राष्ट्रपति का निर्वाचन, शक्ति, कार्यकाल और विशेषाधिकार

Sansar LochanIndian Constitution, Polity Notes

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भारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका की शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गयी है. पर वास्तव में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बनी मंत्रिपरिषद् के माध्यम से राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करता है. वह पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है. राष्ट्रपति पद के लिए सीधा जनता के द्वारा निवार्चन नहीं होता. उसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष तरीके से होता है. इसका अर्थ है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन आम नागरिक नहीं बल्कि निर्वाचित विधायक और सांसद करते हैं. यह निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत के सिद्धांत के अनुसार होता है. केवल संसद ही राष्ट्रपति को महाभियोग (Impeachment) की प्रक्रिया के द्वारा उसे पद से हटा सकती है. महाभियोग केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर लगाया जा सकता है.

राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने को बाध्य है. उसकी शक्ति पर उठे विवाद के कारण संविधान का संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने को बाध्य है. बाद में एक और संशोधन द्वारा यह निर्णय लिया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् को अपनी सलाह पर एक बार पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन उसे मंत्रिपरिषद् के द्वारा पुनर्विचार के बाद दी गयी सलाह को मानना ही पड़ेगा.

राष्ट्रपति की योग्यताएँ (Eligibility for the post of the President)

  1. भारत का नागरिक
  2. कम से कम 35 वर्ष की आयु
  3. वह लाभ के पद पर न हो
  4. वह लोक सभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यताएँ पूरी करता हो

राष्ट्रपति का निर्वाचन (Election of the President)

राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत से गुप्त मतदान द्वारा होता है. राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचक मंडल द्वारा होता है. निर्वाचक मंडल में राज्य सभा, लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं. 70वें संविधान संशोधन 1992 के द्वारा पांडिचेरी तथा दिल्ली की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को भी इस निर्वाचक मंडल में सम्मिलित किया गया है. निर्वाचन के लिए निर्वाचक मंडल के सभी सदस्यों के मत का मूल्य समान नहीं होता है. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए निर्वाचक मंडल के 50 सदस्य उसके प्रस्तावक तथा 50 सदस्य अनुमोदक होते हैं. यथा 1967 में राजस्थान विधानसभा निलंबित होने के बावजूद सदस्यों ने मतदान में भाग लिया.

निर्वाचन के लिए प्रत्येक योग्य मतदाताओं के मत का मूल्य निकाला जाता है जो समान नहीं होता. राज्य की विधानसभा के प्रत्येक सदस्य के मत का मूल्य निकालने के लिए उस राज्य की कुल जनसंख्या में राज्य विधानसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है. फिर शेषफल में 1000 से भाग दिया जाता है.

उदाहरण: – मान लीजिये आंध्र प्रदेश की जनसँख्या 43502708 है. विधानसभा सदस्यों की संख्या 294 है. सर्वप्रथम 43502708 को 294से भाग देंगे. और जो शेषफल होगा (147968.39451), उसको 1000 से भाग देंगे = 148

148= एक निर्वाचित विधायक का मत मूल्य

संसद सदस्यों के मत मूल्य निकालने के लिए राज्य विधानसभाओं के कुल मत मूल्य में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या [LOK SABHA (545) + RAJYA SABHA (245)] से भाग दिया जाता है. मतदाता वरीयता के आधार पर मत करते हैं. चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक उम्मीदवार को एक न्यूनतम कोटा प्राप्त करना होता है.

राष्ट्रपति का कार्यकाल (Term of the President)

राष्ट्र्पत का कार्यकाल पाँच वर्ष होता है. एक ही व्यक्ति जितनी बार चाहे राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचित हो सकता है, इस पर कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है. वह पाँच वर्ष से पूर्व स्वयं त्यागपत्र उपराष्ट्रपति को देकर पद से हट सकता है. अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति को पाँच वर्ष से पूर्व महाभियोग लगाकर एवं सिद्ध करके हटाया जा सकता है. महाभियोग संसद के किसी भी सदन में – राज्य सभा या लोक सभा में प्रारम्भ किया जा सकता है. महाभियोग संविधान के उल्लंघन के सम्बन्ध में लगाया जाता है तथा इसके लिए 14 दिन पूर्व लिखित सूचना देकर इस आशय का संकल्प पारित कराया जाता है. राष्ट्रपति को महाभियोग के अन्वेषण के समय स्वयं उपस्थित होने तथा अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है. वह पद पर रहते हुए किये गए कार्य के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं है.

