोलन के स्थगित होते ही यह समझौता भंग हो गया तथा कांग्रेस व मुस्लिम लीग एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी हो गया. यही वह समझौता था जिसने भावी राजनीति के लिए साम्प्रदायिकता का बीज बोया. मदन मोहन मालवीय ने लखनऊ समझौता का विरोध किया था.
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