साम्राज्यों का उत्थान और पतन एक ऐतिहासिक सत्य है, लेकिन यह भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या साम्राज्यों के पतन के कारणों का ज्ञान होने के बावजूद भी उनके पतन को कभी रोका जा सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि साम्राज्यों के अंत के कारणों का विश्लेषण इतिहासकार के अपनी दृष्टिकोण पर निर्भर करता है. फिर भी साम्राज्य के पतन के कारणों को जानने के लिए वस्तुनिष्ठ प्रयास तो होना ही चाहिए. मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अशोक की नीतियों, साम्राज्य की केंद्रीकृत नौकरशाही पर आधारित व्यवस्था, प्रांतीय गवर्नरों की निरंकुशता, साम्राज्य का अखिल भारतीय स्वरूप और अत्यधिक विस्तार, अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी, आर्थिक या राजकोषीय संकट या फिर क्षेत्रीयता की भावना को माना जाता है.
मौर्य साम्राज्य का पतन
अशोक को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए तीन दृष्टियों से उत्तरदायी माना जाता है यथा –
- उसकी ब्राह्मण-विरोधी नीतियाँ और मौर्य वंश के प्रति ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया.
- उसका युद्धविमुख होना और मौर्य सैन्य शक्ति का ह्रास
- उसके समय में जिस प्रकार राज्य के व्यय में वृद्धि हुई उससे राजकोषीय संकट उत्पन्न होना.
तार्किक विश्लेषण के आधार पर अशोक को इन तीनों आरोपों से मुक्त किया जा सकता है.
अशोक ने अपने धम्म का प्रतिपादन करते हुए भी स्पष्टतः ब्राह्मणों के सम्मान का भी आग्रह किया था और धम्म यात्राओं के समय ब्राह्मणों को मुक्त-हस्त होकर उपहार भी प्रदान किये गये. जहाँ तक पशुबलि पर प्रतिबंध का प्रश्न है, यह प्रतिबंध मात्र जंगली पशु-पक्षियों के संदर्भ में था जिनकी सूची दीर्घ स्तम्भ लेख पाँच (V) में दी गई है. वैसे पशुओं का वध, जोकि समाज की भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता था, प्रतिबंधित नहीं था.
जिस प्रकार उसने दंड-समता और व्यवहार-समता जैसे सिद्धांतों का क्रियान्वयन करके विधि के शासन की स्थापना करने का प्रयास किया, उससे ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के हनन के कारण उनमें स्वाभाविक ही आक्रोश उत्पन्न हुआ होगा. इस संदर्भ में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों ने उन्हें विशेषाधिकारों का दुरूपयोग करने वाला वर्ग बना दिया था? ऐसी संभावना को स्वीकार नहीं किया जा सकता. इसलिए क्या ब्राह्मण वर्ग उसके दंड-समता और व्यवहार-समता की नीति से प्रभावित हुआ? क्या ब्राह्मण प्रतिक्रियावादी थे? अशोक के समय ब्राह्मणों द्वारा विरोध/विद्रोह का साक्ष्य नहीं मिलता है. यद्यपि अंतिम मौर्य सम्राट् वृहद्रथ का वध ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने किया. यह एक सेनापति के द्वारा सत्ता के अपहरण का उदाहरण है. साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि यदि मौर्य ब्राह्मण विरोधी थे तो एक ब्राह्मण मौर्य सम्राट् का सेनापति कैसे बना. इससे स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि मौर्य शासकों ने किसी प्रकार के भेदभाव की नीति का पालन नहीं किया और ब्राह्मणों की नियुक्ति उच्च पदों पर होती रही. यह तथ्य ध्यातव्य है कि ब्राह्मण शुंग वंश के अंतिम शासक देवभूति का वध करने वाला कण्व वंश का संस्थापक मंत्री वसुदेव भी एक ब्राह्मण था.
अशोक ने युद्ध की नीति परित्याग कर धम्म का प्रतिपादन करते हुए शान्ति-प्रिय शासक होने का परिचय अवश्य दिया. परन्तु वह प्रत्येक स्थिति में शांतिवादी नीति का वरण नहीं कर सकता था. उसने तक्षशिला के विद्रोह के दमन के लिए कुणाल के सेनापतित्व में विशाल सैन्य बल अभियान के लिए भेजा और उसने स्पष्टतः तेरहवें दीर्घ शिलालेख में उत्तर-पश्चिम की विद्रोही जनजातियों का दमन करने की स्पष्ट चेतावनी दी. शांतिप्रियता के कारण कोई भी सम्राट् साम्राज्य के विघटन को स्वीकार नहीं कर सकता. यही कारण है कि अशोक मौर्य साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए, सैन्य बल का प्रयोग कर सकता था. कलिंगयुद्ध-जनित अशोक के संताप और क्षोभ ने उसे न तो कलिंग को स्वतंत्र करने की प्रेरणा प्रदान की और न ही कलिंग के युद्ध-बंदियों को मुक्त करने की प्रेरणा.