अन्य किसी कारण से यथा राष्ट्रपति की मृत्यु आदि से स्थायी रूप से उसका पद रिक्त हो जाता है, तो उपराष्ट्रपति तुरन्त उसके पद पर कार्य करना प्रारम्भ कर देगा तथा नए राष्ट्रपति द्वारा पद धारण करने तक कार्य करता रहेगा. राष्ट्रपति का निर्वाचन पद रिक्त होने की तिथि से छः माह के भीतर होना चाहिए. यह नव-निर्वाचित राष्ट्रपति पूरे पाँच वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होता है.

  • भारत के दो राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन तथा फखरुद्दीन अली अहमद की अपने कार्यकाल के दौरान ही मृत्यु हुई थी.
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश मो. हिदायतुल्ला के द्वारा कार्यकारी राष्ट्रपति के पद का निर्वहन एक बार किया गया है.
  • जुलाई 1977 में नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति के रूप में निर्विरोध निर्वाचित हुए.
  • राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बंधित संदेह और विवाद का निर्धारण उच्चतम न्यायालय करेगा.

राष्ट्रपति की शक्तियाँ 

कार्यपालिका शक्तियाँ (Executive Powers)

यद्यपि राष्ट्रपति प्रशासन का वास्तविक प्रधान नहीं है फिर भी शासन के सभी कार्य उसी के नाम से होते हैं तथा संघ के सभी कार्यपालिका अधिकारी उसके अधीन रहते हैं. राष्ट्रपति कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री है, की सलाह पर करेगा. 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य कर दिया गया है.

राष्ट्रपति को इन्हें नियुक्त करने की शक्ति है–

  1. प्रधानमंत्री
  2. मंत्रिपरिषद् के अन्य मंत्री
  3. भारत का महान्यायवादी
  4. नियंत्रक महालेखा परीक्षक
  5. उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश
  6. राज्यों के राज्यपाल
  7. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश
  8. संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य
  9. वित्त आयोग के अध्यक्ष
  10. मुख्य तथा अन्य आयुक्त इत्यादि

राष्ट्रपति को इन्हें पद से हटाने का भी अधिकार है–

  1. मंत्रिपरिषद् के मंत्री
  2. राज्य का राज्यपाल
  3. उच्चतम न्यायालय की रिपोर्ट पर लोक सेवा आयोग के (संघ या राज्य) अध्यक्ष या सदस्य
  4. संसद की रिपोर्ट पर उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या निर्वाचन आयुक्त

विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers)

राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है.  संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक तभी कानून बनता है, जब उस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाते हैं. राष्ट्रपति संसद के सदनों को आहूत करने, सत्रावसान करने और लोक सभा का विघटन करने की शक्ति रखता है. राष्ट्रपति लोक सभा के लिए प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरम्भ में एक साथ संसद के दोनों सदनों में प्रारम्भिक अभिभाषण करता है. राष्ट्रपति को संसद में विधायी विषयों तथा अन्य विषयों के सम्बन्ध में सन्देश भेजने का अधिकार है. राष्ट्रपति आंग्ल-भारतीय समुदाय के 2 व्यक्तियों को लोकसभा में तथा साहित्य, कला, विज्ञान अथवा समाज सेवा क्षेत्र के 12 व्यक्तियों को राज्यसभा में मनोनीत कर सकता है. राष्ट्रपति वार्षिक विक्तीय विवरण, नियंत्रक महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन, वित्त आयोग की सिफारिशें तथा अन्य आयोगों की रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत करवाता है. कुछ विषयों से सम्बंधित विधेयक संसद में प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है, जैसे – राज्यों की सीमा परिवर्तन, धन विधेयक, अनुच्छेद 31 क (1) में वर्णित विषय आदि से सम्बंधित विधेयक. वह किसी भी  विधेयक को अनुमति दे सकता है, उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है तथा उस पर अपनी अनुमति रोक सकता है, लेकिन धन विधेयकों पर राष्ट्रपति को अनिवार्य रूप से अनुमति देनी होती है तथा उसे पुनर्विचार के लिए भी वापस नहीं भेज सकता है. संविधान संशोधन विधेयक के लिए भी इस प्रकार का प्रावधान है. 44वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद् की सलाहों को केवल एक बार पुनर्विचार के लिए प्रेषित करने का अधिकार दिया गया है, यदि परिषद् अपने विचार पर टिकी रहती है तो राष्ट्रपति उसी सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा. संविधान में राष्ट्रपति को किसी विधेयक को अनुमति न देने या अनुमति देने अथवा वापस करने की समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है. इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी विधेयक पर राष्ट्रपति चाहे तो अपने पूरे कार्यकाल में कोई मंतव्य नहीं भी दे सकता है. यदि वह ऐसा करता है इसको वीटो (Veto) ही माना जाता है. इस प्रकार के Veto को pocket veto का नाम दिया जाता है. ऐसा एक बार 1986 में हुआ था जब भारतीय डाकघर संशोधन विधयेक पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने कोई मंतव्य नहीं दिया और वह विधेयक उनके pocket में ही रह गया.

राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित विधयेक को राष्ट्रपति पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है. छ: माह की अवधि में यदि वह राज्य विधान मंडलों द्वारा पुनर्विचार के पश्चात् प्रस्तुत किया जाता है तो भी वह उसे अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं था. राष्ट्रपति इसे अनिश्चित काल के लिए अपने पास भी रख सकता है,  लेकिन धन विधेयक को वह या तो अनुमति प्रदान करता है या इनकार करता है पर उसे पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता. राष्ट्रपति, जब संसद का सत्र न चल रहा हो तथा किसी विषय पर तुरंत विधान बनाने की आवश्यकता हो तो अध्यादेश द्वारा विधान बना सकता है. उसके द्वारा बनाए गए अध्यादेश संसद के विधान की ही तरह होते हैं, लेकिन अध्यादेश अस्थायी होता है. राष्ट्रपति अध्यादेश अपनी मंत्रिपरिषद् की सलाह से जारी करता है. संसद का अधिवेशन होने पर अध्यादेश संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए. यदि संसद उस अध्यादेश को अधिवेशन प्रारंभ होने की तिथि से छः सप्ताह के अन्दर पारित नहीं कर देती, तो वह स्वयं ही निष्प्रभावी हो जाएगा. 44वें संविधान संशोधन द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राष्ट्रपति के अध्यादेश निकालने की परिस्थितियों को असद्भावनापूर्ण होने का संदेह होने पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है.

न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers)

राष्ट्रपति किसी सैनिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंड को, कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत दिए गए दंड को, कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत दिए गए दंड को तथा अपराधी को मृत्यु दंड दिए जाने की स्थिति में क्षमा दान दे सकता है. दंड को कम कर सकता है, दंडादेश की प्रकृति को बदल सकता है. दंड को निलंबित करने का भी राष्ट्रपति को अधिकार है.

सैन्य शक्तियाँ (Military Powers)

राष्ट्रपति तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति होता है. वह तीनों सेनाओं के सेना अध्यक्षों की नियुक्ति करता है. उसे युद्ध या शांति की घोषणा करने, तथा रक्षा बलों को नियोजित करने का अधिकार है. लेकिन उसके ये अधिकार संसद द्वारा नियंत्रित हैं.

