जैसा कि हम सब जानते हैं कि प्लासी के युद्ध (1757) में अंग्रेजों की जीत के साथ भारत में पहली बार उनका आंशिक प्रभुत्व स्थापित हुआ. विदेशी शासन के विरुद्ध भारत के परम्परागत संघर्ष की सबसे नाटकीय परिणति 1857 के विद्रोह के रूप में हुई जिसके बारे में हम पहले के इस पोस्ट में पढ़ चुके हैं > 1857 की क्रांति
आज के इस पोस्ट में हम अंग्रेजों के विरुद्ध नागरिक, किसान, आदिवासी और धार्मिक विद्रोहों के बारे में पढ़ेंगे.
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प्रारम्भिक विद्रोहों के कारण
सामाजिक कारण
जिस समय शहरी शिक्षित वर्ग ब्रिटिश राज के अन्दर फल-फूल रहा था, उस समाज का पिछड़ा वर्ग ब्रिटिश राज की नीतियों से बुरी तरह प्रभावित हो रहा था. बाद में जाकर इसी वर्ग ने ब्रिटिश राज का विरोध किया.
कई विद्रोह बेदखल कर दिए गये जमींदारों, भूस्वामियों ने भी किये. इन विद्रोहों को जनाधार और शक्ति हमेशा किसानों, दस्तकारों और राजाओं व नवाबों की विघटित सेनाओं से मिलती थी.
आर्थिक कारण
ब्रिटिश राज द्वारा अर्थव्यवस्था, प्रशासन और भू-राजस्व प्रणाली में तेजी से किये गये बदलाव इन विद्रोहों के मुख्य कारण थे. ब्रिटिश राज द्वारा किये गये इन परिवर्तनों के चलते भारत के किसानों का जीवन कष्टमय हो गया. अधिक से अधिक लगान वसूले जाने पर किसानों के मन में ब्रिटिश राज के विरुद्ध भावना उग्र हो गई. भारत में मुक्त व्यापार लागू करने और भारतीय उत्पादकों से मनमाने ढंग कर वसूलने के चलते भारतीय दस्तकारी उद्योग का सर्वनाश हो गया.
राजनीतिक कारण
नए कानून तंत्रों और अदालतों ने गरीब किसानों की जमीनों से बेदखली को और भी प्रोत्साहन दिया. छोटे-छोटे अधिकारी गरीबों से धन की वसूली करते थे. पुलिस भी इन्हें प्रताड़ित किया करती थी. भारतीयों की सदियों पुरानी परम्पराओं और स्थानीय रियासतों के प्रति उनकी वतनपरस्ती से अंग्रेजी राज कहीं भी मेल नहीं खाता था.
धार्मिक कारण
भारत में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में भारतीयों पर धार्मिक दृष्टि से भी चोट पहुंचाया था. इस काल में योग्यता से अधिक धर्म को वरीयता दी जाती थी. जो भी भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म को अपना लेता उसे आसानी सरकारी नौकरी दे दी जाती और पदोन्नति भी प्रदान की जाती थी. इससे भारतीय जनसाधारण में अंग्रेजों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता की भावना उत्पन्न होने में देर नहीं लगी.
