भारतीय मंदिरों के स्थापत्य की नागर, द्रविड़ और वेसर शैलियाँ

Sansar LochanCulture, History

पूर्व मध्यकालीन शिल्पशास्त्रों में मंदिर स्थापत्य की तीन बड़ी शैलियाँ बताई गई हैं – नागर शैली, द्रविड़ शैली और वेसर शैली.

  • नागर शैली – नागर शैली का प्रचलन हिमालय और विन्ध्य पहाड़ों के बीच की धरती में पाया जाता है.
  • द्रविड़ शैली – द्रविड़ शैली कृष्णा और कावेरी नदियों के बीच की भूमि में अपनाई गई.
  • वेसर शैली – वेसर शैली विन्ध्य पहाड़ों और कृष्णा नदी के बीच के प्रदेश से सम्बन्ध रखती है.

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नागर शैली

  • इस शैली के सबसे पुराने उदाहरण गुप्तकालीन मंदिरों में, विशेषकर, देवगढ़ के दशावतार मंदिर और भितरगाँव के ईंट-निर्मित मंदिर में मिलते हैं.
  • नागर शैली की दो बड़ी विशेषताएँ हैं – इसकी विशिष्ट योजना और विमान.
  • इसकी मुख्य भूमि आयताकार होती है जिसमें बीच के दोनों ओर क्रमिक विमान होते हैं जिनके चलते इसका पूर्ण आकार तिकोना हो जाता है. यदि दोनों पार्श्वों में एक-एक विमान होता है तो वह त्रिरथ कहलाता है. दो-दो विमानों वाले मध्य भाग को सप्तरथ और चार-चार विमानों वाले भाग को नवरथ कहते हैं. ये विमान मध्य भाग्य से लेकर के मंदिर के अंतिम ऊँचाई तक बनाए जाते हैं.
  • मंदिर के सबसे ऊपर शिखर होता है.
  • नागर मंदिर के शिखर को रेखा शिखर भी कहते हैं.
  • नागर शैली के मंदिर में दो भवन होते हैं – एक गर्भगृह और दूसरा मंडप. गर्भगृह ऊँचा होता है और मंडप छोटा होता है.
  • गर्भगृह के ऊपर एक घंटाकार संरचना होती है जिससे मंदिर की ऊँचाई बढ़ जाती है.
  • नागर शैली के मंदिरों में चार कक्ष होते हैं – गर्भगृह, जगमोहन, नाट्यमंदिर और भोगमंदिर.
  • प्रारम्भिक नागर शैली के मंदिरों में स्तम्भ नहीं होते थे.
  • 8वीं शताब्दी आते-आते नागर शैली में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नए लक्षण भी प्रकट हुए. बनावट में कहीं-कहीं विविधता आई. जैसा कि हम जानते हैं कि इस शैली का विस्तार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बीजापुर तक और पश्चिम में पंजाब से लेकर पूरब में बंगाल तक था. इसलिए स्थानीय विविधता का आना अनपेक्षित नहीं था, फिर भी तिकोनी आधार भूमि और नीचे से ऊपर घटता हुआ शिखर का आकार सर्वत्र एक जैसा रहा.
  • भुवनेश्वर में स्थित लिंगराज मंदिर इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है.

द्रविड़ शैली

  • द्रविड़ स्थापत्य शैली का सम्बन्ध दक्षिण और दक्कन के मंदिरों से है. पर कुछ पुराने नमूने उत्तर भारत और मध्य भारत में भी पाए गए हैं, जैसे – लाड़खान का पार्वती मंदिर तथा ऐहोल के कौन्ठगुडि और मेगुती मंदिर.
  • द्रविड़ शैली की प्रमुख विशेषता इसका पिरामिडीय विमान है. इस विमान में मंजिल पर मंजिल होते हैं जो बड़े से ऊपर की ओर छोटे होते चले जाते हैं और अंत में गुम्बदाकार आकृति होती है जिसका तकनीकी नाम स्तूपी अथवा स्तूपिका होता है.
  • समय के साथ द्रविड़ मंदिरों में विमानों के ऊपर मूर्तियों आदि की संख्या बढ़ती चली गयी.
  • द्रविड़ मंदिर में एक आयताकार गर्भगृह होता है जिसके चारों ओर प्रदक्षिणा का मार्ग होता है.
  • द्रविड़ मंदिरों में समय के साथ कई विशेषताएँ जुड़ती चली गईं, जैसे – स्तम्भ पर खड़े बड़े कक्ष एवं गलियारे तथा विशालकाय गोपुर (द्वार).
  • द्रविड़ शैली के दो सबसे प्रमुख लक्षण है :- i) इस शैली में मुख्य मंदिर के चार से अधिक पार्श्व होते हैं ii) मंदिर का शिखर और विमान पिरामिडीय आकृति के होते हैं.
  • द्रविडीय स्थापत्य में स्तम्भ और प्लास्टर का प्रचुर प्रयोग होता है. यदि इस शैली में कोई शिव मंदिर है तो उसके लिए अलग से नंदी मंडप भी होता है. इसी प्रकार ऐसे विष्णु मंदिरों में एक गरुड़ मंडप भी होता है.
  • उत्तर भारतीय मंदिरों के विपरीत दक्षिण भारतीय मंदिरों में चारदिवारी भी होती है.
  • कांची में स्थित कैलासनाथ मंदिर द्रविड़ स्थापत्य का एक प्रमुख उदाहरण है. यह मंदिर राजसिंह और उसके बेटे महेंद्र III द्वारा बनाया गया है.

वेसर शैली

  • इस स्थापत्य शैली का प्रादुर्भाव पूर्व मध्यकाल में हुआ.
  • वस्तुतः यह एक मिश्रित शैली है जिसमें नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों के लक्षण पाए जाते हैं.
  • वेसर शैली के उदाहरणों में दक्कन भाग में कल्याणी के परवर्ती चालुक्यों द्वारा तथा होयसालों के द्वारा बनाए गए मंदिर प्रमुख हैं.
  • इसमें द्रविड़ शैली के अनुरूप विमान होते हैं पर ये विमान एक-दूसरे से द्रविड़ शैली की तुलना में कम दूरी पर होते हैं जिसके फलस्वरूप मंदिर की ऊँचाई कुछ कम रहती है.
  • वेसर शैली में बौद्ध चैत्यों के समान अर्धचंद्राकार संरचना भी देखी जाती है, जैसे – ऐहोल के दुर्गामंदिर में.
  • मध्य भारत और दक्कन में स्थान-स्थान पर वेसर शैली में कुछ अंतर भी पाए जाते हैं. उदाहरणस्वरूप, पापनाथ मंदिर और पट्टडकल मंदिर.

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Source: NCERT History and Culture Notes, IGNOU

 

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