राजनीतिक चेतना का संचार करने में साहित्य एवं समाचारपत्रों का योगदान रहा?
उत्तर :-
राजनीतिक चेतना का संचार करने में प्रेस और साहित्य का भी कम महत्त्व नहीं रहा है. प्रो० बिपनचंद्र के अनुसार, प्रेस ही वह मुख्य माध्यम था जिसके जरिए राष्ट्रवादी विचारधारावाले भारतीयों ने देशभक्ति के संदेश और आधुनिक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया और अखिल भारतीय चेतना का सृजन किया. 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत में समाचारपत्रों की संख्या नगण्य थी. इनका उचित महत्त्व भी नहीं समझा जाता था, परंतु 1857 ई० के बाद इनका तेजी से विकास हुआ. फलस्वरूप अनेक अँगरेजी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में समाचारपत्र प्रकाशित होने लगे. इनमें “टाइम्स ऑफ इंडिया’, “स्टेट्समैन’, “इंगलिशमैन”, “फ्रैंड ऑफ इंडिया”, “मद्रास मेल”, “सिविल एंड मिलीटरी गजट” आदि प्रमुख अँगरेजी पत्र थे. इन पत्रों का रुख भारत-विरोधी एवं सरकार-समर्थक होता था. लेकिन, इसी समय अन्य समाचारपत्र भी प्रकाशित हुए जिनमें अँगरेजी सरकारी नीतियों की आलोचना की गई, भारतीय दृष्टिकोण को ज्वलंत प्रश्नों पर रखा गया और भारतीयों में राष्ट्रीयता, एकता की भावना जगाने का प्रयास किया गया. ऐसे समाचार-पत्रों में मुख्य रूप से उल्लेखनीय हिंदू पैट्रियट, अमृत बाजार पत्रिका, इंडियन मिरर, बंगाली (बंगाल से प्रकाशित होनेवाले); बंबई से रास्त गोफ्तार, नेटिव ओपीनियन, मराठा, केसरी, मद्रास से हिंदू, उत्तरप्रदेश से हिंदुस्तानी, आजाद और पंजाब से ट्रिब्यून थे. इन समाचारपत्रों ने राष्ट्रीय चेतना को विकसित किया. इसी प्रकार, बांग्ला, असमिया, मराठी, तमिल, हिंदी, उर्दू आदि में उपन्यास, निबंध, कविताएँ आदि लिखकर देशभक्ति की भावना जागृत की गई. बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, विष्णुशास्त्री चिपलंकर, सुब्रह्मण्यम भारती, अल्ताफ हुसैन हाली इत्यादि ने अपनी साहित्यिक रचनाओं से राष्ट्रप्रेम की ज्योति प्रज्वलित की.
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पर स्वदेशी आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा? विश्लेषण करें.
उत्तर :-
स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव काँग्रेस की आंतरिक राजनीति पर व्यापक रूप से पड़ा. इसने “मॉडरेटों’ और राष्ट्रवादियों के बीच की खाई गहरी कर दी जिसकी अंतिम परिणति काँग्रेस के विभाजन में हुई. बंगाल-विभाजन के बाद काँग्रेस का अधिवेशन बनारस में हुआ, जिसकी अध्यक्षता गोपालकृष्ण गोखले ने की. नरमपंथियों एवं गरमपंथियों का विभेद इस सम्मेलन में बंगाल के विभाजन और बहिष्कार के प्रश्न पर उभरकर सामने आया. नरमपंथी बहिष्कार और स्वदेशी-आंदोलन को सिर्फ बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे, परंतु गरमपंथी इस आंदोलन को पूरे देश में फैलाना चाहते थे. गरमपंथी सिर्फ बहिष्कार और स्वदेशी से ही संतुष्ट नहीं थे. उन्हें स्वराज्य की कामना थी. लाजपत राय सत्याग्रह चलाना चाहते थे, परंतु नरमपंथी इसके लिए तैयार नहीं थे. दबाव में आकर काँग्रेस ने बॉयकाट और स्वदेशी को स्वीकार तो कर लिया, परंतु सिर्फ बंगाल के लिए ही. राष्ट्रवादी इससे संतुष्ट नहीं हुए. उनका असंतोष बढ़ता गया. 1906 ई० के कलकत्ता-अधिवेशन में दोनों पक्षों का मतभेद और अधिक उभरकर सामने आया. यद्यपि दादाभाई नोरोजी ने राष्ट्रवादियों को संतुष्ट करने के लिए अधिवेशन में घोषणा की कि काँग्रेस का उद्देश्य “ब्रितानी राज्य या उपनिवेशों की तरह स्वराज्य प्राप्त करना है”’, परंतु वे इससे संतुष्ट नहीं हो सके. वे पूर्ण स्वराज और स्वशासन चाहते थे. उन्हें नरमपंथियों के बहिष्कार, स्वदेशी और स्वराज्य के उद्देश्यों और अर्थों में विश्वास नहीं था. गरमपंथी काँग्रेस को क्रांतिकारी संघर्ष के लिए तैयार करना चाहते थे. फलतः, दोनों पक्षों में संघर्ष का अवश्यंभावी बन गया. अरविंद घोष ने राष्ट्रवादियों का नेतृत्व संभाला. 1907 ई० में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में दोनों दल खुले रूप से उलझ गए. समझौते के सभी प्रयास विफल हो गए. सूरत अधिवेशन हंगामे के बीच समाप्त हो गया. तिलक और उनके सहयोगी काँग्रेस से अलग हो गए. काँग्रेस पर नरमपंथियों का प्रभाव बना रहा. राष्ट्रवादियों ने अपने ढंग से अपना संघर्ष जारी रखा.