प्रारम्भिक विद्रोहों का वर्गीकरण
नागरिक विद्रोह
- संन्यासी विद्रोह (1763-1800)
- फ़कीर विद्रोह (बंगाल, 1776-1777)
- पोलिगरों का विद्रोह
- दीवान वेलु थम्पी का विद्रोह (1808-09)
- पाइक/पइका विद्रोह (पहाड़ी खुर्द क्षेत्र उड़ीसा : 1817-25)
- फराजी विद्रोह
- कित्तूर का चेनम्मा विद्रोह (1824)
- धर राव विद्रोह (सतारा विद्रोह : 1840:41)
- सावंतवाड़ी विद्रोह
- गडकरी विद्रोह
धार्मिक स्वरूप वाले नागरिक विद्रोह
- पागलपंथी विद्रोह
- वहाबी आन्दोलन
- कूका विद्रोह (पंजाब)
आदिवासी विद्रोह
- चुआर विद्रोह या भूमिन विद्रोह (1798-99)
- हो विद्रोह (1820-22, 1831, 1837)
- संथाल विद्रोह (1855-56)
- खोंड (डोंगरिया खोंड) विद्रोह (1836-56)
- सवार विद्रोह (1856)
- भील विद्रोह
- रामोसी विद्रोह
- कोल विद्रोह
- रम्पा विद्रोह (1879, 1922-24)
- चेंचू आदिवासी आन्दोलन (1898)
- मुंडा विद्रोह
- उराँव विद्रोह / ताना भगत का विद्रोह (छोटानागपुर : 1914)
- खासी विद्रोह
- अहोम विद्रोह
- सिंहपो का विद्रोह
- नागा आन्दोलन (जियालरंग आन्दोलन)
किसान विद्रोह
- बंगाल में नील आन्दोलन (1859-60)
- बिहार में नील आन्दोलन
- पश्चिम एवं दक्षिण के किसानों का विद्रोह
- पाबना विद्रोह (1873-76)
- असम (कामरूप, दिरांग) में लगान की नाअदायगी का आन्दोलन
नागरिक विद्रोह
संन्यासी विद्रोह (1763-1800)
बंगाल में ब्रिटिश राज की सत्ता और उसके चलते नई अर्थव्यवस्था के स्थापित होने से जमींदार, किसान, शिल्पकार आदि वर्गों की स्थिति दयनीय हो गई थी. 1770 के भीषण अकाल के पश्चात् इनकी स्थिति बद से बदतर हो गई थी. तीर्थ स्थानों पर आने-जाने पर लगे करों से संन्यासी लोग काफी क्षुब्ध हो गए थे. संन्यासियों में अन्याय के विरुद्ध लड़ने की परम्परा रही थी. अतः उन्होंने जनता के साथ मिलकर कम्पनी की कोठियों और कोषों पर धावा बोला. वे लोग कम्पनी के सैनिकों के खिलाफ बहुत बहादुरी से लड़े. कालांतर में वारेन हेस्टिंग्स इन विद्रोहों को दबाने में सफल हो पाया. विदित हो कि बंकिम चन्द्र चटर्जी के प्रसिद्ध उपन्यास “आनंद मठ” का कथानक इसी विद्रोह पर आधारित है.
फ़कीर विद्रोह (बंगाल, 1776-1777)
यह विद्रोह 18वीं सदी में शुरू हुआ और 19वीं सदी के शुरूआती वर्षों तक चलता रहा. दरअसल, फ़कीर घुमन्तु धार्मिक मुसलामानों का एक समूह था. इस विद्रोह का प्रणेता नेता मजमून शाह था. बंगाल के विलय के बाद 1776-1777 में मजमून शाह के नेतृत्व में फकीरों ने अंग्रेज़ी राज की उपेक्षा की और स्थानीय जमींदारों और कृषकों से धन वसूलना शुरू कर दिया. मजमून के बदले इस विद्रोह का नेतृत्व चिराग अली ने किया. इन लोगों ने अंग्रेजों की फैक्ट्रियों पर हमला किया. 19वीं सदी के शुरूआती वर्षों तक इस विद्रोह को अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया.
पोलिगरों का विद्रोह
दक्षिण भारत में पोलिगर जमींदारों का एक ऐसा वर्ग था जिसके पास अपना सैन्य बल हुआ करता था. वे लोगों से कर की वसूली करते थे. इसी बिंदु पर कम्पनी के हित उनसे टकराने लगे और करों का संग्रहण ही दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण बना. कट्टाबोम्मा नायक, सुब्रमनिया पिल्लई और सौन्द्र पांडियन नायक इस विद्रोह के प्रमुख नेता थे. इस विद्रोह को “दक्षिण भारत का विद्रोह” भी कहा जाता है.