राजनयिक शक्तियाँ (Diplomatic Powers)

राष्ट्रपति संसद की विधि के अधीन राजनयिकों की विदेशों में नियुक्ति करता है. बाहर के राजनयिकों के परिचय-पत्र ग्रहण करता है. संसद की विधि के अधीन राष्ट्रपति को विदेशों से मंत्रियों की सलाह के अनुसार करार और संधि करने का अधिकार है.

परामर्श शक्तियाँ (Consultative Powers)

राष्ट्रपति किसी सार्वजनिक सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय से अनुच्छेद 143 के अधीन परामर्श ले सकता है, लेकिन वह यह परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं है.

आपातकालीन शक्तियाँ (Emergent Powers): राष्ट्रपति तीन परिस्थतियों में आपात स्थिति लागू कर सकता है –

  1. युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से यदि भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा संकट में हो. 44वें संशोधन द्वारा आन्तरिक अशांति के स्थान पर सशस्त्र विद्रोह शब्द जोड़े गए. अनुच्छेद 20 तथा 21 में दिए गए मौलिक अधिकार आपातकाल में थी स्थगित नहीं किये जायेंगे. भारत में वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण, 1965 तथा 1971 के पाकिस्तानी आक्रमण के समय और वर्ष 1975 में आंतरिक अशांति के आधार पर आपातकाल की घोषणा की गई थी.
  2. किसी राज्य पर शासन संविधान के अनुरूप न चलने पर या संविधानिक तंत्र असफल हो जाने पर.
  3. जब भारत या उसके किसी भाग में वित्तीय स्थायित्व संकट में हो (अनुच्छेद 360). 1 तथा 3 परिस्थिति में मंत्रिमंडल की सिफारिश पर और परिस्थिति -2 में राज्यपाल के प्रतिवेदन पर आपातकालीन घोषणा की जाती है.

विशेषाधिकार (Special Powers)

संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और मंत्रिपरिषद् की कार्यवाही के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है. प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति द्वारा मांगी गई सभी सूचनाएँ उसे दे. राष्ट्रपति प्रायः प्रधानमंत्री को पत्र लिखता है और देश की समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त करता है. इसके अतिरिक्त, कम से कम तीन अन्य अवसरों पर वह अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करता है – –

i) राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह को लौटा सकता है और उसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है. ऐसा करने में वह अपने विवेक का प्रयोग करता है. जब राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि सलाह में कुछ गलती है या कानूनी रूप से कुछ कमियाँ हैं या फैसला देश के हित में नहीं है, तो वह मंत्रिपरिषद् से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है. यद्यपि मंत्रिपरिषद् पुनर्विचार के बाद भी उसे वही सलाह दुबारा दे सकती है और तब राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य भी होगा, तथापि राष्ट्रपति के द्वारा पुनर्विचार का आग्रह अपने आप में काफी मायने रखा है. अतः यह एक तरीका है जिसमें राष्ट्रपति अपने विवेक के आधार पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है.

ii) राष्ट्रपति के पास वीटो की शक्ति (Veto Power/निषेधाधिकार) होती हैं जिससे वह संसद द्वारा पारित विधेयक (धन विधेयकों को छोड़कर) पर स्वीकृति देने में विलम्ब कर सकता है. स्वीकृति देने से मन कर सकता है. संसद द्वारा पारित प्रत्येक विधेयक को कानून बनने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है. राष्ट्रपति उसे संसद को लौटा सकता है और उसे उस पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है. वीटो की यह शक्ति (Veto Power) सीमित है क्योंकि संसद उसी विधेयक को दुबारा पारित कर दे और राष्ट्रपति के पास भेजे, तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ेगी. लेकिन संविधान में राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ेगी. लेकिन संविधान में राष्ट्रपति के लिए ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है जिससे अन्दर ही उस विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाना पड़े. इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय सीमा के अपने पास लंबित रख सकता है. इससे राष्ट्रपति को अनौपचारिक रूप से, अपने वीटो (Veto) को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है.

