पल्लव कौन थे? पल्लव वंश के शासक और उनकी उपलब्धियाँ

Sansar LochanAncient History, History

पल्लव कौन थे? प्रायः इसके बारे में कहा जाता है कि ये लोग स्थानीय कबीलाई थे. पल्लव का अर्थ होता है “लता” और यह तमिल शब्द “टोंडाई” का रूपांतरण है जिसका अर्थ भी लता होता है. इसलिए इन्हें मूलतः लताओं के प्रदेश का निवासी कहा जाता है. कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशी-पहलव मानते हैं. इस मत का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि “यह बात इससे सिद्ध होती है कि जब नन्दिवर्मन द्वितीय को सिंहासनारूढ़ होने के लिए चुना गया तो उसे हाथी की खोपड़ी के आकार का ताज दिया गया जो हिंदू-यूनानी राजा विभित्रयस के ताज की याद दिलाता है.” वस्तुतः वे विदेशी पहलाव (पार्थियन) के वंशज नहीं थे बल्कि मूलतः स्थानीय कबीलाई थे. सत्ता में आने से पहले इस वंश का संस्थापक बप्पदेव (Bappadevan) सातवाहन राजा के अधीन एक प्रांतीय शासक था. सातवाहनों की सत्ता का जब विघटन हो रहा था तभी वह स्वतंत्र शासक बन गया और धीरे-धीरे काँची की ओर अपनी सत्ता का विस्तार करने लगा. उनकी सत्ता के अधीन धीरे-धीरे आंध्रपथ (आंध्र प्रदेश) और तोंडैमंडलम दोनों  ही थे. उन्होंने अपनी राजधानी काँची बनायी, जो पल्लव शासन काल में वैदिक विद्या और मंदिरों का नगर बन गया. इनका उदय तीसरी या चौथी शताब्दी में शुरू हुआ. बप्पदेव के काल में प्राकृत भाषा फलीफूली. उसने जंगलों को काटकर और सिंचाई की सुविधाएँ देकर कृषि की प्रगति में योगदान दिया. उसके बाद उसी का पुत्र शिवस्कंदवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना. उसने धर्म महाराज की उपाधि ग्रहण की और अश्वमेघ और वाजपेय जैसे यग्य कराये. उसके बाद का पल्लव वंश का इतिहास बहुत वर्षों तक अन्धकारमय है.

प्रयाग प्रशस्ति (समुद्रगुप्तकालीन) से पता चलता है कि समुद्रगुप्त दक्षिण अभियान के समय कांची में पल्लव नरेश विष्णुगोप शासन कर रहा था. पल्लव का प्रभाव शायद 575 ई. तक कम रहा. संभवतः वे वास्तविक साम्राज्यवादी शक्ति 575 ई.के आस-पास बने. इसलिए (काशाक्कुदि और बैलूर पालैयम से मिले) प्राप्त ताम्रपत्रों में उनकी वंश तालिका सिंह विष्णु से शुरू होती है (575-600 ई.) और अपराजित (879-897 ई.) के शासन काल से समाप्त होती है.

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पल्लव शासक और उनकी उपलब्धियाँ

सिंहविष्णु (575-600 ई.)

उसके (Simhavishnu) सिंहासन पर बैठते ही पल्लव इतिहास का नया अध्याय शुरू हुआ क्योंकि उसने अपनी कई विजय यात्रायें आरम्भ की और पल्लव शक्ति का प्रभाव सम्पूर्ण तमिल प्रदेश में पूर्णतया छाता गया. उसने चोलों मलय, कलभ्रो, मालव, पांड्य और चेरों को पराजित किया. उसने अपने राज्य की सीमा को कावेरी नदी तक बढ़ा दिया.

महेंद्र वर्मन (600-630 ई.)

उसके (Mahendravarman I) काल में जहाँ एक ओर धर्म और साहित्य की प्रगति हुई तो दूसरी ओर पल्लवों के चालुक्यों और पांड्यों से ऐसे युद्ध शुरू हुए जो लगभग 150 वर्षों तक जारी रहे. वह सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति था इसलिए उसने मत्त विल्गस, विचित्र चित्त और गुणाभार आदि उपाधियाँ धारण की थी. यद्यपि उसके काल में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने वेंगी पर अधिकार कर लिया था लेकिन वह कांची पर जब आक्रमण करने आया तो महेंद्रवर्मन ने उसे बुरी तरह पराजित किया.

नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.)

वह (Narasimhavarman I) अपने पिता महेंद्र वर्मन की मृत्यु के बाद शासक बना. उसने चालुक्यों की राजधानी बादामी को जीता. उसने इस विजय के बाद ही “महामल्ल” की उपाधि धारण की. संभवतः उसी के साथ युद्ध करते हुए चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय मारा गया. उसने अपने मित्र लंका के राजकुमार मणिवम्भ (मानववर्मन) लंका का राज्य दिलाने में सहायता प्रदान की. कुर्रम दानपत्र के अनुसार उसने चोल, पांड्य और केरल राज्यों को पराजित किया.

महेंद्र वर्मन द्वितीय (668-670 ई.)

नरसिंह वर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेंद्र वर्मन द्वितीय (Mahendravarman II) राजा बना. उसने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य को पराजित किया. वह शीघ्र ही मर गया.

परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-680 ई.)

महेंद्र वर्मन द्वित्तीय के पश्चात परमेश्वर वर्मन शासक हुआ. उसके शासन काल में पल्लवों और चालुक्यों में भयंकर संघर्ष पुनः छिड़ गया. उसने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की लाखों की सेना को इतनी बुरी तरह से पराजित किया कि शत्रु राजा को तार-तार हुए कपड़ों में युद्ध क्षेत्र से भागना पड़ा. परन्तु विक्रमादित्य द्वित्तीय के अभिलेखों में पल्लव राजा परमेश्वरवर्मन की पराजय का उल्लेख मिलता है. विद्वानों की राय है कि संभवतः पहले चालुक्यों को और बाद में पल्लवों को एक-दूसरे के विरुद्ध सफलता मिली.

नरसिंह वर्मन द्वितीय (680 ई. -720 ई.)

परमेश्वर वर्मन प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन द्वितीय 7वीं शताब्दी के अंत में राजा हुआ. उसने “राजसिंह” और “आगमप्रिय” (विद्या-प्रेमी) जैसी वीरता और विद्यानुराग सूचक उपाधियाँ ग्रहण की. उसके राज्यकाल में शांति रही.

परमेश्वर वर्मन द्वितीय (720-731 ई.)

नरसिंहवर्मन द्वितीय के उपरान्त उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन द्वितीय (Paramesvaravarman II) राजा बना. उसके शासन काल में चालुक्य युवराज विक्रमादित्य ने गंग – राजकुमार एरेयप्प की मदद से कांची पर आक्रमण कर दिया और इस युद्ध में परमेश्वरवर्मन पराजित हुआ. अपनी इस पराजय का बदला लेने के लिए उसने गंग नरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण किया. इस युद्ध में वह पुनः पराजित हुआ और मारा गया.

नंदिवर्मन द्वितीय (731-795 ई.)

परमेश्वरवर्मन द्वितीय के कोई सन्तान नहीं थी. इसलिए उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन के लिए भीषण संघर्ष शुरू हो गए, जो पल्लवों के भावी पतन के द्योतक थे. दूसरे राजकुमार चित्रमाय को पांड्य नरेश मारवर्मन नरसिंह प्रथम का समर्थन मिला था. लेकिन जन-सहयोग और सेनापति उदयचन्द्र के सहयोग से नन्दिवर्मन द्वितीय (Narasimhavarman II) शासक बना. इसके समय में चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, पांड्य और चोल राजाओं से बराबर युद्ध होता रहा. विक्रमादित्य द्वितीय चालुक्य ने इसके शासनकाल में कांची पर आक्रमण किया, पर नन्दिवर्मन ने इसे हरा दिया. पर कालांतर में नन्दिवर्मन राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग से पराजित हो गया. संभवतः 757 ई. में राष्ट्रकूटों ने पल्लवों का आधिपत्य समाप्त कर दिया.

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