दीवान वेलु थम्पी का विद्रोह
1805 में वेलेजली की सहायक संधि स्वीकार न करते हुए त्रावणकोर के शासक को हटा दिया गया. परिणामस्वरूप 1808-09 में त्रावणकोर के दिवान वेलु थम्पी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह को “1857 के विद्रोह का पूर्वगामी” भी कहा जाता है.
पइका विद्रोह
1817 में ओडिशा राज्य के खुर्दा में सैनिकों का एक विद्रोह हुआ था जिसका नेतृत्व बक्शी जगबंधु (बिद्याधर महापात्र) ने किया था. इस विद्रोह को पइका विद्रोह कहते हैं. ओडिशा के पारम्परिक जमींदार सैनिकों को पइका कहा जाता था. जब 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस राज्य के अधिकांश भाग को कब्जे में ले लिया तो खुर्दा के राजा का प्रभुत्व समाप्त हो गया और इसके साथ पइका जनों की शक्ति और प्रतिष्ठा में भी गिरावट आ गई. अंग्रेज़ लोग इन आक्रामक और योद्धा लोगों से चिंतित रहा करते थे और इसलिए इनको रास्ते पर लाने के लिए उन्होंने वाल्टर एवर के अन्दर एक आयोग का गठन किया. इस आयोग ने सुझाव दिया कि पइका जनों के पास जो लगान रहित पैत्रिक भूमि दी गई थी उसे ब्रिटिश शासन अपने कब्जे में ले ले. इस सुझाव का कठोरता से पालन किया जाने लगा. इस पर पइका लोगों ने विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह के कुछ अन्य कारण भी थे, जैसे – नमक के मूल्य में वृद्धि, कर के भुगतान के लिए दी जाने वाली कौड़ी मुद्रा को समाप्त करना और भूमि लगान को वसूलने के लिए अपनाई गई शोषणकारी नीति. विद्रोह के आरम्भ में कंपनी को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, परन्तु मई 1817 तक विद्रोह को दबाने में सफल रही. कई पइका नेताओं को फाँसी दे दी गई अथवा देश निकाला दे दिया गया. आठ वर्षों के बाद जगबंधु ने भी 1825 में आत्मसमर्पण कर दिया.
फराजी विद्रोह
फराजी लोग बंगाल के फरीदपुर निवासी हाजी शरीयतुल्ला द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय के अनुयायी थे. ये लोग अनेक धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आधारभूत परिवर्तनों की बात करते थे. शरीयतुल्ला के पुत्र मियाँ (1819-60) ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई. यह सम्प्रदाय भी जमींदारों द्वारा अपने कृषक मजदूरों पर अत्याचारों का विरोधी था. फराजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे और अंत में इस सम्प्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए.
कित्तूर का चेनम्मा विद्रोह (1824)
रानी चेनम्मा का कर्नाटक प्रांत की रियासत कित्तूर के राजा मल्लासरजा के साथ विवाह से एक पुत्र था पर 1824 में अपने पुत्र की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने शिवलिंगप्पा को गोद लेकर सिंहासन का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. ब्रिटिश सरकार द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया गया.
धर राव विद्रोह (सतारा विद्रोह : 1840-41)
1840 में सतारा के राजा प्रताप सिंह को ब्रिटिश कम्पनी द्वारा अपदस्थ करने से कम्पनी शासन के विरुद्ध क्षेत्रीय असंतोष में वृद्धि हो गई. इस विद्रोह का नेतृत्व धर राव पँवार ने किया था.
सावंतवाड़ी विद्रोह
यह विद्रोह 1844 में हुआ. इस विद्रोह का नेतृत्व मराठा सरदार फोंड सावंत ने किया. सावंत ने कुछ किलों पर अधिकार कर लिया. बाद में अंग्रेज सेनाओं ने मुठभेड़ में विद्रोहियों को हरा दिया.
गडकरी विद्रोह
गडकरी भी मराठा क्षेत्र के दुर्गों में सैनिकों के रूप में काम किया करते थे जिसके बदले उन्हें करमुक्त जमीन मिला करती थी. ब्रिटिश शासन में यह लोग बेकार हो गए और इनकी जमीनों भी कर आरोपित कर दिया गया. इसके विरोध में गडकरियों ने 1844 में विद्रोह किया.
