गुप्तकाल के बाद मध्य प्रदेश में प्रतिहार, परमार, कल्चुरि, कच्छपघात आदि विभिन्न राजवंशों के राजाओं द्वारा मन्दिर-निर्माण की परम्परा निरन्तर विकसित होती रही. ग्वालियर, ग्यारसपुर, उदयपुर, बरुआसागर, नरेसर, खरोद, नोहटा, सोहागपुर, भेड़ाघाट, गुर्गी, सुरवाया, सुहनिया, मितावली, मैहर, नचना-कुठार आदि अनेक स्थानों पर विभित्र प्रकार के मन्दिरों का निर्माण किया गया था.
मध्य प्रदेश के कुछ प्रसिद्ध मंदिर
नरेसर (जिला मोरेना)
ग्वालियर से लगभग 18 किलोमीटर दूर घने जंगल में 20 मन्दिरों का यह समूह प्रारंभिक प्रतिहार कला का उत्तम रूप प्रस्तुत करता है. 10वीं से 12वीं शती ई० के बीच बने इन मंदिरों के चौकोर गर्भगृह के ऊपर चापदार त्रिरथ शिखर हैं. इनके प्रवेशद्वार लतागुल्मों तथा सर्प-कुंडलियों से सजाए गए हैं. इनकी दीवारों के आलों में प्रायः शैव धर्म के देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं जैसे पार्वती, कार्तिकेय, गणेश, मातृदेवियाँ, शिव-पार्वती विवाह (कल्याण सुन्दम्) आदि.
ग्वालियर
ग्वालियर में तेली का मन्दिर प्रतिहार स्थापत्य का बेजोड़ नमूना है. इसका आयताकार गर्भगृह लगभग 25 मीटर ऊँची दीवारों और ढोलकाकार छत से निर्मित है. इसको दीवारों में पाँच-पाँच उभार हैं जो ऊपर चापदार मेहराब से सुशोभित हैं. दीवारों पर एक पंक्ति में देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ हैं. इसका प्रवेशद्वार पाँच द्वारशाखाओं तथा गंगा-यमुना की प्रतिमाओं से अलंकृत है. मन्दिर में प्राप्त अभिलेखों की लिपि के आधार पर इसका निर्माण मिहिर भोज के काल में लगभग 850 ई० में हुआ होगा.
ग्वालियर में ही आगे चलकर ग्यारहवीं शती ई० में कच्छपघात वश के राजा महीपाल ने दो विष्णु-मन्दिरों का निर्माण करवाया था जिन्हें सास-बहू का मन्दिर कहा जाता है. इस मंदिर का तिमंजिला मण्डप, दोमंजिला अन्तराल तथा अर्द्धमण्डप इसे एक नया स्वरूप अदा करते हैं. इसका विशाल शिखर अब नहीं है. इस मन्दिर में तीन अर्द्धमण्डप हैं. यह मन्दिर भीतर और बाहर मूर्तियों और अलंकरणों से सजा है.
बरुआ सागर
झाँसी-मऊरानीपुर मार्ग पर झाँसी से लगभग 3 किलोमीटर दूर बरुआ सागर का विष्णु-मन्दिर है. पंचायतन शैली के इस मन्दिर में अब केवल दो ही छोटे मन्दिर शेष हैं. मुख्य मन्दिर चौकोर गर्भगृह के ऊपर पंचरथ शैली में शिखर से युक्त है. तेली के मन्दिर के समान इसमें भी अंतराल है. प्रवेशद्वार का ललाटबिम्ब गजलक्ष्मी के रूप में हे, उसके ऊपर विष्णु और उनके अगल-बगल ब्रह्मा और शिव हैं. नीचे नवग्रह की आक़तियाँ हैं. प्रवेशद्वार पर गगा-यमुना की मूर्तियाँ हैं जिनके साथ कतिपय मिथुन-मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण हैं. चार घोड़ों से जुते रथ पर सूर्य की प्रतिमा भी उकेरी गई है.
ग्यारसपुर
विदिशा जिले में ग्यारसपुर का मालादेबी मन्दिर आधा चट्टान को तराशकर तथा आधा पत्थरों से निर्मित किया गया है. यह प्रतिहार शैली के विकसित स्वरूप का उदाहरण है. इसमें गर्भगृह, मण्डप, अन्तराल तथा अर्द्धमंडप सभी अंग निरूपित हैं. इसका गर्भगृह त्रिरथ तल योजना पर है किन्तु शिखर पंचरथ है. 9वीं शती ई० में बने इस मन्दिर में यक्ष-यक्षियों की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमाएँ पाई गई हैं.
नोहटा
जबलपुर से लगभग 22 किलामीटर दूर दमोह को दिशा में नोहटा का महादेव मन्दिर है. ऊँचे अधिष्ठान के ऊपर चौकोर गर्भगृह है और उसके ऊपर चाप की आकृति का ऊँचा पंचरथ शिखर है जिसकी ग्रीवा के ऊपर दोहरा आमलक है. मन्दिर के आगे चौकोर विशाल स्तम्भ प्रण्टप है जिसका कम ढालदार शिखर भी तिहरे आमलक से अलंकृत है. मण्डप के आगे छोटा चौकोर अर्द्ध-मण्डप है जो चार स्तम्भों पर आधारित है तथा जिसकी छत सपाट हैं. दसवीं शती ई. में बने कल्चुरिकाल के इस मन्दिर की मूर्तियों में नृत्य करते शिव और चामुण्डा उल्लेखनीय हैं.
खरोद
दसवीं शताब्दी में बना और शिव को समर्पित यह कल्चुरि मन्दिर त्रिलासपुर जिले में है. यह मंदिर दीवार से घिरे एक विशाल श्रागण के एक किनारे पर बना है. ऊंचे अधिष्ठान पर चौकार गर्भगृह के ऊपर शिखर बाले इस मन्दिर का प्रवेशद्वार आदमकद गंगा तथा यमुना की प्रतिमाओं से अलंकृत है.
