भारत में राष्ट्रवाद का उदय – एक समीक्षा

Dr. Sajiva#AdhunikIndia

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीयों में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना का विकास बहुत तीव्र गति से हुआ. फलस्वरूप भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात हुआ. भारतीय राष्ट्रवाद कुछ सीमा तक उपनिवेशवादी नीतियों तथा उन नीतियों से उत्पन्न भारतीय प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप ही उभरा था. पाश्चात्य शिक्षा का विस्तार, मध्यवर्ग का उदय, रेलवे का विस्तार तथा सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों ने राष्ट्रवाद की भावना के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

राष्ट्रवाद के उदय के कारण

भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन तथा राष्ट्रवाद का उदय अनेक कारणों तथा परिस्थितियों का परिणाम था, जिन्हें निम्न रूपों में देखा जा सकता है –

औपनिवेशिक प्रशासन 

ब्रिटिश शासन ने भारतीय ग्रामीण उद्योग और कृषि को नष्ट कर दिया था और ग्रामीण अर्थव्यस्था को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल कर रख दिया था. इसके परिणामस्वरूप लोगों ब्रिटिश शासन प्रति आक्रोश की भावना का उदय हुआ. ब्रिटिश शासन द्वारा अपने हितों की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया रेलवे का विस्तार तथा डाक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते देश के विभिन्न भागों में रह रहे लोगों और नेताओं के मध्य संपर्क संभव हो गया जिससे राष्ट्रवाद को बल मिला.        

ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव प्लासी और बक्सर के युद्ध के साथ आरम्भ हुआ जोकि बाद में बढ़ता ही गया. अंग्रेजों की पक्षपातपूर्ण आर्थिक तथा राजस्व नीति की प्रतिक्रिया के रूप में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ.

भारतीय पुनर्जागरण

भारतीय पुनर्जागरण ने भी अपने दो स्वरूपों में राष्ट्रवाद की भावना को प्रश्रय दिया. पहला, उसने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, अनैतिकताओं, अवांछनीयताओं एवं रूढ़ियों मुक्ति का मार्ग दिखाया और दूसरा, श्वेतों के अधिभार (White Man’s Burden Theory) के विपरीत भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्स्थापित किया. इसके परिणामस्वरूप देश में एक नवीन राष्ट्रीय चेतना की भावना को बल मिला. डलहौजी के कार्यकाल में रेलवे, टेलीग्राफी और आधुनिक डाक व्यवस्था आदि के विकास से भारत की परिवहन एवं संचार व्यवस्था में व्यापक बदलाव आया था. वैसे इन बदलावों के पीछे अंग्रेजों के औपनिवेशिक हित ही छिपे थे.

पाश्चात्य शिक्षा एवं चिन्तन

पाश्चात्य विचारों पर आधारित आधुनिक शिक्षा प्रणाली से भारतीय राजनीति में आत्मनिर्णय, स्वशासन, स्वतंत्रता, समानता, व्यक्तिवाद, मानवतावाद, राष्ट्रवाद तथा बंधुत्व जैसे विचार महत्त्वपूर्ण हो गये. पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों को पश्चिमी पुनर्जागरण के उदात्त मूल्यों से परिचित कराया तथा एक नया वैचारिक आयाम प्रदान किया. फ्रांसीसी क्रांति के आदेशों अर्थात् स्वतंत्रता समानता तथा बन्धुत्व की भावना ने भारतीयों के मन में राष्ट्रवाद का एक नया बीज बो दिया. परिणामस्वरूप वे भी अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गये तथा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा मिली. देश के सभी बागों में अंग्रेजी भाषा की प्रशासनिक आवश्यकता और इसके प्रसार के कारण शिक्षित भारतीयों के बीच यह एक सम्पर्क की भाषा बन गई. इसके जरिये विचारों के आदान-प्रदान में सहायता मिली. एक सामान्य भाषा की उपस्थिति के कारण ही कांग्रेस अखिल भारतीय संस्था का रूप लेकर सफलतापूर्वक राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कर सकी.

प्रेस तथा समाचार-पत्रों की भूमिका

प्रेस तथा समाचार-पत्रों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादी तन्त्र की मानसिकता से लोगों को परिचित कराया तथा देशवासियों के मन में एकता की भावना को जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. समाचार-पत्रों के जरिये विभिन्न विषयों पर लिखे गये लेखों ने देशवासियों का अधिकारबोध की चेतना से भर दिया, जिसके फलस्वरूप एक संगठित आन्दोलन का सूत्रपात हुआ.