धार्मिक स्वरूप वाले नागरिक विद्रोह
पागलपंथी विद्रोह
पागलपंथी एक प्रकार का अर्द्ध-धार्मिक सम्प्रदाय था. यह सम्रदाय उत्तरी बंगाल में “करम शाह” द्वारा चलाया गया था. 1825 ई. में करमशाह के उत्तराधिकारी तथा पुत्र “टीपू शाह” धार्मिक तथा राजनीतिक उद्देश्यों प्रेरित थे. उसने जमींदारों के मुजारों पर किये गये अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया.
वहाबी आन्दोलन
वहाबी आन्दोलन (Wahabi Movement) की शुरुआत एक इस्लामी पुनरुत्थान आन्दोलन के रूप में हुई थी. इस आन्दोलन को तरीका-ए-मुहम्मदी अथवा वल्लीउल्लाही आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है. यह एक देश विरोधी और सशस्त्र आन्दोलन था जो शीघ्र ही पूरे देश में फ़ैल गया. वहाबी आन्दोलन एक व्यापक आन्दोलन बन चुका था और इसकी शाखाएँ देश के कई हिस्सों में स्थापित की गयीं. इस आन्दोलन को बिहार और बंगाल के किसान वर्गों, कारीगरों और दुकानदारों का समर्थन प्राप्त हुआ. यद्यपि यह एक धार्मिक आन्दोलन था पर कालांतर में इस आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाजें उठायीं जाने लगीं. पर इसके पीछे भी एक कारण था जो हम नीचे पढेंगे. ब्रिटिश शासन की समाप्ति तो इस आन्दोलन का उद्देश्य था ही, साथ-साथ सामजिक पुनर्गठन और सामाजिक न्याय की माँग भी वहाबी आन्दोलन की मुख्य माँगे थीं.
इसके विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें > वहाबी आन्दोलन
कूका विद्रोह
कूका विद्रोह का प्रारम्भ पंजाब में 1860-70 में हुई थी. शुरुआत में इसका स्वरूप धार्मिक था पर बाद यह राजनीतिक विद्रोह के रूप में बदल गया. इसके प्रणेता “भगत जवालार मल” थे. प्रारम्भ में इस विद्रोह का उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों को दूर कर इसे शुद्ध करना था.
पंजाब में अन्य आन्दोलन
1890-1900 के दौरान पंजाब में एक साहूकार-विरोधी आन्दोलन चला. 1902-03 में पंजाब भूमि हस्तांतरण (Punjab Land Alienation Act, 1901) के जरिये साहूकारों द्वारा किसानों की भूमि पर कब्ज़ा की जाने प्रवृत्ति पर रोक लगा दी गई. बाबा रामसिंह ने इस आन्दोलन की अगुआई की.
आदिवासी विद्रोह
चुआर विद्रोह या भूमिन विद्रोह (1798-99)
अकाल तथा बढ़े हुए भूमि कर और अन्य आर्थिक संकटों के चलते मिदनापुर जिले की आदिम जाति के चुआर लोगों ने सशस्त्र विद्रोह किया. दुर्जन सिंह (विस्थापित जमींदार) इस विद्रोह का नेता था तथा जगन्नाथ इस विद्रोह का अन्य प्रमुख नेता था.
हो विद्रोह
छोटानागपुर और सिंहभूम जिले के हो तथा मुंडा आदिवासियों ने बढ़े हुए भूमिकर के कारण जमींदारों एवं अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था.
संथाल विद्रोह
संथाल विद्रोह ब्रिटिश शासनकाल में जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के विरुद्ध किया गया था. यह विद्रोह संथालों के नेता सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में किया गया था.