अशोक अपने अभिलेखों में अपने द्वारा किये गये सभी श्रेष्ठ कार्यों और नीतियों का बार-बार उल्लेख करता है. लेकिन किसी भी अभिलेख में मौर्य सैन्य संख्या को कम करने का उल्लेख नहीं करता अर्थात् शान्ति काल में भी अशोक ने मौर्य सैन्य संगठन को सततता प्रदान की और सैन्य संख्या में कमी नहीं की. उसने मृत्युदंड का भी अंत नहीं किया. अपनी शांतिप्रियता के कारण अपने यर्थाथवादिता और वस्तुनिष्ठता का परित्याग नहीं करके एक सम्राट् के रूप में सदैव अपने कर्तव्य के प्रति जागरूकता का परिचय दिया.
अशोक के समय में भौतिक संस्कृति के संचारण की नीति, धम्म यात्राओं, मौर्यकला को प्रोत्साहन, हजारों स्तूपों के निर्माण, तृतीय बौद्ध संगीति के आयोजन, विदेशों में धम्म शिष्टमंडल प्रेषित किये जाने, उसकी उपहार प्रवृत्ति, सार्वजनिक कार्यों के सम्पन्न किये जाने, शांतिकाल में भी एक विशाल नौकरतंत्र और सैन्य शक्ति बनाए रखने के कारण निःसंदेह राज्य के व्यय में वृद्धि हुई होगी. लेकिन क्या व्यय में अतिशय वृद्धि से अशोक को किसी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा? कलिंग युद्ध-बंदियों द्वारा बिहार की खानों में कार्य करने, जंगलों को साफ़ करने और अशोक द्वारा सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों से शूद्रों का नए उपनिवेशों में पुन:स्थापन द्वारा कृषि को प्रोत्साहन देने, कलिंग के संसाधनों के उपलब्ध होने, मध्य और पश्चिम एशिया या यवन राजाओं के साथ सांस्कृतिक-व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होने, मगध के बाह्य क्षेत्रों में भौतिक संसाधनों के विकास, लौह तकनीक के अधिकाधिक प्रयोग और सक्षम राजस्व व्यवस्था के कारण निःसंदेह राज्य की आय में वृद्ध हुई होगी.
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आय और व्यय में संतुलन बना रहा होगा. लेकिन किसी अल्पकालिक राजकोषीय संकट को नहीं नकारा जा सकता है. यह तथ्य ध्यातव्य है कि मौर्य काल के बाद पूरे भारत में आर्थिक समृद्धि, अनेकानेक नगरों का विकास, श्रेणी व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण, रोमन स्वर्ण का भारत की ओर प्रवाह, सिल्क मार्ग पर अनेक राष्ट्रीयता वाले लोगों की सक्रियता, अनेक स्थलों पर कला के क्षेत्र में विकास की स्थिति यह सिद्ध करती है कि मौर्य काल में कोई आर्थिक संकट की स्थिति नहीं थी. मौर्य युग में ही मौर्योत्तर युगीन आर्थिक आधारशिला रखी गई.
क्या वास्तव में मौर्य साम्राज्य की व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत थी? एक अत्यधिक विस्तृत साम्राज्य में उन्नत यातायात और संचार संसाधनों के अभाव में राजाज्ञाओं को सुदूर प्रान्तों/प्रदेशों में शीघ्रता के साथ प्रेषित करना असंभव होता है तो क्या ऐसी परिस्थिति में मौर्य साम्राज्य में एक अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था की स्थापना संभव थी? संभवतः यही कारण था कि अशोक ने अपने उच्च पदाधिकारी रज्जुकों को स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार प्रदान किया और इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के अन्दर विकेंद्रीकरण की महत्ता को स्वीकार किया. यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि प्रान्तों के गवर्नर कई बार निरंकुश और दमनकारी प्रवृत्ति अपनाते थे. इसी कारण तक्षशिला में दो बार विद्रोह हुए. इससे यह प्रमाणित होता है कि केंद्र का उनके ऊपर समग्र नियंत्रण नहीं था. गवर्नरों को भी स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार था. अशोक ने धम्मनीति का प्रतिपादन करके राज्याधिकारियों को कर्तव्य संहिता प्रदान की और धम्म के सिद्धांतों को भारत के अनेकानेक मार्गों, सीमाओं और क्षेत्रों में शिलाखंडों तथा स्तम्भों पर अंकित करके राज्य पदाधिकारियों की निरंकुशता को नियंत्रित करने का प्रयास किया. अशोक के समय में मौर्य साम्राज्य नितांत सुरक्षित था. किसी विदेशी आक्रान्ता ने भारत पर आक्रमण का साहस नहीं किया. अशोक की मृत्यु के लगभग चार दशकों तक कोई भी बाह्य आक्रमणकारी भारत पर आक्रमण नहीं कर सका. यही अशोक की उपलब्धि थी. इसलिए अशोक को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं होगा.
