भारतीय रिज़र्व बैंक ने हाल ही में यह निर्णय लिया है कि वह भारतीय रिज़र्व बैंक के अन्दर ही एक विशेषज्ञ पर्यवेक्षणात्मक एवं नियामक कैडर (specialised supervisory and regulatory cadre) का गठन करेगा जिसका उद्देश्य व्यवसायिक बैंकों, शहरी सहकारी बैंकों एवं गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों से सम्बंधित पर्यवेक्षण और नियमन को सशक्त करना है.
इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी?
बैंकों की ऋण व्यवस्था में पाई गई त्रुटियाँ : पिछले दो वर्षों में कई ऐसी घटनाएँ घटीं जिससे सरकार को चिंता होना स्वाभविक है. उदाहरण के लिए IL&FS में ऋण वापस नहीं करने के मामले हुए, साथ ही ICICI बैंक में ऋण को लेकर समस्या हुई. इसके अतिरिक्त पंजाब नेशनल बैंक में भी इस मामले में जालसाजी हुई. जहाँ तक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की बात है, इनमें भी तरलता को लेकर समस्या हुई.
जटिलता : भारतीय रिज़र्व बैंक में पर्यवेक्षण से सम्बंधित वर्तमान पद्धति आवश्यकता से अधिक जटिल है. अतः इसका सरलीकरण आवश्यक है.
ढिलाई की शिकायत : शिकायतें आ रहीं थी कि रिज़र्व बैंक पर्यवेक्षण के मामले में ढीला चल रहा है, विशेषकर वह जालसाजी का समय पर पता लगाने में अक्षम रहा है और बैंकिंग प्रक्षेत्र पर उसका प्रशासन कमजोर है.
बढ़ा हुआ बोझ : आज की तिथि में देश में वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 1,16,000 से भी अधिक हो गई है. इसलिए रिज़र्व बैंक की वर्तमान पर्यवेक्षण प्रक्रिया के बल पर इन सभी शाखाओं पर नियंत्रण रखना कठिन हो चला है.
वर्तमान प्रथा
वर्तमान में बैंक अपने पर्यवेक्षण में इस बात पर ध्यान देते हैं कि कौन-कौन से जोखिमों का उन्हें सामना करना पड़ सकता है और इसके लिए कौन-कौन से कदम शीघ्र उठाये जाने चाहिएँ. दूसरी ओर गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों और शहरी सहकारी बैंकों में प्रचलित पर्यवेक्षण की प्रणाली इतनी कठोर नहीं है अर्थात् ढीली-ढाली है.
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