विस्तार से यहाँ पढ़ें > संथाल विद्रोह
खोंड (डोंगरिया खोंड) विद्रोह
खोंड जनजाति ओडिशा का सबसे बड़ा आदिवासी समूह है जिनका संकेन्द्रण मुख्यतः ओडिशा (खाड़माल क्षेत्र) एवं आंध्र प्रदेश में है परन्तु इनकी उपस्थिति बंगाल से लेकर तमिलनाडु तक बड़े क्षेत्र में देखी जा सकती है. इन्हें स्थानीय रूप से कुई (दक्षिणी-केन्द्रीय तमिल भाषा जो ओडिशा में खोंड समुदाय द्वारा बोली जाती है) भी कहा जाता है. इस विद्रोह का नेतृत्व चक्र बिसोई द्वारा किया गया था.
सवार विद्रोह (1856)
ओडिशा के निकटवर्ती प्रदेश पार्लिया खेमदी के आदिवासी सवार कहे जाते हैं. 1856 ई. में राधाकृष्ण के नेतृत्व में सवार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ. 1857 ई. में राधाकृष्ण को फाँसी दे दी गई और विद्रोह का अंत हो गया.
भील विद्रोह
भील जनजाति पश्चिमी तट खानदेश जिले में रहती थी. 1812-19 तक इन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया. कंपनी के अधिकारियों के अनुसार इस विदोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्रिम्बकजी दांगलिया ने बढ़ावा दिया था. वास्तव में कृषि सम्बन्धी कष्ट तथा नई सरकार उत्पन्न भय ही इस विद्रोह के कारण थे.
राजस्थान का भील विद्रोह
मेवाड़ के भील अपने आक्रमणों में इस क्षेत्र में ग्रामों एवं यात्रियों को बचाए रखने के प्रतिफल के रूप में भोलाई एवं रखवाली लम्बे समय से वसूल करते आ रहे थे. ब्रिटिश प्रभाव में आकार मेवाड़ के शासन ने भीलों का भोलाई अधिकार समाप्त कर दिया गया तथा लकड़ी काटने और महुआ का फूल एकत्र करने पर रोक लगा दी. साथ ही तिलासा नामक नया भूमि कर भी लगा दिया जिसने साहूकारी व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया.
रामोसी विद्रोह
रामोसी मराठा सेना और पुलिस के अधीनस्थ कर्मचारी जनजाति थे. मराठा साम्राज्य के पतन के पश्चात् इन रामोसी लोगों ने खेती-बाड़ी को अपने जीवन-यापन का साधन बना लिया. परन्तु कम्पनी सरकार ने 1822 में इन पर बहुत भारी लगान लगा दिया और इसे वसूल करने के लिए बहुत क्रूर तरीकों का प्रयोग किया. जिस कारण इनके सरदार चित्तर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. 1825-26 में बहुत बड़ा अकाल पड़ा और अन्न के अभाव में रामोसी लोगों ने उमाजी के नेतृत्व में पुनः विद्रोह प्रारम्भ कर दिया.
कोल विद्रोह
छोटानागपुर की कोल जनजाति भी अंग्रेजों से परेशान थी. दरअसल अंग्रेजों ने उनके दुर्ग तोड़ दिए थे तथा ब्रिटिश शासन में उनमें बेगारी बढ़ गई थी. कोलों का विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ 1829 ई. में शुरू हुआ था. इस जनजाति के लोगों ने 1829 ई. से लेकर 1848 ई. तक विद्रोह किया.
रम्पा विद्रोह
कोया तथा कोंडा डोरा पहाड़ियों (विशाखापत्तनम क्षेत्र – आंध्र प्रदेश) में ब्रिटिश शासन की स्थापना से ही नियमित रूप से विद्रोह होते रहे जिसका प्रमुख कारण नया वन कानून था जिसमें झूम कृषि पर प्रतिबंध तथा ईमारती लकड़ी एवं चराई पर कर की वृद्धि का प्रावधान था. नए आबकारी कानून के तहत घरों में ताड़ी बनाने पर रोक, बाहरी साहूकारों, व्यापारियों एवं जमींदारों का शोषण एवं पुलिस की ज्यादतियाँ शामिल थीं. 1879 में हुए इस विद्रोह के नेतृत्वकर्ता राजा रम्पा थे.