iii) तीसरे प्रकार का विशेषाधिकार राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पैदा होता है. औपचारिक रूप से राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है. सामान्यतः अपनी संसदीय व्यवस्था में लोकसभा के बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है, इसलिए उसकी नियुक्ति में राष्ट्रपति के विशेषाधिकार का कोई प्रश्न ही नहीं. लेकिन उस परिस्थिति की परिकल्पना करें जिसमें चुनाव के बाद किसी भी नेता को लोकसभा में बहुमत प्राप्त न हो. इसके अतिरिक्त यह भी सोचा जा सकता है कि यदि गठबंधन बनाने के प्रयासों के बाद भी दो या तीन नेता यह दावा करें की उन्हें लोकसभा में बहुतमत प्राप्त है, तो क्या होगा? तब राष्ट्रपति को यह निर्णय करना है किसको प्रधानमंत्री नियुक्त करे. इस परिस्थिति में राष्ट्रपति को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर यह निर्णय लेना होता है की किसे बहुमत का समर्थन प्राप्त है या कौन सरकार बना सकता है और सरकार चला सकता है.

वर्ष 1989 के बाद से प्रमुख राजनितिक परिवर्तनों के कारण राष्ट्रपति के पद का महत्त्व बहुत बढ़ गया है. वर्ष 1989 से वर्ष 1998 तक हुए चार संसदीय चुनावों में से किसी भी एक दल या दलीय गठबंधन को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका. इन परिस्थतियों की माँग थी कि राष्ट्रपति हस्तक्षेप करके या तो सरकार का गठन कराये या फिर प्रधानमंत्री द्वारा लोकसभा में बहुमत सिद्ध कर पाने के बाद उसकी सलाह पर लोकसभा भंग कर दे.

अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति का विशेषाधिकार राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित होता है. जब सरकार स्थाई न हो और गठबंधन सरकार सत्ता में हो तब राष्ट्रपति के हस्तक्षेप की संभावनाएँ बढ़ जाती है. राष्ट्रपति का पद मुख्यतः एक औपचारिक शक्तिवाला पद है. ऐसे में यह पूछा जा सकता है कि तब हमें राष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है? संसदीय व्यवस्था में मंत्रिपरिषद् विधायिका में बहुमत के समर्थन पर निर्भर होती है. इसका अर्थ यह है कि मंत्रिपरिषद् को कभी भी हटाया जा सकता है और तब उसकी जगह एक नई मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति करनी पड़ेगी. ऐसी स्थिति में एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख की जरुरत पड़ती है जिसका कार्यकाल स्थायी हो, जिसके पास प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की शक्ति हो और जो सांकेतिक रूप से पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सके. सामान्य परिस्थतियों में राष्ट्रपति की यही भूमिका है लेकिन जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर निर्णय लेने और देश की सरकार को चलाने के लिए प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है.

पॉकेट वीटो का उदाहरण (Example of Pocket Veto)

हम जानते हैं की विधेयकों को स्वीकृति देने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति पर कोई समय सीमा नहीं है. वर्ष 1986 में संसद ने “भारतीय पोस्ट ऑफिस (संशोधन) विधेयक/The Indian Post Office (Amentment) Bill, 1986” पारित किया. अनेक लोगों ने इसकी आलोचना की क्योंकि विधेयक प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित कर रहा था. तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (President Zail Singh) ने उस पर कोई निर्णय नहीं लिया. उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद अगले राष्ट्रपति वेंकटरमण ने उसे पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा दिया. तब तक, वह सरकार चली गई जिसने विधेयक पेश किया था और वर्ष 1989 में एक नई सरकार चुनकर आ गयी थी. यह दूसरे दलों की गठबंधन सरकार थी और उसने इस विधेयक को दुबारा संसद में पेश नहीं किया गया. इस प्रकार, जैल सिंह के द्वारा विधेयक को स्वीकृति देने के निर्णय में विलम्ब करने का वास्तविक परिणाम यह हुआ कि यह विधेयक कानून नहीं बन सका.

Source: NCERT, NIOS, IGNOU, Lakshmikanth

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