विशाल साम्राज्यों की अक्षुण्णता, एकता, आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं के अभाव में शासक की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी. अशोक के बाद उसके सभी उत्तराधिकारी दुर्बल और अक्षम थे. साम्राज्य के विभाजन से मौर्य साम्राज्य के संसाधनों का विभाजन हुआ. इसका लाभ उठाकर मौर्य साम्राज्य के अनेक प्रांत स्वतंत्र हो गए. ऐसी परिस्थितियों में ही यूनानी आक्रमण आरम्भ हो गया. फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि पुष्यमित्र शुंग काल में यूनानी आक्रमणकारियों को शुंग सेना ने कई बार पराजित किया और उसने दो अश्वमेघ यज्ञ भी किये.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण अत्यंत ही गूढ़ थे. अशोक जैसे महान् सम्राटों के प्रयासों के बावजूद सामाजिक/राष्ट्रीय एकीकरण संभव नहीं हो सका था. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न भाषाई आधारों पर ऐसी संस्कृतियों का उदय हो रहा था जो अपने विकास के अलग-अलग धरातल पर थीं. ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीय भावना का विकास संभव नहीं था. मगध के उत्थान का प्रमुख कारण था मगध की भौतिक संस्कृति का तीव्र और उन्नत विकास. मौर्य सम्राटों ने जिन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त किया वे सभी क्षेत्र मगध के अपेक्षा अविकसित थे. यही कारण है कि कलिंग को छोड़कर मौर्य सेनाओं का सक्षम विरोध नहीं हुआ. लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर अशोक के शासन के अंत होने तक लगभग 90 वर्ष के अंतराल में मगध की भौतिक संस्कृति का गैर-मगधीय क्षेत्रों में विकास हुआ. यहाँ तक कि सुदूर दक्षिण का जनजातीय समाज भी सभ्यता के महत्त्वपूर्ण चरण में प्रवेश करने लगा. भारत के मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया, खाड़ी प्रदेश और भूमध्य सागर क्षेत्र से व्यापारिक सम्पर्क स्थापित हुए और नगरीकरण की प्रक्रिया और अधिक तीव्र हो गई. मगध के बाहर ऐसे अविकसित क्षेत्र, जिन्होंने मौर्यों की सत्ता को स्वीकार कर लिया था, अब मगध के समान ही भौतिक संस्कृति, लौह-तकनीक उपकरण के प्रयोग, पर्याप्त कृषि जनित अतिरेक की उपलब्धि के बाद इतने सक्षम होने लगे कि वे किसी भी वंश के शासक के द्वारा उनके क्षेत्रों पर अधिकार के लिए किये गये प्रयास को विफल कर सकते थे. उत्तर-पश्चिम में भारतीय-यूनानियों का शासन स्थापित हुआ. तो कलिंग में नए राजवंशों की स्थापना हुई और खारवेल जैसे शासक का उदय हुआ. विन्ध्य के दक्षिण में सातवाहन शासकों ने अपनी सत्ता को स्थापित किया. प्रथम शताब्दी ई. में पुराणों के अन्दर वर्ण संकर के रूप में सामाजिक संकट के यथार्थ का उल्लेख होता है. इसका स्पष्ट अर्थ है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के अतिरिक्त दूसरे सामाजिक वर्णों के अन्तःसम्बन्ध में न केवल प्रगाढ़ता आई बल्कि उनमें चेतना का संचार भी हुआ. इसलिए ऐसे वर्गों ने वर्णधर्म के अनुपालन में उदासीनता का प्रदर्शन किया. प्रतिलोम विवाहों में वृद्धि हुई. जातियों की संख्या में वृद्धि हुई. परन्तु शासकों ने, विशेषतः सातवाहन शासकों ने, ब्राह्मणों को भूमि-अनुदानों को देकर उनके माध्यम से ऐसे वर्गों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया. इन क्षेत्रों में भौतिक विकास के कारण किसी न किसी अंश में क्षेत्रीय चेतना का जन्म हुआ होगा और मौयों के बाद अलाउद्दीन खिलजी के समय तक क्षेत्रीय राजवंशों के शासन की स्थापना के कारण भारत का भौगोलिक राजनीतिक एकीकरण संभव नहीं हो सका.
निष्कर्ष
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मौर्य शासकों ने जिस भौतिक संस्कृति को समस्त भारत में सिंचित करने का प्रयास किया, उसी के फलस्वरूप सत्ता पर से मगध का एकाधिकार भी समाप्त हो गया.
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