चेंचू आदिवासी आन्दोलन (1898)
चेंचू आदिवासी दक्षिणी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा एवं कर्नाटक आदि जिलों में पाए जाते हैं. ये मुख्यतः द्रविड़ परिवार की भाषा चेंचू बोलते हैं. इनके जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन आखेट और संग्रहण था. ब्रिटिश शासन द्वारा वन कानून एवं आबकारी क़ानून लाये जाने से इनके जीविकोपार्जन के सभी साधन छिन लिए गये.
मुंडा विद्रोह
मुंडा विद्रोह बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1899-1901 के बीच आधुनिक झारखण्ड क्षेत्र में चलाया गया. इस आन्दोलन को मुंडा उल्गुलन या महान हलचल भी कहा जाता है. भूमि के निजीकरण होने से मुंडा समुदाय की पारम्परिक भूमि व्यवस्था खूँटकट्टी (सामुदायिक अधिकार) को समाप्त कर दिक्कुओं (बाहरी जमींदारों, महाजनों, व्यापारियों) द्वारा भूमि को निजी सम्पत्ति घोषित करना इस विद्रोह का मुख्य कारण था.
उराँव विद्रोह/टाना भगत का विद्रोह (छोटानागपुर : 1914)
उराँव आधुनिक झारखंड में रहने वाला एक जनजातीय समूह है. इस विद्रोह का नेतृत्व उराँव आदिवासी लोगों में भगत कहे जाने वाले संत, धर्माचार्य, फ़कीर आदि ने किया था. इसके अंतर्गत उराँव जनजातीय में प्रचलित कुरीतियों भूत-प्रेत, बुरी आत्माओं पर विश्वास, पशु बलि एवं शराब सेवन का विरोध तथा शाकाहार, तपस्या एवं संयम को प्रोत्साहित किया गया था. विद्रोह के विस्तार के साथ ही इसमें कृषक समस्या एवं आर्थिक, राजनीतिक मुद्दे भी सम्मिलित हो गये.
खासी विद्रोह
बर्मा युद्ध के फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरब दिशा में जयंतिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया. अंग्रेजों ने ब्रह्मपुत्र घाटी तथा सिल्हट को जोड़ने के लिए एक सैन्य मार्ग योजना भी बनाई. खासी मुखिया तीरत सिंह ने अंग्रेजों के इस योजना का विरोध किया तथा गारो, खाम्पटी एवं सिंहपो लोगों की सहायता से विदेशी लोगों को वहाँ से भगाने का प्रयास किया.
अहोम विद्रोह
असम के अहोम अभिजाति वर्ग के लोगों ने कंपनी पर बर्मा युद्ध के बाद असम वापस लौटने का वचन न पूरा करने का आरोप लगाया. इसके अतिरिक्त जब अंग्रेजों ने अहोम प्रदेश को भी अपने प्रदेशों में सम्मिलित करने का प्रयास किया तो विद्रोह फूट पड़ा. इस विद्रोह के प्रणेता गोमधर कुंवर थे.
सिंहपो विद्रोह
जब अंग्रेज़ खासी विद्रोह को दबाने में लगे थे तभी 1830 के प्रारम्भ में सिंहपो ने विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह को तीन महीने बाद दबा भी दिया गया. इस विद्रोह के प्रणेता थे – निरांग फिडू और खमसा सिंहपो.
नागा आन्दोलन
1891 में मणिपुर में ब्रिटिश सत्ता स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेज़ एवं जनजातियों के बीच सम्बन्ध बिगड़ने लगे. आन्दोलन का नेतृत्व रोंगमई नेता जदोनांग द्वारा किया गया. आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य राजा को स्थापित करना, मिशनरी प्रभाव को कम करके धर्म परिवर्तन की घटना को रोक प्राचीन धर्म स्थापित करना, नए रीति-रिवाजों का विरोध एवं सामाजिक एकता को बढ़ावा देना था.
