पाण्ड्य राजवंश

Sansar LochanAncient History

मेगस्थनीज के विवरण के आधार पर कुछ विद्वानों की राय है कि सुदूर दक्षिण का यह प्राचीनतम राज्य था. उनका प्राचीन राज्य द्रविड प्रदेश के दक्षिण-पूर्व छोर का भाग था. प्रारम्भिक काल में उनका स्थान ताम्रपर्णी के किनारे कोरक नामक स्थान था जो एक अच्छा बन्दरगाह था. कहा जाता है कि यहीं उत्पन्न तीन भाइयों ने तीन स्थानों पर क्रमशः पाण्ड्य, चोल तथा चेर नामक राज्यों की स्थापना की.

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पांड्य राजवंश

इनका राज्य मृदुरारम्नाद तथा त्रिनेवली जिलों में फैला हुआ था. उनकी राजधानी मदुरा में थी, जो तमिल भाषा में मथुरा के लिए प्रयोग होता है. अनुश्रुति के आधार पर यह भी कहा जाता है कि पाण्ड्य शासक कुरुवंशी तथा महाभारत कालीन पाण्डवों की संतान थे. वस्तुतः इस राज्य का प्रारम्भिक इतिहास अन्धकारमय है परन्तु चौथी शती ई० पू० से इसका साहित्यिक उल्लेख प्राप्त होने लगता है. पाण्ड्यों का सर्वप्रथम उल्लेख मैगस्थनीज ने अपनी इण्डिका में किया है. उसके अनुसार पाण्ड्य देश में स्त्रियाँ शासन करती हैं तथा सात वर्ष की आयु वाली माताएं भी पाई जाती थीं.

राज्य की उन्नति के बारे में वह लिखता है कि इस राज्य का नाम हेराक्लीज की पुत्री पण्डाइया के नाम पर पड़ा. वह यहीं उत्पन्न हुई थी और यहाँ का राज्य उसके पिता ने ही उसे दिया था. उसके पास एक विशाल सेना थी. यद्यपि मैगस्थनीज के विवरण का आधार जनता में प्रचलित कथाएँ एवं विश्वास ही है तो भी उसे पूर्णतया असत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्राचीन ग्रंथों जैसे महाभारत में भी अनेक स्थानों पर स्त्री शासन-प्रधान प्रदेशों का उल्लेख प्राप्त होता है. यूनानी लेखक स्ट्रेबो के अनुसार, पाण्ड्य राज्य ने 20 ई०पू० ऑगस्टस के पास अपना राजदूत भेजा था. पाण्ड्य राज्य का सर्वाधिक विवरण देने वाला भारतीय साहित्यिक स्रोत संगम साहित्य है. इसमें अनेक पाण्ड्य शासकों के नाम हैं पर उनका तिथि क्रम और काल निश्चित करना कठिन है.

नेडुंजेलियन

जो कुछ विवरण इस साहित्य में मिलता है उसी के आधार पर संक्षेप में कहा जाता है कि दूसरी शताब्दी के अन्त में इस राज्य के शासक नेडुम-चेलियन या नेडुंजेलियन ने अपने शत्रुओं को तलैयालंगानम (तंजौर जिले में) नामक स्थान पर पराजित कर यश प्राप्त किया. इसका शासन काल 290 ई० के लगभग था. भान्गुड़ी मरूदन उर्फ़ भान्गुड़ी किलार तथा नक्कीरर जैसे महान कवियों ने इस शासक के बारे में अनेक कवितायें लिखीं जो पन्‍तुपान्तु नामक ग्रन्थ में संकलित हैं. इन कविताओं से इस शासक की कुछ उपलब्धियों की जानकारी मिलती है. उसने किसान तथा व्यापारियों के लिए अनेक कार्य किए तथा इसीलिए वे लोग उसके प्रति बहुत निष्ठावान थे. उसके काल सें मोतियों तथा मछलियों का व्यापार बहुत प्रगति पर था. संगम साहित्य से पता लगता है कि उनके बाद सातवाहनों के प्रसार और पल्‍लवों के उदय के कारण पाण्ड्यों की शक्ति क्षीण हो गयी.

अरिकेसरी मारवर्मन

प्रो० नौल कण्ठ शास्त्री की रचना दि पाण्ड्यन किंगडम में लिखते हैं कि छठी शती में पल्‍लवों ने कुछ समय के लिए पाण्ड्य राज्य पर अधिकार कर लिया. चीनी यात्री युवानच्वाग के विवरण से भी ऐसा पता चलता है कि पाण्ड्य राज्य पल्लव राज्य के प्रभाव में था. लेकिन सातवीं शती के उत्तरार्ध में इस राज्य का पुनरुद्धार होने लगा. सम्भवतः युग का प्रथम प्रभावशाली शासक अरिकेसरी मारवर्मन था. उसने विस्तारवादी नीति अपनायी तथा सम्भवत: चोल साम्राज्य तथा चेर वंश के राज्यों को पराजित कर अपना राज्य विस्तार किया. उसके उत्तराधिकारियों (मारवर्मन प्रथम राजसिंह और नेडुंजेलियन वारागण प्रथम) ने पल्‍लवों की शक्ति को भी कम किया तथा कोयम्बटूर, सालम तथा दक्षिणी त्रावनकोर को अपने राज्य में शामिल किया. ये शासक आठवीं सदी में हुए थे.