समकालीन यूरोपीय आन्दोलनों का प्रभाव

समकालीन पूरे यूरोपीय देशों, अमेरिकी देशों तथा दक्षिणी अफ्रीका को प्रभावित करने वाले राष्ट्रवाद ने भारतीय राष्ट्रवाद को भी स्फूर्ति प्रदान की. सामान्य रूप से यूनान तथा इटली के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामों ने तथा विशेषतः आयरलैंड के स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीयों के मनोभावों को बहुत प्रभावित किया.

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा लाला लाजपत राय ने मैजिनी, गैरीबाल्डी और उनके द्वारा आरम्भ किए गये इटली आन्दोलन और कार्बोनरी आन्दोलनों पर व्याख्यान दिए तथा लेख लिखे. इस यूरोपीय राष्ट्रवाद ने उभरते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को बहुत हद तक प्रभावित किया.

तात्कालिक कारण

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कई अन्य तात्कालिक कारण भी थे जिन्होंने राष्ट्रवाद की भावना को हवा दी. जैसे – इल्बर्ट बिल विवाद, सिविल सर्विस की आयु-सीमा को कम करना, दक्षिण भारत में भयंकर अकाल के समय “दिल्ली दरबार” का आयोजन करना (1877 ई.) तथा शस्त्र अधिनियम (1878 ई.) आदि.

इल्बर्ट बिल के जरिये जनपद सेवा के भारतीय जिला तथा सत्र न्यायाधीशों को उनके यूरोपीय समकक्षों के समान शक्तियां तथा अधिकार देने का प्रयत्न किया गया. इसे लॉर्ड रिपन ने “नस्लीय भेद आधारित न्यायिक असमर्थताएँ” समाप्त का प्रयत्न किया. यूरोपीय लोगों द्वारा इल्बर्ट बिल का विरोध किये जाने विवाद शुरू हो गया और इससे यूरोपीय लोगों की जातीय दंभ को लेकर नस्लीय मानसकिता दिखाई पड़ने लड़ी.

लॉर्ड लिटन की संकीर्ण दृष्टिकोण वाली नीतियों ने भी राष्ट्रवाद की भावना को जगाने का कार्य किया. सिविल सेवा में भर्ती होने की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दिया गया जिससे शिक्षित भारतीय युवक परीक्षा न दे सकें.

इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों तथा भारतीय हितों के टकराव ने भारत में एक नए युग का सूत्रपात किया जिसने परवर्ती राष्ट्रीय आन्दोलन की आधारशिला रखी.

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वरूप

यद्यपि, 19वीं शताब्दी का भारत भाषा, धर्म, प्रदेश आदि के आधार पर विभाजित था तथा ब्रिटिश शासकों ने इस आधिपत्य स्थापित करने के लिए इस फूट का भरपूर लाभ भी उठाया, तथापि भारत एक भौगोलिक इकाई मात्र नहीं था, बल्कि इस विविधता में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक एकता भी अन्तर्निहित थी जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन के आरम्भ, विकास एवं सफलता की ओर अग्रसर होने में सहायता प्रदान की. विविधता के मूल में अन्तर्निहित यह राष्ट्रीय चेतना ही थी जिसने राष्ट्रवाद को प्रेरणा दी तथा यह चेतना विशिष्ट वर्ग की अपनी बौद्धिक सीमा को लांघते हुए सुदूर क्षेत्रों तक जा फैली. हालाँकि यह सच है कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक एकता तथा आधुनिक विचारों के प्रचार-प्रसार ने भी एक सीमा तक राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया, परन्तु यह भी सच है कि ब्रिटिश राज्य की स्थापना राष्ट्रवाद के बीजारोपण के लिए नहीं बल्कि औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की गई थी. अंग्रेजों की यह स्पष्ट नीति रही कि भारतीयों में किसी भी प्रकार की एकता न बन पाए बल्कि उनमें फूट डालकर उन पर राज किया जाए. वस्तुतः इस उदीयमान राष्ट्र की प्रक्रिया न बुद्धिजीवी वर्ग, किसानों, श्रमिकों आदि को समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विदेशी शासकों के विरुद्ध एकजुट किया. इसके अतिरिक्त लोकतंत्रीय, उदारवादी तथा राष्ट्रवादी आकांक्षा इस समय की प्रमुख घटनाएँ थीं, जिसे अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांसीसी क्रांति तथा रूसी क्रांति के प्रेरणा मिल रही थी. इन घटनाओं ने गुलाम देशों को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.  

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