किसान आन्दोलन
1857 से पहले के किसान आन्दोलन अथवा कृषक विद्रोह, स्वतंत्र विद्रोह नहीं, बल्कि किसी अन्य जन-विद्रोह या 1857 के विद्रोह के भाग थे. किसानों के असंतोष का मुख्य कारण आर्थिक अभाव ही था. ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के प्रति केवल किसानों में ही नहीं, बल्कि अन्य वर्गों में भी व्यापक आक्रोश था. ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के चलते पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट गई थी और पूरा ग्रामीण वर्ग औपनिवेशिक शासन के काले साए से ढँक गया था.
भारतीय किसानों को अंग्रेजों को बहुत भारी लगान अदा करना पड़ता था. लगान न देने पाने की परिस्थिति में उन्हें अपने भूमि से वंचित कर भूमिहीन मजदूर बनने हेतु विवश कर दिया जाता था. उन्हें नकदी फसल उगाने के लिए बाध्य किया जाता था. कृषि के वाणिज्यीकरण से किसानों में दरिद्रता बढ़ गई. इसके फलस्वरूप किसान वर्ग विद्रोहों में शामिल होने लगे. इन विद्रोहों का नेतृत्व सत्ता से निकाले गये जमींदारों ने किया.
बंगाल का नील आन्दोलन (1859-60)
यूरोपीय बाजार के माँग की पूर्ति के लिए नील उत्पादकों के लिए भारतीय किसानों को नील की खेती के लिए बाध्य किया. दरअसल, नील उत्पादकों ने किसानों को जबरन नील की खेती करने पर मजबूर करके रखा था. जबकि किसान अपनी बढ़िया उपजाऊ जमीन चावल उगाना चाहते थे, जिसकी उन्हें बेहतर कीमत मिलती. ये नील उत्पादक किसानों को अग्रिम धन देकर करारनामा लिखवा लेते थे, जो कि बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था. इसे ददनी प्रथा (Dadani System) कहा जाता था.
दिगंबर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने विद्रोह करके इस आन्दोलन की शुरुआत की.
इस आन्दोलन की सफलता का सबसे मुख्य कारण किसानों में अनुशासन, एकजुटता, सहयोग एवं संगठन का समावेश था. इस आन्दोलन को बुद्धिजीवी वर्ग का पूरा समर्थन प्राप्त था. “हिन्दू पैट्रियाट” के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी भी इस आन्दोलन से जुड़े थे. दीनबंधु मित्र ने नाटक “नील दर्पण” में किसानों के शोषण तथा उत्पीड़न का उल्लेख किया है. इस आन्दोलन में ईसाई मिशनरियों ने भी किसानों का साथ दिया.
बिहार में नील आन्दोलन
उत्तर बिहार में नेपाल से सटे हुए चंपारण जिले में नील की खेती की प्रथा थी. इस क्षेत्र में बागान मालिकों को जमीन की ठेकेदारी अंग्रेजों द्वारा दी गई थी. बागान मालिकों ने “तीन कठिया प्रणाली” लागू कर रखी थी. तीन कठिया प्रणाली के अनुसार हर किसान को अपनी खेती के लायक जमीन के 15% भाग में नील की खेती करनी पड़ती थी. दरअसल नील (indigo) नकदी फसल (cash crop) माना जाता था. नकदी अर्थात् जिसको बेचने से अच्छी-खासी आमदनी होती थी परन्तु किसान खुद के उगाये नील को बाहर नहीं बेच सकते थे. उन्हें बाज़ार मूल्य से कम कीमत पर बागान मालिकों को बेचना पड़ता था. यह किसानों पर अत्याचार था. उनका आर्थिक शोषण था. ऊपर से नील की खेती से खेत की उर्वरता भी कम हो जाती थी.