श्री श्रीमान बल्‍लभ

पाण्ड्य देश के बाद के राजाओं में श्री श्रीमान बल्‍लभ बहुत प्रसिद्ध हुआ. उसका शासन काल लगभग 815 से 832 ई० तक था. उसने सिंहलद्वीप पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन किया, और फिर चोल, पल्‍लव तथा गंग राजाओं को पराजित किया. इतिहासकार उसे एक प्रतापी राजा बताते हैं. वे मानते हैं कि उसी के प्रताप के कारण पाण्ड्य राज्य एक महत्त्वपूर्ण और प्रबल राज्य बन सका. परन्तु उसके अधीन भी पाण्ड्य राज्य की समद्धि अधिक वर्षों तक नहीं रही. चोल राजा परान्तक प्रथम (907- 949) ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए पाण्ड्य राज्य को जीत लिया.

चोलों से स्वतंत्र होने का पांड्य राजाओं के प्रयास

चोलों की इस विजय के कारण पाण्ड्य राज्य की स्थिति एक सामन्त राज्य जैसी हो गई, क्योंकि पाण्ड्य राजा प्रतापी चोल सम्राटों के विरुद्ध विद्रोह कर स्वतन्त्र होने की शक्ति नहीं रखते थे. पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि पाण्ड्य राजाओं ने चोलों से स्वतंत्र होने का कभी प्रयत्न ही नहीं किया. वास्तव में पाण्ड्य राजाओं ने अनेक बार स्वतंत्र होने के प्रयत्न किए, परन्तु बारहवीं सदी के अन्त तक उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई तथा उनकी स्थिति एक अधीनस्थ या सामंत राज्य की तरह बनी रही.

राजा जटावर्मा कुलशेखर

बारहवीं सदी के अन्त में जब चोल राज्य कमजोर हो गया तो पाण्ड्य राज्य को अपनी उन्नति करने का अवसर प्राप्त हुआ और तत्कालीन राजा जटावर्मा कुलशेखर (1190-1216) ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया. अब एक बार पुन: इस राज्य का उत्कर्ष काल शुरू हुआ और वह सूदूर दक्षिणी की प्रधान राजशक्ति बन गया. उसके उत्तराधिकारी मारवर्मा (1216-1238) ने चोल राज्य के अनेक प्रदेश जीतकर, उनकी स्थिति सामंत राज्य जैसी कर दी. उसके बाद अनेक प्रतापी शासकों ने पाण्ड्य राज्य की बागडोर संभाली.

वास्तव में तेरहवीं सदी इस राज्य के उत्कर्ष की सदी थी. इसके अनेक प्रतापी राजाओं ने अनेक मन्दिर बनवाये तथा स्थापत्यकला की प्रगति की ओर विशेष ध्यान दिया. चौदहवीं सदी के आरम्भ में जब अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने दक्षिण भारत विजय अभियान छेड़ा तो उसने इस राज्य की राजधानी मदुरा को विध्वंस कर दिया. इसी समय इस राज्य की स्वतन्त्रता का अन्त हो गया.

पांड्य शासन व्यवस्था

अभिलेखों से पाण्ड्य राज्य की शासन व्यवस्था के बारे में कुछ जानकारी मिलती है. इनसे पता चलता है कि व्यक्तियों तथा उनके समूहों के कर्तव्य भली-भांति निश्चित थे. गाँवों में फौजदारी मुकदमों का फैसला ग्राम समितियाँ ही करती थीं. इनके असमर्थ होने पर ही राजा अथवा उसके कर्मचारी हस्तक्षेप करते थे. इस राज्य के राजाओं ने व्यापार की प्रगति में विशेष रुचि ली. इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके राज्य में शान्ति तथा कानून की व्यवस्था पर विशेष जोर दिया जाता था. इस राज्य के लोग समृद्ध एवं उन्नतिशील थे. उन्होंने रोमन साज्राज्य के साथ व्यापारिक तथा राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किए. व्यापार से पाण्ड्य राज्य को बहुत आर्थिक लाभ होता था. इस राज्य में ब्राह्मण बहुत प्रभावशाली थे. पांड्य राजाओं ने उन्हें भूमि अनुदान में दी तथा अनेक वैदिक यज्ञ कराये. उन्होंने चिदंबरम और श्रीरंगम्‌ के मंदिरों को अलंकृत कराया ओर उन्हें दान दिया. पांड्य शासक शिव के उपासक थे.

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