सोहागपुर
शहडोल जिले के सोहागपुर का विष्णु-मंदिर वास्तु योजना में खजुराहों के कन्दरिया महादेव जैसा जान पड़ता है. सप्तरथ गर्भगृह, मंडप, अन्तराल तथा अर्द्धमंडप सभी कंदरिया महादेव मंदिर के समान बंद हैं. इसका शिखर लम्बोतरा और तीन आमलकों से सुस्सजित है. रुचिकर मूर्तियों से अलंकृत यह मन्दिर कल्चुरि वास्तुकला का सर्वोत्तम उदाहरण है.
मितावली
ग्वालियर-भिंड मार्ग पर रिथोरकलाँ स्टेशन से केवल बैलगाड़ी से मितावली पहुंचा जा सकता है. ग्वालियर से लगभग 30 किलोमीटर दूर यह गोल मन्दिर 100 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है. गोल चबूतरे पर गोल गर्भगृह के चारों ओर स्तम्भों पर आधारित प्रदक्षिणापथ वाले इस मन्दिर की छत सपाट है, किन्तु ऊँची मुँडेर से सुरक्षित है. मन्दिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है तथा इसका प्रवेशद्वार मूर्तियों से अलंकृत है.
भेड़ाघाट का चौसंठ योगिनी मन्दिर भी गोल वास्तुयोजना पर बनाया गया था. इसके बीच में शिव मन्दिर है.
सुरवाया
झाँसी से 80 किलोमीटर पश्चिम में तथा शिवपुरी से 22 किलोमीटर दूर सुरवाया (सरस्वती) के तीन मन्दिर एक ऊँची प्राचीर से घिरे विशाल प्रांगण में स्थित हें. तीनों मन्दिरों में चौकोर गर्भगृह ओर उनके आगे खुला अर्द्धमण्डप है. तीनों के शिखर गिर चुके हैं. ललाटबिम्ब गरुड़ासीन विष्णु के रूप में संकेत करता है कि मन्दिर मूलतः विष्णु को समर्पित था, यद्यपि अब उसमें शिवलिंग स्थापित है.
सुहनिया
सुहनिया (सिंहपनीय) में ग्वालियर के कच्छपघातवंशी नरेश कीर्तिराज (1015-35) ने अपनी रानी ककनावती के लिए ककनामठ नामक एक मन्दिर का निर्माण करवाया था. मंदिर एक ऊंचे और विशाल अधिष्ठान पर बना है. इसका शिखर एक ऊँचे स्तम्भ मण्डप और गर्भगृह के ऊपर स्थित है. दोमंजिला बने इस मन्दिर के शिखर के समक्ष एक अर्द्धमण्डप भी है. इसका मण्डप ऊँचे और सुगढ़ स्तम्भों पर आधारित है और उत्कृष्ट मूर्तियों से अलंकृत है.
खजुराहो
मध्य प्रदेश में छतरपुर जिले के खजुराहो-क्षेत्र में बने मन्दिर मध्यकालीन स्थापत्य कला के महत्त्वपूर्ण उदाहरण माने जाते हैं. सच कहा जाए तो उत्तरी भारत में बने नागर मन्दिरों के ये सर्यश्रेष्ठ नमूने हैं. खजुराहो के मन्दिर 9वीं से लेकर 12वीं शताब्दी के बीच चन्देलवंशी नरेशों के द्वारा बनवाए गए थे. खजुराहो में 85 मन्दिर थे जिनम अब केवल 25 ही बचे हैं. ये मन्दिर शेष, वैष्णव तथा जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं. ये मन्दिर खजुराहो की धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देते हैं. खजुराहो के मन्दिरों में गर्भगृह, मण्डप, अर्द्धमण्डप और अन्तराल तथा प्रदक्षिणापथ से युक्त महामण्डप सभी एक में ही संगठित होते हैं और इन सबके ऊपर चतुष्कोणिक शिखर होते हैं.
खजुराहो की मूर्तियों की बाहरी तथा भीतरी भित्तियाँ नाना प्रकार की मूर्तियों से अलंकृत हैं. खजुराहो की मूर्तियों में देव-प्रतिमाएं, पार्श्व देवता, सुर-सुन्दरियाँ, अप्सराएं, मानव मिथुन, पशु-पक्षी आदि मुख्य हैं. प्रेम-पत्र लिखती हुई नायिका की आकृति दर्शनीय है. खजुराहो अपनी शृंगारिक मूर्तियों के लिए विश्व-भर में प्रसिद्ध हे. इन मूर्तियों में प्रगाढ़ तन्मयता और आनन्दातिरेक की भावना व्यक्त होती है.
खजुराहो के मन्दिरों तीन समूहों में गिनाये जा सकते हैं –
पश्चिम समूह
- पश्चिम समूह – इस समूह में 12 मन्दिर मुख्य हैं जो वैष्णव, शैव, शाक्त और सौर सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं. इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कन्दरिया महादेव का मन्दिर है जिसकी जंघा समानान्तर मूर्ति-पंक्तियों से भरी हुई है और जिसका शिखर कई शिखरों से संयुक्त है.
- पूर्वी समूह – इस समूह में छः जैन मन्दिर हैं. इनमें पार्श्वनाथ का मन्दिर सर्वाधिक अलंकृत है.
- दक्षिणी-पूर्वी समूह – इस समूह में जैन तथा हिन्दू दोनों प्रकार के मन्दिर हैं. दूल्हादेव तथा चतुर्भुज हिन्दुओं के महत्त्वपूर्ण मन्दिर हैं.