चंपारण आन्दोलन के विषय में यहाँ विस्तार से पढ़ें > चंपारण आन्दोलन
पश्चिम एवं दक्षिण के किसानों का विद्रोह
1857 का दक्कन विद्रोह/उपद्रव
महाराष्ट्र के पूना और अहमदनगर जिलों में 1875 में किसाकों के आक्रोशवश व्यापक स्तर पर विद्रोह हुआ. इसके अंतर्गत किसानों ने बाहरी महाजनों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया और उन्होंने महाजनों के पास रखे बंधक-पत्र (bonds) व अन्य दस्तावेज जला दिए. शीघ्र ही यह उपद्रव दूसरे क्षेत्रों में भी फैल गया. इसलिए सरकार ने दक्कन कृषक राहत अधिनियम, 1879 (Deccan Agriculturist Relief Act, 1879) के जरिये कृषकों को कुछ संरक्षण प्रदान किया.
दक्कन क्षेत्र के काली मृदा युक्त होने के चलते यह प्राचीन काल से ही एक महत्त्वपूर्ण कपास उत्पादक क्षेत्र रहा है. ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति ने भारत में ब्रिटिश कपड़ा फैक्ट्रियों के लिए कच्चे माल जैसे कपास, नील आदि नकदी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया. साहूकारों और महाजनों का इस क्षेत्र में प्रभाव बहुत अधिक था. दक्कन क्षेत्र 1868-70 के मध्य भीषण अकाल से प्रभावित हुआ. ऐसे हालत में सरकार द्वारा लगान की दर में वृद्धि कर दी गई. अपने जमीन और घर को गिरवी रखकर किसान साहूकारों से अत्यधिक ब्याज पर ऋण लेने लगे. जब धन वापस लेने के लिए साहूकारों का अत्याचार बढ़ने लगा तो बाबा साहेब देशमुख नामक किसान के नेतृत्व में किसानों ने विद्रोह कर दिया. इस आन्दोलन का बुद्धिजीवियों जैसे रानाडे आदि ने तथा पूना सार्वजनिक सभा एवं राष्ट्रवादी अखबारों ने बढ़-चढ़कर समर्थन किया.
पबना विद्रोह (1873-76)
पबना आर्थिक दृष्टि से एक समृद्ध इलाका था. 1859 में कई किसानों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार दिया गया था. किसानों को मिले इस अधिकार के अंतर्गत किसानों को उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था. लगान की वृद्धि पर भी रोक लगाई गई थी. कुल मिलाकर किसानों के लिए पबना में एक सकारात्मक माहौल था. पर कालांतर में जमींदारों का दबदबा पबना में बढ़ने लगा. जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाने लगे. अन्य तरीकों से भी जमींदारों द्वारा किसानों को प्रताड़ित किया जाने लगा. अंततः 1873 ई. में पबना के किसानों ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने की ठानी और किसानों का एक संघ बनाया. किसानों की सभाएँ आयोजित की गयीं. कुछ किसानों (peasants) ने अपने परगनों को जमींदारी नियंत्रण से मुक्त घोषित कर दिया और स्थानीय सरकार बनाने की चेष्टा की. उन्होंने एक सेना भी बनायी जिससे कि जमींदारों के लठियलों का सामना किया जा सके. जमींदारों से न्यायिक रूप से लड़ने के लिए धन चंदे के रूप में जमा किया गया. किसानों ने लगान (rent) देना कुछ समय के लिए बंद कर दिया. यह आन्दोलन धीरे-धीरे सुदूर क्षेत्रों में भी, जैसे ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, राजशाही, फरीदपुर, राजशाही फैलने लगा. विस्तार से यहाँ पढ़ें > पबना विद्रोह
असम (कामरूप, दिरांग) में लगान की नाअदायगी का आन्दोलन
1893-94 में असम के कामरूप तथा दिरांग जिले में नए राजस्व बंदोबस्त के तहत लगान की दर में 50-70% बढ़ोतरी कर दी गई. इसके विरोध में ग्रामीण अभिजनों के नेतृत्व में लगान की नाअदायागी के लिए सभा आयोजित की गई और अगर कोई लगान की रकम अदा करता तो उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था. आन्दोलन में सामाजिक बहिष्कार का संभवतः पहली बार प्रयोग देखा गया.
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